आर के नारायण

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आर॰ के॰ नारायण
जन्मरासीपुरम कृष्णस्वामी अय्यर नारायणस्वामी
10 अक्टूबर 1906
मद्रास, ब्रिटिश भारत
मौत13 मई 2001(2001-05-13) (उम्र 94)
चेन्नई
पेशालेखक
राष्ट्रीयताभारतीय
विधाउपन्यास, कहानी एवं अकाल्पनिक गद्यवृत्त
उल्लेखनीय कामs'गाइड', 'मालगुडी का आदमखोर'।
खिताबपद्म विभूषण, साहित्य अकादमी पुरस्कार, AC Benson Medal.
रिश्तेदारआर के लक्ष्मण (भाई)

हस्ताक्षर

आर॰ के॰ नारायण (अक्टूबर 10, 1906- मई 13, 2001) का पूरा नाम रासीपुरम कृष्णस्वामी अय्यर नारायणस्वामी था। नारायण अंग्रेजी साहित्य के भारतीय लेखकों में तीन सबसे महान् उपन्यासकारों में गिने जाते हैं। मुल्कराज आनंद तथा राजा राव के साथ उनका नाम भारतीय अंग्रेजी लेखन के आरंभिक समय में 'बृहत्त्रयी' के रूप में प्रसिद्ध है। मुख्यतः उपन्यास तथा कहानी विधा को अपनाते हुए उन्होंने विभिन्न स्तरों तथा रूपों में मानवीय उत्थान-पतन की गाथा को अभिव्यक्त करते हुए अपने गंभीर यथार्थवाद के माध्यम से रचनात्मक कीर्तिमान स्थापित किया है।

जीवन-परिचय[संपादित करें]

आर के नारायण (१९३५-१९२६)

आर॰ के॰ नारायण का पूरा नाम राशीपुरम कृष्ण स्वामीनारायण था। इसमें पारंपरिक पारिवारिक उपाधि 'अय्यर' जोड़कर भी उनका नाम लिया जाता है। नारायण के पिता एक तमिल अध्यापक थे, जिन्होंने अपना अधिकांश समय मैसूर के शांत शहर में बिताया था। नारायण ने भी बहुत थोड़े समय के लिए एक अध्यापक तथा पत्रकार के रूप में कार्य करने के सिवा अपना सारा जीवन लेखन में ही लगाया।[1]

आर॰ के॰ नारायण मैसूर के यादवगिरि में करीब दो दशक तक रहे। 1990 में बीमारी की वजह से वे चेन्नई शिफ्ट कर गये थे।

इनके द्वारा रचित एक उपन्यास गाइड के लिये उन्हें सन् 1960 में साहित्य अकादमी पुरस्कार से सम्मानित किया गया।[2]

रचनात्मक परिचय[संपादित करें]

उन्होंने एक काल्पनिक शहर मालगुडी को आधार बनाकर अपनी अनेक रचनाएँ की हैं। मालगुडी को प्रायः दक्षिण भारत का एक काल्पनिक कस्बा माना जाता है; परंतु स्वयं लेखक के कथनानुसार "अगर मैं कहूँ कि मालगुडी दक्षिण भारत में एक कस्बा है तो यह भी अधूरी सच्चाई होगी, क्योंकि मालगुडी के लक्षण दुनिया में हर जगह मिल जाएँगे।"[3]

उनका पहला उपन्यास स्वामी और उसके दोस्त (स्वामी एंड फ्रेंड्स) 1935 ई॰ में प्रकाशित हुआ। इस उपन्यास में एक स्कूली लड़के स्वामीनाथन का बेहद मनोरंजक वर्णन है तथा उपन्यास के शीर्षक का स्वामी उसी के नाम का संक्षिप्तीकरण है। इस उपन्यास के शीर्षक में ही व्यंग्य सन्निहित है। शीर्षक से कहानी के बारे में पाठक जैसी उम्मीद करने लगता है, उसे लेखक पूरी तरह ध्वस्त कर देता है। यह स्वामी ऐसा लड़का है जो स्कूल में वर्ग में अनुपस्थित रहकर हेड मास्टर के दफ्तर की खिड़कियों के शीशे तोड़ता है और अगले दिन सवाल किए जाने पर कोई जवाब नहीं दे पाता है तो बेवकूफों की तरह ताकते रहता है और सरासर पीठ पर बेंत पड़ने पर तथा डेस्क पर खड़े किए जाने पर अचानक कूदकर किताबें उठा कर यह कहते हुए भाग निकलता है कि 'मैं तुम्हारे गंदे स्कूल की परवाह नहीं करता'।[4] इसी तरह स्वामी की कहानी में एक लड़के की सामान्य शरारतों और उसके एवज में मिलने वाली सजाओं का ही वर्णन है। किंतु लेखक उसे बड़े मजाकिया लहजे में किसी लड़के के मन को पूरी तरह समझते हुए कहते हैं। आरंभिक उपन्यास होने से इसमें नारायण बढ़ती उम्र के साथ अनुभव की जाने वाली तकलीफ तथा समय के बीतने की अनुभूति का अहसास आदि के रूप में रचनात्मक प्रौढ़ता का पूरा परिचय तो नहीं दे पाते, परंतु बचपन की पूरी ताजगी को कथा में उतार देने में बिल्कुल सफल होते हैं।[5]

