धर्मसुधार-विरोधी आंदोलन

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यूरोप में धर्म सुधार आंदोलन के कारण नवीन प्रोटेस्टेंट धर्म के प्रसार से चिंतित होकर कैथोलिक धर्म के अनुयायियों ने कैथोलिक चर्च व पोपशाही की शक्ति व अधिकारों को सुरक्षित करने और उनकी सत्ता को पुनः सुदृढ़ बनाने के लिए कैथोलिक चर्च और पोपशाही में अनके सुधार किये। यह सुधार आंदोलन, कैथोलिकों की दृष्टि से उनके पुनरुत्थान का आंदोलन है और प्रोटेस्टेंट विरोधी होने से इसे धर्म-सुधार-विरोधी आंदोलन (Counter-Reformation), या प्रतिवादी अथवा प्रतिवादात्मक धर्म-सुधार आंदोलन कहा गया। यह आंदोलन सोलहवीं सदी के मध्य से प्रारंभ हुआ और सत्रहवीं शताब्दी के मध्य तक चला। (ट्रेण्ट काउंसिल (1545–1563) से आरम्भ होकर तीसवर्षीय युद्ध की समाप्ति तक (1648))

इस धर्मसुधार-विरोधी आंदोलन का उद्देश्य कैथोलिक चर्च में पवित्रता और ऊँचे आदर्शों को स्थापित करना था, चर्च और पोपशाही में व्याप्त दोषों को दूर कर उसके स्वरूप को पवित्र बनाना था। इस युग के नये पोप जैसे पॉल तृतीय, पॉल चतुर्थ, पायस चतुर्थ, पायस पंचम आदि पूर्व पोपों की अपेक्षा अधिक सदाचारी, धर्मनिष्ठ, कर्तव्यपरायण और सुधारवादी थे। इनके प्रयासों से कैथोलिक धर्म में नवीन शक्ति, स्फूर्ति और प्रेरणा आई और कई सुधार किये गये।

धर्म-सुधार-विरोधी आंदोलन के प्रयास और साधन[संपादित करें]

ट्रेन्ट की धर्म सभाएँ (1545 ई.-1565 ई.)[संपादित करें]

दिसम्बर 1545 ई. में लूथर के देहांत के कुछ ही समय पहले जर्मनी में सम्राट चार्ल्स पंचम ने एक धर्म सभा आयोजित की जिससे कि यूरोप के सम्राट चर्च में सुधार कर सकें। इस सभा की बैठकें 1545 ई. से 1565 ई. की अवधि में आयोजित होती रही। इनमें कैथोलिकों की प्रधानता थी और उनका अध्यक्ष भी कैथोलिक ही था। इन सभाओं में सुधार के लिए महत्वपूर्ण निर्णय लेकर उनको कार्यान्वित किया गया।

  • 1. कैथोलिक चर्च का प्रधान पोप है। धार्मिक विषयों में उसके निर्माण को अंतिम और श्रेष्ठ माना गया।
  • 2. चर्च के विभिन्न पदों की बिक्री निषिद्ध कर दी गयी। योग्यता के आधार नई नियुक्तियाँ की जाएँ।
  • 3. पादरियों, बिशपों के प्रशिक्षण की व्यवस्था की गयी। उनको तथा चर्च के धर्माधिकारियों को निर्देश दिए गए कि वे सांसारिक भोग-विलासिताओं को त्याग कर, अपने-अपने कार्य क्षेत्रों में रहें और कर्तव्यों का समुचित पालन करें। उनके जीवन को पवित्र, सदाचारी, अनुशासन युक्त तथा क्रियाशील बनाने के लिए विभिन्न नियम बनाये गये।
  • 4. जन साधारण की भाषा में धार्मिक उपदेश दिये जाएँ।
  • 5. पाप मोचन पत्रों या क्षमा पत्रों का दुरुपयोग समाप्त कर दिया गया।
  • 6. कैथोलिकों के लिए एक सी आराधना पद्धति व प्रार्थना-पुस्तक निर्धारित की गयी।
  • 7. उन पुस्तकों को निषिद्ध कर दिया गया जिनमें प्रोटेस्टेंट धर्म के सिद्धांतों का निरूपण था।
  • 8. कैथोलिक धर्म के सिद्धांतों को अधिक स्पष्ट और सुदृढ़ किया गया।
  • 9. लूथर का प्रतिपादित “श्रद्धा समन्वित सिद्धांत“ असत्य और अमान्य घोषित किया गया। लूथर का यह मन कि केवल धार्मिक श्रद्धा से ही पापी मुक्ति पा सकता है गलत बताया गया। मुक्ति के लिए धार्मिक श्रद्धा, सद्कार्य और पुण्य कर्म दोनों की आवश्यकता पर बल दिया गया। “सप्त संस्कारों“ की उत्पत्ति ईसा से बता कर उसकी अनिवार्यता को बतलाया गया। “लास्ट सपर“ के सिद्धांत की पुष्टि की गयी।
  • 10. लैटिन भाषा में लिखी बाइबल ही मान्य की गयी। मठों, गिरजाघरों और पाठशालाओं में सर्वमान्य बाइबल पढ़ाने की व्यवस्था की गयी।

