आंग्लिकाई ऐक्य

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एंग्लिकन ऐक्य का ध्वज: यूनानी भाषा में कलीसिया का ध्येय "सत्य तुम्हें मुक्त कर देगा" अंकित है।

आंग्लिकाई ऐक्य अथवा ऐंग्लिगन समुदाय (अंग्रेजी:Anglican Communion) ईसाई कलीसियाओं में विश्व का तीसरा सबसे बड़ा कलीसिया है जो एंग्लिकनवाद के सिद्धांतों पर चलता है। इसका इतिहास एक प्रकार से इंग्लैंड में ईसाई धर्म के प्रवेश के साथ-साथ प्रारंभ होता है, किंतु 16वीं शताब्दी में ही वह रोमन काथलिक कलीसिया से अलग होकर चर्च ऑफ़ इंग्लैंड का अपनाने लगा। 17वीं शताब्दी में इसके लिए 'ऐंग्लिकन कलीसिया' का प्रयोग चल पड़ा। आजकल संसार भर के ऐंग्लिकन ईसाइयों का संगठन 'ऐंग्लिकन समुदाय' कहलाता है।

इतिहास[संपादित करें]

हेनरी अष्टम, जिनके राजकाल में आंगलिकाई कलीसिया को रोम से अलग एवंद स्वतंत्र रूप में स्थापित किया गया

हेनरी अष्टम के राज्यकाल (सन १५०९-१५५७) में लूथर ने जर्मनी में प्रोटेस्टैंट धर्म चलाया। इसके विरोध में हेनरी अष्टम ने १५२१ में एक ग्रंथ लिखा जिसमें उन्होंने रोम के बिशप (पोप) के ईश्वरदत्त अधिकार का प्रतिपादन किया। इसपर हेनरी को रोम की ओर से धर्मरक्षक की उपाधि मिली (यह आज तक इंग्लैंड के राजाओं की उपाधि है)। बाद में पोप ने हेनरी का प्रथम विवाह अमान्य ठहराने तथा इसको दूसरा विवाह कर लेने की अनुमति देने से इंकार किया। इसके परिणामस्वरूप पार्लियामेंट ने हेनरी के अनुरोध से एक अधिनियम स्वीकार किया जिसमें राजा को चर्च ऑफ़ इंग्लैंड का परमाधिकारी घोषित किया जाता था। (ऐक्ट ऑफ सुप्रिमेसी १५३१)। इस महत्वपूर्ण परिवर्तन के बाद हेनरी अष्टम ने जीवन भर प्रोटेस्टैंट विचारों का विरोध कर काथलिक धर्म सिद्धांतों को अक्षुण्ण बनाए रखने का सफल प्रयास किया। इंग्लैंड के कलीसिया का परमाधिकारी होने के नाते उसने मठों की संपत्ति अपनाकर उनका उन्मूलन किया।

एडवर्ड षष्ठम के राज्यकाल (सन १५५७-१५५३) में क्रैन्मर के नेतृत्व में ऐंग्लिकन चर्च का काथलिक स्वरूप बहुत कुछ बदल गया तथा 'बुक ऑफ कामन प्रेयर' में बहुत से प्रोटेस्टैंट विचारों का सननिवेश किया गया (इसका प्रथम संस्करण सन १५४९ में स्वीकृत हुआ, दूसरा परिवर्तित संस्करण सन १५५२ में प्रकाशित हुआ)।

अपने भाई एडवर्ड के निधन पर मेरी ट्यूडर ने कुछ समय तक (सन १५५३-५८) रोमन काथलिक चर्च के साथ चर्च ऑव इंग्लैंड का संपर्क पुन: स्थापित किया किंतु उसकी बहन एलिज़ाबेथ (सन १५५८-१६०३) ने चर्च ऑव इंग्लैंड को पूर्ण रूप से स्वतंत्र तथा राष्ट्रीय चर्च बना दिया। सर्वप्रथम अपने एक नए अधिनियम द्वारा अपने पिता हेनरी अष्टम की भाँति अपने को चर्च ऑव इंग्लैंड पर परमाधिकार दिलाया (ऐक्ट ऑव सुप्रिमेसी-सन १५५९) तथा एक दूसरे अधिनियम द्वारा एडवर्ड का द्वितीय बुक ऑव कामन प्रेयर अनिवार्य ठहरा दिया। (ऐक्ट ऑव यूनिफ़ार्मिटी-सन १५५९)। इतने में चर्च ऑव इंग्लैंड के सिद्धांतों के सूत्रीकरण का कार्य भी आगे बढ़ा और १५६२ में पार्लियामेंट तथा १५६३ में महारानी एलिज़ाबेथ द्वारा ३९ सूत्र (थर्टीनाइन आर्टिकिल्स) अनुमोदित हुए। इन सूत्रों पर लूथर के विचारों का प्रभाव स्पष्ट है।