'स्नातक' (द बैचलर ऑफ आर्ट्स) 1935 ई० में प्रकाशित हुआ। यह एक संवेदनशील युवक चंदन की कहानी है जो उसके शिक्षा द्वारा प्राप्त प्रेम एवं विवाह संबंधी पश्चिमी विचारों तथा जिस सामाजिक ढांचे में वह रहता है के बीच के द्वंद्व को प्रस्तुत करता है।

द डार्क रूम (1938) भी दैनंदिन जीवन की छोटी-छोटी बातों और घटनाओं के विवरण से बुनी कहानी है। इसमें सावित्री नामक एक ऐसी परंपरागत नारी की कथा है जो समस्त कष्टों को मौन रहकर सहन करती है। उसका पति दूसरी कामकाजी महिला की ओर आकर्षित होता है और इस बात से आहत होने के बावजूद अंततः सावित्री सामंजस्य स्थापित करके ही रहती है। हालाँकि ऐसा नहीं है कि कहानी सपाट रूप में कह दी गयी है। भावनाओं का बिंब उकेरने में लेखक ने कुशलता का परिचय दिया है। पति के दूसरी औरत को न छोड़ने से उत्पन्न निराशा में सावित्री लड़ती भी है और घर छोड़कर चली भी जाती है। निराशा की इस स्थिति में उसे महसूस होता है कि स्वावलंबन के योग्य बनने पर ही जीवन वास्तव में जीवन होता है। अन्यथा "वेश्या और शादीशुदा औरतों में फर्क ही क्या है? -- सिर्फ यह कि वेश्या आदमी बदलती रहती है और बीवी एक से ही चिपकी रहती है। दोनों अपनी रोटी और सहारे के लिए आदमी पर ही निर्भर है।"[6] निराशा के इसी आलम में वह आत्महत्या की भी कोशिश करती है। बचा लिए जाने पर घर न लौटकर स्वाभिमान से अपनी कमाई से गुजारा चलाने का निश्चय करके एक मंदिर में नौकरी भी कर लेती है। परंतु, अंततः इस सब की व्यर्थता, हताशा और स्वयं अपनी दुर्बलता महसूस करके हार मान लेती है और फिर घर लौटने का निश्चय कर लेती है।[7] छोटी-छोटी बातों का विवरण देते हुए लेखक भावनाओं की पूर्णता का चित्र अंकित करता है।

स्वतंत्रता से पहले लेखक का अंतिम उपन्यास द इंग्लिश टीचर 1946 में प्रकाशित हुआ। यह उपन्यास अमेरिका में 'ग्रेटफुल टु लाइफ एंड डेथ' शीर्षक से प्रकाशित हुआ था। इसमें लेखक ने एक ऐसी कहानी चुनी है जिस के बाद का अंश अविश्वसनीय हो गया है। कहानी के आरंभ में घर और घर की लक्ष्मी अर्थात् पत्नी के प्रति प्रेम पूर्ण व्यवहार का उत्तम निदर्शन है, लेकिन कहानी के उत्तरांश में उस पत्नी के निधन हो जाने के बाद उसकी आत्मा से संपर्क स्थापित कर लेने की बातें आयी हैं, जो कि रचनात्मक स्तर पर अविश्वसनीय सी लगती है।[8]

स्वर्ण युग[संपादित करें]

