ईश्वरदास (कवि)
ईश्वरदास हिन्दी भाषा के कवि थे जिन्होने 'सत्यवतीकथा' नामक पुस्तक की रचना की। उक्त पुस्तक दिल्ली के बादशाह सिकंदर शाह (सं. १५४६-१५७४) के समय में लिखी गई। आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने सत्यवतीकथा को अवधी की सबसे पुरानी रचना माना है (हिंदी साहित्य का इतिहास, शुक्ल, १६वाँ पुनर्मुद्रण, पृ. १३०)।
पुस्तक दोहे और चौपाइयों में लिखी गई है। पाँच-पाँच चौपाइयों (अर्धालियों) पर एक दोहा है। ५८वें दोहे पर पुस्तक समाप्त हो जाती है। भाषा अयोध्या के आसपास की ठेठ अवधी है और कहानी का रूप-रंग सूफी आख्यानों जैसा है जिसका आरंभ यद्यपि व्यास-जनमेजय के संवाद से पौराणिक ढंग पर होता है, तथापि जो अधिकतर कल्पित, स्वच्छंद और मार्मिक ढंग पर रची गई है।
"सत्यवती कथा आचार्य शुक्ल के हिंदी साहित्य का इतिहास के अनुसार -
दिल्ली के बादशाह सिकन्दरशाह (संवत् 1546-1574 ) के समय में कवि ईश्वरदास ने 'सत्यवती कथा' नाम की एक कहानी दोहे, चौपाइयों में लिखी थी जिसका आरंभ तो व्यास जनमेजय के संवाद से पौराणिक ढंग पर होता है, पर जो अधिकतर कल्पित, स्वच्छंद और मार्मिक मार्ग पर चलने वाली है। वनवास के समय पांडवों को मार्कडेय ऋषि मिले जिन्होंने यह कथा सुनायी. -
मथुरा के राजा चंद्रउदय को कोई संतति न थी। शिव की तपस्या करने पर उनके वर से राजा को सत्यवती नाम की एक कन्या हुई। वह जब कुमारी हुई तब नित्य एक सुंदर सरोवर में स्नान करके शिव का पूजन किया करती। इंद्रपति नामक एक राजा के चार पुत्र थे। एक दिन ऋतुवर्ण शिकार खेलते-खेलते घोर जंगल में भटक गया। एक स्थान पर उसे एक कल्पवृक्ष दिखाई पड़ा जिसकी शाखाएँ तीस कोस तक फैली थीं। उस पर चढ़ कर चारों ओर दृष्टि दौड़ाने पर उसे एक सुंदर सरोवर दिखाई पड़ा जिसमें कई कुमारियाँ स्नान कर रही थीं। वह जब उतर कर वहाँ गया तो सत्यवती को देख मोहित हो गया। कन्या का मन भी उसे देखकर कुछ डोल गया। ऋतुवर्ण जब उसकी ओर एकटक ताकता रह गया तब सत्यवती को क्रोध आ गया और उसने यह कह कर कि-
एक चित्त हमें चितवे जस जोगी चित जोग। धरम न जानसि पापी कहसि कौन तैं लोग
शाप दिया कि 'तू कोढ़ी और व्याधिग्रस्त हो जा।' ऋतुवर्ण वैसा ही हो गया और फूट-फूट कर रोने लगा-
रौबे व्याधी बहुत पुकारी। छोहन ब्रिट रोवें सब झारी ।। बाघ सिंह रोवत बन माहीं। रोवत पंछी बहुत ओनाहीं ।।
यह व्यापक विलाप सुनकर सत्यवती उस कोढ़ी के पास जाती है; पर वह उसे यह कहकर हटा देता है कि 'तुम जाओ, अपना हँसो खेलो'। सत्यवती का पिता राजा एक दिन जब उधर से निकला तब कोढ़ी के शरीर से उठी दुर्गंध से व्याकुल हो गया। घर आकर उस दुर्गंध की शांति के लिए राजा ने बहुत दान-पुण्य किया। जब राजा भोजन करने बैठा तब उसकी कन्या वहाँ न थी राजा कन्या के बिना भोजन ही न करता था। कन्या को बुलाने जब राजा के दूत गये तब वह शिव की पूजा छोड़कर न आयी इस पर राजा ने क्रुद्ध होकर दूतों से कहा कि सत्यवती को जाकर उसी कोढ़ी को सौंप दो दूतों का वचन सुनकर कन्या नीम की टहनी लेकर उस कोढ़ी की सेवा के लिए चल पड़ी और उससे कहा-
तोहि छाॅंड़ी अब मैं कित जाऊँ। माइ-बाप सौंपा युवा ठाॅंऊ ।।
कन्या प्रेम से उसकी सेवा करने लगी और एक दिन उसे कंधे पर बिठाकर सत्यवती तीर्थस्थान कराने ले गयी, जहाँ बहुत-से देवता, मुनि, किन्नर आदि निवास करते थे। वहाँ जाकर सत्यवती ने कहा, 'यदि मैं सच्ची सती हूँ तो रात हो जाय।' इस पर चारों ओर घोर अंधकार छा गया। सब देवता तुरंत सत्यवती के पास दौड़े आये। सत्यवती ने उनसे ऋतुवर्ण को सुंदर शरीर प्राप्त करने का वर माँगा । व्याधिग्रस्त ऋतुवर्ण ने तीर्थ में स्नान किया और उसका शरीर निर्मत हो गया। देवताओं ने दोनों का विवाह करा दिया।
ईश्वरदास ने ग्रंथ के रचनाकाल का उल्लेख इस प्रकार किया है- भादौं मास पाष उजियारा। तिथि नौमी और मंगलवारा ।। नषत अस्विनी, मेष क चंदा। पंच जना सो सदा अनंदा।। जोगिनीपुर दिल्ली बड़ थाना। साह सिकंदर बड़ सुल्ताना।। कंठे बैठ सरसुती विद्या गनपति दीन्ह । ता दिन कथा आरंभ यह इसरदास कवि कीन्ह ।।