एलिज़ाबेथ के समय में प्युरिटन दल का उदय हुआ किंतु वह विशेष रूप से जेम्स प्रथम (सन १६०३-२५) तथा चार्ल्स प्रथम (सन १६२५-१६४९) के राज्यकाल में सक्रिय था। प्युटिन दल ऐंग्लिकन चर्च को प्रोटेस्टैंट धर्म के अधिक निकट ले जाना चाहता था। वह कुछ समय तक सर्वोपरि रहा तथा सन १६४३ में पार्लियामेंट द्वारा बिशप की पदवी का उन्मूलन कराने में समर्थ हुआ। यह परिस्थिति सन १६६० तक बनी रही।

धार्मिक सिद्धांत[संपादित करें]

ऐंग्लिकन चर्च का इतिहास आगे चलकर प्रधानतया इसकी विभिन्न विचारधाराओं का उतार-चढ़ाव है। यहाँ पर ऐक्ट ऑव सक्सेशन का उल्लेख करना जरूरी है जिसके अनुसार इंग्लैंड के भावी राजाओं का ऐंग्लिकन होना अनिवार्य ठहराया गया है। (सन् १७०१ ई.)।

सिद्धांत-रोम से अलग हाते हुए भी ऐंग्लिकन चर्च अपने को काथलिक चर्च का अंग मानता है। सैद्धांतिक दृष्टि से उसका स्थान रोमन काथलिक चर्च तथा प्रोटेस्टैंट धर्म के बीच में है। इसी में ऐंग्लिकन चर्च का विशेष महत्त्व है और इसी कारण उसे 'ब्रिज चर्च' की उपाधि दी गई है क्योंकि वह पुल की भाँति दोनों के बीच में स्थित है। वह प्रोटेस्टैंट धर्म के समान रोम के विशप का अधिकार अस्वीकार करता है किंतु वह रोमन काथलिक चर्च की भाँति सिखलाता है कि बाइबिल ईसाई धर्म का एकमात्र आधार नहीं है। बाइबिल के अतिरिक्त वह काथलिक गिरजे की प्रथम चार महासभाओं के निर्णय भी स्वीकार करता है तथा बाइबिल की व्याख्या में गिरजे की प्राचीन परंपरा को बहुत महत्त्व देता है। फिर भी वह धार्मिक शिक्षा के संबंध में सैद्धांतिक एकरूपता के प्रति एक प्रकार से उदासीन है। फलस्वरूप ऐंग्लिकन चर्च में प्राय: प्रारंभ से ही कई विचारधाराओं अथवा दलों का अस्तित्व रहा है। यद्यपि बहुत से ऐंग्लिकन किसी भी दल का अनुयायी होना स्वीकार नहीं करते तथापि पहले की भाँति आजकल भी ऐंग्लिकन धर्म में मुख्यतया तीन भिन्न विचारधाराएँ वर्तमान हैं:

  1. एवेंजेलिकल,
  2. काथलिक,
  3. लिबरल

प्रवर्तन के समय से ही ऐंग्लिकन चर्च पर प्रोस्टेटैंट धर्म का प्रभाव पड़ा। यह प्रभाव विशेष रूप से निम्नलिखित बातों में लक्षित होता है-यज्ञ का निराकरण, पुरोहिताई तथा संस्कारों को कम महत्त्व देने की प्रवृत्ति, बिशपों के अधिकार को घटाने का प्रयत्न। इस विचारधारा के अनुयायी पहले तो चर्च के नाम से विख्यात थे किंतु आजकल वे अपने को एवेंजेलिकल कहकर पुकारते हैं। जब ऐंग्लिकन चर्च पहले पहल रोमन काथलिक गिरजे से अलग होने लगा था तब किसी के मन में नया धर्म चलाने का विचार नहीं था। बाद में भी ऐंग्लिकन धर्मपंडितों का एक दल निरंतर इस प्रयत्न में रहा कि ऐंग्लिकन धर्म जहाँ तक बन पड़े सिद्धांत तथा पूजापद्धति की दृष्टि से रोमन काथलिक धर्म से दूर न होने पाए। इस दल का नाम 'हाई चर्च' रखा गया और वह १७वीं शताब्दी के पूर्वार्ध में बिशप लार्ड के नेतृत्व में कुछ समय तक सर्वोपरि रहा। पिछली शताब्दी में आक्सफ़र्ड मूवमेंट द्वारा इस विचारधारा का महत्त्व फिर बढ़ने लगा। इसके अनुयायी अपने को ऐंग्लो-काथलिक कहते हैं तथा ऐंग्लिकन चर्च को काथलिक चर्च की एक शाखा मात्र मानते हैं। इधर (सन् १९२८ ई.) आधुनिक ऐंग्लो-काथलिक दल का एक नया संगठन, जिसके सदस्य प्राय: पादरी ही हाते हैं, सामूहिक रूप से रोमन काथलिक गिरजे में सम्मिलित हो जाने का आंदोलन करता है; विरोधियों ने उसका नाम पेपलिस्त रखा है। यह नितांत स्वाभाविक प्रतीत होता है कि जिस धर्म में उपर्युक्त परस्पर विरोधी काथलिक और एवेंजेलिकल विचारधाराओं की गुंजाइश थी, वहाँ कुछ लोग समन्वय की ओर झुक जाते तथा सिद्धांत को कम महत्त्व देते। उनके अनुसार धर्मसिद्धांत ईश्वर द्वारा प्रकट किए हुए धार्मिक सत्य का अंतिम सूत्रीकरण नहीं है, ये युगविशेष की धार्मिक भावनाओं की दार्शनिक अभिव्यक्ति मात्र हैं। १७वीं शताब्दी में इस दल का नाम 'लैटिट्यूडिनेरियन' रखा गया था, १८वीं शताब्दी में उसे 'लिबरल' तथा बाद में 'ब्राड चर्च' कहा गया। आजकल इसके लिए 'माडर्निज़्म' शब्द का भी प्रयोग होने लगा है।

संगठन[संपादित करें]

कैंटरबरी कैथेड्रल में अवस्थित, कैंटरबरी के आर्चबिशप का सिंघासन

चर्च ऑफ़ इंग्लैंड[संपादित करें]

चर्च ऑफ इंग्लैंड इंग्लैंड में ऐग्लिकन कॉमयूनियन का मातृ कलीसिया है, तथा आंग्ल ऐक्य का सबसे पुराना कलीसिया है। परम्परानुसार इस कलीसिया की औपचारिक स्थापना सेंट ऍगस्टीन ऑफ कैंटरबरी द्वारा 597 ई. में इंग्लैंड के मिशन के समय से बताया जाता है। इसके मुखिया कैंटरबरी के आर्चबिशप हैं।

कैंटरबरी के आर्चबिशप[संपादित करें]

कैंटरबरी के आर्चबिशप, चर्च ऑफ़ इंग्लैण्ड के एक वरिष्ठ बिशप और प्रमुख होते हैं। आंगलिकाइ ऐक्य और आंग्लिकाई कलीसिया के चिन्हनात्मक प्रमुख हैं(जैसे पोप रोमन कैथोलिक संप्रदाय के होते हैं)। तथा वे कैंटरबरी के बिशप-क्षेत्र के प्रदेशीय बिशप होते हैं। वर्त्तमान आर्चबिशप, परणपूज्य आर्चबिशप जस्टिन वेल्बी हैं, जिनका पदस्थापन २१ मार्च २०१३ को हुआ था। वेल्बी, १४०० वर्ष पुराने इस संसथान के १०५वें पदाधिकारी हैं। इस संसथान की शुरुआत कैंटरबरी के ऑगस्टीन के साथ हुई थी, जिन्हें ५९७ ई॰ में रोम से इंग्लैण्ड, ईसाइयत के प्रचार के लिए भेजा गया था।[1]

एंग्लिकन प्रान्त[संपादित करें]