वस्तुतः नारायण की रचनात्मकता के तीन स्तर हैं। उनकी रचनात्मक श्रेष्ठता का 'स्वर्णयुग' भारतीय स्वतंत्रता के बाद आया। 1952 ईस्वी से 1962 ईस्वी तक के एक दशक से कुछ अधिक वर्षों का समय उनकी रचनात्मकता का स्वर्ण युग था। इससे पहले और इसके बाद के समय को स्पष्ट विभाजित किया जा सकता है। रचनात्मक प्रौढ़ता के इस श्रेष्ठ समय में लेखक के उपन्यासों की त्रयी आयी। ये तीन उपन्यास थे- द फाइनेंसियल एक्सपर्ट (1952), गाइड (1958) तथा मालगुडी का आदमखोर (द मैनईटर ऑफ मालगुडी) [1962]।[8]

सन् 1960 में साहित्य अकादमी पुरस्कार से सम्मानित 'गाइड' नारायण की रचनात्मकता का शिखर है। इसे उनका श्रेष्ठतम उपन्यास माना गया है। उनकी व्यंग्य दृष्टि अन्यत्र कहीं भी इतनी तीक्ष्ण तथा नैतिक सरोकारों से जुड़ी हुई नहीं है और न ही तकनीक इतनी सूक्ष्म है।[9]

'मालगुडी का आदमखोर' में लेखक ने अपने नैतिक सरोकार को भस्मासुर की प्राचीन पौराणिक नीति कथा के संदर्भ को रचनात्मक रुप में आधुनिकता के साथ पुनर सृजित कर अभिव्यक्त किया है। यह आधुनिक भस्मासुर पशुओं की खाल में भूसा भरने वाला एक स्वार्थी, उद्धत तथा अधर्मी उद्दंड वासु नामक पात्र है, जो मंदिर के हाथी को शूट करने के लिए घात लगाकर बैठा रहता है, परंतु अनायास ही अपने माथे के पास मंडराती एक मक्खी को मारने के प्रयत्न में गोली चल जाने से खुद को ही मार डालता है। हास्य मिश्रित व्यंग्य का भी लंबा विवरण कहीं-कहीं लेखक ने दिया है। उदाहरणस्वरूप ज्योतिषी द्वारा आधी अच्छी तिथि बताने पर यह पूछे जाने पर कि बाधा क्या हो सकती है, ज्योतिषी कहता है कि हो सकता है कि अंगूठे में चोट लग जाए, या कॉफी के लिए रखा दूध खट्टा पड़ जाए, या नलके में चलता हुआ पानी एकाएक बंद हो जाए[10]। स्पष्टतः लेखक यहां ज्योतिष के उत्तम पक्ष को बिल्कुल नजरअंदाज करते हुए प्रचलित पाखंड के रूप में उसका मजाक उड़ाते हैं।

विस्तार-वैविध्य[संपादित करें]

उपरिवर्णित औपन्यासिक बृहत्त्रयी के बीच प्रकाशित 'महात्मा का इंतजार' (वेटिंग फॉर द महात्मा) [1955] में स्पष्ट रूप से तथा बाद में प्रकाशित 'द वेंडर ऑफ़ स्वीट्स' (मालगुडी का मिठाईवाला) [1967] की पृष्ठभूमि में गांधीवादी संघर्ष है। 'महात्मा का इंतजार' इस बात का अध्ययन है कि गांधीवादी क्रांति की भारतीय जन साधारण पर कैसी प्रतिक्रिया हुई। राजनीतिक प्रचार से दूर एक मुकम्मल सर्जनात्मक कलाकृति के रूप में यह अध्ययन संपन्न हुआ है।[11] 'द वेंडर ऑफ़ स्वीट्स' के 9 साल बाद 1976 में 'द पेंटर ऑफ़ साइन्ज़' का प्रकाशन हुआ। इन उपन्यासों को पढ़ते हुए लेखकीय क्षमता के प्रदर्शन के बावजूद लगता है कि लेखक का 'गाइड' एवं 'मालगुडी का आदमखोर' वाला स्वर्ण युग अब उतार पर आ गया है।[12]

हालाँकि नारायण की सृजन-यात्रा जारी रही और विषय-वैविध्य से भरी कृतियाँ आती रहीं। वस्तुतः अपनी बहुआयामी कृतियों के माध्यम से दक्षिण भारत के शिष्ट समाज की विचित्रताओं का वर्णन उन्होंने सफलता के साथ किया है। लेखक का विशेष लक्ष्य अंग्रेजियत से भरा भारतीय है। अपने उपन्यासों के साथ-साथ कहानियों में भी उसका वर्णन उसके खंडित व्यक्तित्व, आत्मवंचना और उसमें अंतर्निहित मूर्खता आदि के साथ उन्होंने किया है।[13]

