गुरुकुल महाविद्यालय, ज्वालापुर

मुक्त ज्ञानकोश विकिपीडिया से

गुरुकुल महाविद्यालय, उत्तराखण्ड के हरिद्वार जनपद के ज्वालापुर में स्थित एक महाविद्यालय है। इसकी स्थापना १९०७ में हुई थी। यह महाविद्यलय ज्वालापुर नामक उपनगर से आधा किमी दूरी पर भागीरथी की नहर के दक्षिणी तट पर रेलवे लाइन से बिल्कुल सटा हुआ, लोहे के पुल के दक्षिण की ओर सुविस्तृत एवं परम रमणीक भूमि में स्थित है।

गुरुकुल महाविद्यालय की स्थापना वैशाख शुक्ला 3 (अक्षय तृतीया) सम्वत 1964 वि0 (तदनुसार 30 जून सन् 1907 ई0) को दानवीर स्वर्गीय बाबू सीताराम जी, इंसपेक्टर ऑफ पुलिस ज्वालापुर, के सुरम्य उद्यान में संस्कृत-शिक्षा के प्रचार एवं विलुप्त 'ब्रह्मचर्याश्रम’ प्रणाली के पुनरुद्धार के विशेष उद्देश्य को लेकर स्वामी दर्शनानन्द जी सरस्वती के करकमलों द्वारा केवल तीन बीघा भूमि में बारह आने के स्थिर कोष से हुई थी।

इस महाविद्यालय की विशेषता है कि यह प्राचीन ब्रह्मचर्याश्रम प्रणाली के आधार पर आर्यसमाज के संस्थापक महर्षि दयानन्द सरस्वती द्वारा निर्दिष्ट पद्धति के अनुसार निर्धन एवं धनवान् छात्रो को सर्वथा समान भाव से वैदिक वाङ्मय की उच्चतम निःशुल्क शिक्षा देता है। शिक्षा का माध्यम आर्य-भाषा हिन्दी है। इस संस्था में वेद, वेदांग, उपनिषद्, दर्शनशास्त्र, संस्कृत साहित्य, धर्मशास्त्र आदि प्राच्य विषयों के अतिरिक्त हिन्दी, गणित, विज्ञान, सामाजिक विज्ञान (भूगोल, इतिहास, नागरिक शास्त्र), कम्प्यूटर और अंग्रेजी भाषा की भी यथोचित शिक्षा दी जाती है। यहाँ से शिक्षा प्राप्त करके सहस्राधिक छात्र स्नातक बनकर देश के धार्मिक, सामाजिक, राजनैतिक, साहित्यिक आदि विभिन्न क्षेत्रों में बड़ी तत्परता और कुशलता के साथ कार्य कर रहे हैं। यह संस्था संस्कृत साहित्य के ज्ञान और उसके ठोस पाण्डित्य में अपना विशेष स्थान और प्रभाव रखती है।

यहाँ का जीवन सरल और रहन-सहन सादा है। स्नातकों तथा छात्रों मे शास्त्रीय विषयों के प्रौढ़ पाण्डित्य के साथ-साथ ग्रन्थ-लेखन, पत्रकारिता, कवित्व-शक्ति, कुशल अध्यापकत्व, व्याख्यान-कला आदि में विशेष प्रगतिशीलता है। इसके पास 300 बीघा भूमि है, जिससे कृषि और वाटिका आदि के द्वारा पर्याप्त सहायता प्राप्त होती है। संस्था में बड़े-बड़े विशाल भवन हैं, जो यहाँ के सौन्दर्य में अपना विशेष स्थान रखते हैं।

यहाँ के कार्यकर्ता एवं आचार्य सदा से त्यागी, तपस्वी, सरस्वती के सच्चे उपासक एवं अनन्य भक्त रहे हैं, जो सांसारिक प्रलोभनों से भी उदासीन हैं। इसी का यह सपरिणाम है कि आज की विषम परिस्थितियों में भी सह संस्था किसी न किसी रूप में दुःख-सुख भोगकर दपना अस्तित्व सुरक्षित रखो हुए है। इसे पूर्णरूपेण न राज्याश्रय प्राप्त है और न ही अपेक्षित रूप से जनता का आश्रय ही प्राप्त हुआ है। केवल भगवान् के भरोसे पर उसी दीनबन्धु के विश्वास और आदर्श-संन्यासी श्री स्वामी दर्शानानन्द जी सरस्वती के एकमात्र भोगवाद के दृढ़ सिद्धान्त पर इसका संचालन निर्बाध रूप से हो रहा है।

बाहरी कड़ियाँ[संपादित करें]