एंग्लिकन संप्रदाय, विश्व में विभिन्न एंग्लिकन कलीसियाओं का ऐक्य है, अतः, विश्व ले प्रत्येक क्षेत्र में अथवा देश में, एंग्लिकन कलीसिया विभाजित है, और इस तरह एंग्लिकन ऐक्य के, विश्व भर में विभिन्न "प्रान्त" हैं।

विस्तार[संपादित करें]

एंग्लिकन ऐक्य के वैश्विक "प्रान्तों" का मानचित्र

ऐंग्लिकन धर्म का क्षेत्र इंग्लैंड तक सीमित नहीं रहा। राजनीतिक प्रभाव के फलस्वरूप वह स्काटलैंड तथा आयरलैंड में फैल गया था किंतु संसार भर में इसके व्यापक प्रसार का श्रेय अंग्रेज प्रवासियों तथा मिशनरियों को है। तीन मिशनरी संस्थाएँ विशेष रूप से उल्लेखनीय हैं-सोसाइटी फ़ार प्रोमोटिंग क्रिश्चियन नालेज (जो एस.पी.सी.के. अक्षरों से विख्यात है, सन् १६९८ ई. में संस्थापित)। सोसाइटी फ़ार द प्रोपेगेशन ऑव द गास्पेल (एस.पी.जी.-संस्थापित सन् १७०१ ई.), चर्च मिशनरी सोसाइटी (सी.एम.एस.-संस्थापित सन् १७९९ ई.)। आजकल ऐंग्लिकन समुदाय के निम्नलिखित प्रांत पूर्ण रूप से संगठित हैं-द चर्च ऑव इंग्लैंड (दो प्रांत, कैंटरबरी और यार्क), द चर्च ऑव आयरलैंड, दि एपिस्कोपल चर्च इन स्काटलैंड, द चर्च इन वेल्स (वह सन् १९१४ ई. में कैंटरबरी से अलग हो गया था); द प्रोटेस्टैंट एपिस्कोपल चर्च इन द यूनाइटेड स्टेट्स ऑफ़ अमेरिका; द चर्च ऑव इंडिया, पाकिस्तान, बर्मा ऐंड सिलोन (सन् १९४७ ई. के बाद लगभग २,५०,००० सदस्य; सन् १९४७ ई. में दक्षिण भारत के प्राय: सभी प्रोटेस्टैंट तथा लगभग ५,००,००० ऐंग्लिकन एक ही संस्था में सम्मिलित हुए, जो चर्च ऑव साउथ इंडिया कहलाती है और ऐंग्लिकन समुदाय से संबद्ध नहीं है); द चर्च ऑव द प्राविंस ऑव साउथ अफ्रीका; द ऐंग्लिकन चर्च ऑव कनाडा; द चर्च ऑव इंग्लैंड इन आस्ट्रेलिया ऐंड तास्मेनिया; द चर्च ऑव द प्राविंस ऑव न्यूज़ीलैंड; द चर्च ऑव प्राविंस ऑव वेस्ट इंडीज़; द होली काथलिक चर्च इन चाइना; जापान होली काथलिक चर्च; द चर्च ऑव द प्राविंस ऑव वेस्ट अफ्रीका; द चर्च ऑव द प्राविंस ऑव सेंट्रल अफ्रीका; आर्चबिशप्रिक ऑव द मिडल ईस्ट। इसके अतिरिक्त कुछ प्रांत पूर्ण रूप से संगठित नहीं है, वे प्राय: कैंटरबरी से संबद्ध हैं। आजकल संसार भर में लगभग लगभग पाँच करोड़ ईसाई ऐंग्लिकन समुदाय के अनुयायी हैं।

इन्हें भी देखें[संपादित करें]

सन्दर्भ[संपादित करें]

  1. "Archbishop of Canterbury – official website". मूल से 9 अप्रैल 2019 को पुरालेखित. अभिगमन तिथि 8 अप्रैल 2019.

सन्दर्भ ग्रन्थ[संपादित करें]

  • स्टीफ़ेन नील : ऐंग्लिकनिज़्म,
  • फ़िलिप ह्यूज : ए पापुलर हिस्ट्री ऑव द रिफ़ार्मेशन्स इन इंग्लैंड।

बाहरी कड़ियाँ[संपादित करें]