अष्ट सिद्धि

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अष्ट सिद्धि का संस्कृत में श्लोक इस प्रकार है।

अणिमा महिमा चैव लघिमा गरिमा तथा ।

प्राप्तिः प्राकाम्यमीशित्वं वशित्वं चाष्ट सिद्धयः ।।

अर्थ - अणिमा , महिमा, लघिमा, गरिमा तथा प्राप्ति प्राकाम्य इशित्व और वशित्व ये सिद्धियां "अष्टसिद्धि" कहलाती हैं।

'सिद्धि' शब्द का तात्पर्य सामान्यतः ऐसी पारलौकिक और आत्मिक शक्तियों से है जो तप और साधना के द्वारा प्राप्त होती हैं । हिन्दु धर्म शास्त्रों में अनेक प्रकार की सिद्धियां वर्णित हैं जिन में आठ सिद्धियां अधिक प्रसिद्ध है जिन्हें 'अष्टसिद्धि' कहा जाता है और जिन का वर्णन उपर्युक्त श्लोक में किया गया है ।

गोस्वामी तुलसीदास द्वारा लिखी गई श्री हनुमान चालीसा वह चौपाई है जिसमें तुलसीदास जी बताते हैं कि हनुमान जी आठ सिद्धियों से संपन्न हैं।

अष्टसिद्धि का विवरण[संपादित करें]

1. अणिमा - अपने शरीर को एक अणु के समान छोटा कर लेने की क्षमता। 2. महिमा - शरीर का आकार अत्यन्त बड़ा करने की क्षमता। 3. गरिमा - शरीर को अत्यन्त भारी बना देने की क्षमता। 4. लघिमा - शरीर को भार रहित करने की क्षमता। 5. प्राप्ति - बिना रोक टोक के किसी भी स्थान को जाने की क्षमता। 6. प्राकाम्य - अपनी प्रत्येक इच्छा को पूर्ण करने की क्षमता। 7. ईशित्व - प्रत्येक वस्तु और प्राणी पर पूर्ण अधिकार की क्षमता। 8. वशित्व - प्रत्येक प्राणी को वश में करने की क्षमता। अष्ट सिद्धियां वे सिद्धियाँ हैं, जिन्हें प्राप्त कर व्यक्ति किसी भी रूप और देह में वास करने में सक्षम हो सकता है। वह सूक्ष्मता की सीमा पार कर सूक्ष्म से सूक्ष्म तथा जितना चाहे विशालकाय हो सकता है।

१. अणिमा : अष्ट सिद्धियों में सबसे पहली सिद्धि अणिमा हैं, जिसका अर्थ! अपने देह को एक अणु के समान सूक्ष्म करने की शक्ति से हैं।जिस प्रकार हम अपने नग्न आंखों से एक अणु को नहीं देख सकते, उसी तरह अणिमा सिद्धि प्राप्त करने के पश्चात दूसरा कोई व्यक्ति सिद्धि प्राप्त करने वाले को नहीं देख सकता हैं। साधक जब चाहे एक अणु के बराबर का सूक्ष्म देह धारण करने में सक्षम होता हैं।

२. महिमा : अणिमा के ठीक विपरीत प्रकार की सिद्धि हैं महिमा, साधक जब चाहे अपने शरीर को असीमित विशालता करने में सक्षम होता हैं, वह अपने शरीर को किसी भी सीमा तक फैला सकता हैं।

३. गरिमा : इस सिद्धि को प्राप्त करने के पश्चात साधक अपने शरीर के भार को असीमित तरीके से बढ़ा सकता हैं। साधक का आकार तो सीमित ही रहता हैं, परन्तु उसके शरीर का भार इतना बढ़ जाता हैं कि उसे कोई शक्ति हिला नहीं सकती हैं।

४. लघिमा : साधक का शरीर इतना हल्का हो सकता है कि वह पवन से भी तेज गति से उड़ सकता हैं। उसके शरीर का भार ना के बराबर हो जाता हैं।

५. प्राप्ति : साधक बिना किसी रोक-टोक के किसी भी स्थान पर, कहीं भी जा सकता हैं। अपनी इच्छानुसार अन्य मनुष्यों के सनमुख अदृश्य होकर, साधक जहाँ जाना चाहें वही जा सकता हैं तथा उसे कोई देख नहीं सकता हैं।

६. प्रकाम्य : साधक किसी के मन की बात को बहुत सरलता से समझ सकता हैं, फिर सामने वाला व्यक्ति अपने मन की बात की अभिव्यक्ति करें या नहीं।

७. ईशत्व : यह भगवान की उपाधि हैं, यह सिद्धि प्राप्त करने से पश्चात साधक स्वयं ईश्वर स्वरूप हो जाता हैं, वह दुनिया पर अपना आधिपत्य स्थापित कर सकता हैं।

८. वशित्व : वशित्व प्राप्त करने के पश्चात साधक किसी भी व्यक्ति को अपना दास बनाकर रख सकता हैं। वह जिसे चाहें अपने वश में कर सकता हैं या किसी की भी पराजय का कारण बन सकता हैं।

इन्हें भी देखें[संपादित करें]

सन्दर्भ[संपादित करें]