कहानी के क्षेत्र में[संपादित करें]

एक कहानीकार के रूप में नारायण का प्रमुख स्वर कोमल व्यंग्य का है। व्यंग्य-विपर्यय द्वारा लेखक मानवीय मनोविज्ञान पर प्रकाश डालते रहते हैं। कुछ कहानियां रेखाचित्र के रूप में भी है और वे नारायण के सनकी पात्रों की समझ को पकड़ने की क्षमता से भरी हुई हैं। आर के नारायण की प्रायः सभी कहानियां एक जैसी चुस्त-दुरुस्त तथा ऐसी शैली में कही गयी है जो ऊपर से सपाट सी लगती है। कहानी में वे किसी क्रांतिकारी शैली को नहीं अपनाते हैं। सहज पठनीयता उनकी कहानी का अतिरिक्त वैशिष्ट्य है। इसके बावजूद उत्तम कहानियों में भी व्यंग्य के एक सामान्य मुद्रा से ऊपर उठकर एक सार्थक जीवन दृष्टि के रूप में विकसित न हो पाने के कारण[14] लेखक का 'गाइड' और 'मालगुडी का आदमखोर' वाला उपन्यासकार रूप उनके कहानीकार रूप पर भारी पड़ता है।

प्रकाशित पुस्तकें[संपादित करें]

उपन्यास
संकलन
निबंध
  • नेक्स्ट सन्डे
  • रिलक्टेंट गुरु
  • ए राइटर्स नाइटमेयर
  • द वर्ल्ड ऑफ़ स्टोरी-टेलर
अन्य कृतिया
  • माइ डेज
  • माइ डेटलेस डायरी
  • द एमेरल्ड रूट
  • गाॅड्स, डेमन्स एंड अदर्स
  • द रामायण
  • द महाभारत

सन्दर्भ[संपादित करें]

  1. भारतीय अंग्रेजी साहित्य का इतिहास, एम॰ के॰ नाईक, साहित्य अकादेमी, नयी दिल्ली, प्रथम संस्करण-1989, पृ०-165.
  2. "अकादमी पुरस्कार". साहित्य अकादमी. मूल से 15 सितंबर 2016 को पुरालेखित. अभिगमन तिथि 11 सितंबर 2016.
  3. मालगुडी की कहानियाँ, आर॰ के॰ नारायण, राजपाल एंड सन्ज़, दिल्ली, दशम संस्करण-2016, पृष्ठ-6.
  4. स्वामी और उसके दोस्त, आर॰ के॰ नारायण, राजपाल एंड सन्ज़, दिल्ली, षष्ठ संस्करण-2017, पृष्ठ-89.
  5. भारतीय अंग्रेजी साहित्य का इतिहास, एम॰ के॰ नाईक, साहित्य अकादेमी, नयी दिल्ली, प्रथम संस्करण-1989, पृ॰-166.
  6. डार्क रूम, आर॰ के॰ नारायण, राजपाल एंड सन्ज़ दिल्ली, पंचम संस्करण-2018, पृष्ठ-72.
  7. डार्क रूम, आर॰ के॰ नारायण, राजपाल एंड सन्ज़ दिल्ली, पंचम संस्करण-2018, पृष्ठ-112.
  8. भारतीय अंग्रेजी साहित्य का इतिहास, पूर्ववत्, पृ॰-167.
  9. भारतीय अंग्रेजी साहित्य का इतिहास, पूर्ववत्, पृ॰-168.
  10. मालगुडी का आदमखोर, आर॰ के॰ नारायण, राजपाल एंड सन्ज़, दिल्ली, चतुर्थ संस्करण-2016, पृष्ठ-115.
  11. आज का भारतीय साहित्य, साहित्य अकादमी, नयी दिल्ली, संस्करण-2007, पृष्ठ-446.
  12. भारतीय अंग्रेजी साहित्य का इतिहास, पूर्ववत्, पृ०-171.
  13. आज का भारतीय साहित्य, साहित्य अकादमी, नयी दिल्ली, संस्करण-2007, पृष्ठ-445-46.
  14. भारतीय अंग्रेजी साहित्य का इतिहास, पूर्ववत्, पृ॰-187-188.