इस प्रकार ट्रेन्ट की धर्म सभाओं के कार्य दो प्रकार के थे - सैद्धांतिक और सुधारात्मक। सैद्धांतिक दृष्टि से कैथोलिक धर्म के सिद्धांतों को अधिक स्पष्ट किया गया तथा उसकी मान्यताओं को पुनः पुष्ट किया गया। सुधार की दृष्टि से चर्च में नैतिकता, शुद्धता, पवित्रता, अनुशासन, धर्मपरायणता आदि की स्थापना की गई। ट्रेन्ट की धर्म सभाओं के परिणामस्वरूप कैथोलिक सम्प्रदाय के संगठन में उच्च श्रेष्ठ आदर्श और अनुशासन स्थापित हो गये।

इगनेशियस लायला (1491 ई.-1556 ई.)[संपादित करें]

कैथोलिक धर्म में सुधार के लिए धर्म सभाओं के प्रस्ताव और निर्णयों पर्याप्त नहीं थे, उन्हें कार्यान्वित करने के लिए धार्मिक संगठनों की आवश्यकता थी, ऐसे स्वयं सेवकों की आवश्यकता थी जो विभिन्न स्थानों का भ्रमण कर कैथोलिक धर्म की ज्योति पुनः प्रज्जवलित करने और कैथोलिक धर्म के सिद्धांतों का अनेक कष्टों को सहन करते हुए प्रचार करते। फलतः सोलहवीं सदी के उत्तरार्द्ध में ऐसे अनेक धार्मिक संघ बन गये। इनमें जीसस संघ (जेसुइट संघ) और उसका संस्थापक इगनेशियस लायला विशेष प्रसिद्ध है।

इगनेशियस लायला स्पेन का एक सैनिक था जो सन 1521 में नवार के युद्ध में घायल होकर सदा के लिए लंगड़ा हो गया था। उसके विचारों और मानसिक प्रवृत्तियों में परिवर्तन हुआ। उसने ईसामसीह का सैनिक बनकर चर्च की सेवा करने का निश्चय किया। उसने कैथोलिक भिक्षु के वस्त्र धारण कर लिये और ज्ञान संचय के लिए सात वर्ष तक पेरिस विश्वविद्यालय में साहित्य, दर्शन शास्त्र और धर्म-शास्त्रों का गहन अध्ययन किया। यहीं एक दिन उसने सेंट मेरी के गिरजाघर में अपने साथियों सहित एकत्र होकर जीसस संघ स्थापित किया। इसका उद्देश्य कैथोलिक चर्च और ईसाई धर्म की सेवा करना, कैथोलिक धर्म का प्रचार करना तथा अपरिग्रह, बह्यचर्य और पवित्रता से जीवन व्यतीत करना था।

जीसस संघ के कार्य और उपलब्धियाँ[संपादित करें]

इगनेशियस लायला और उसके साथी फ्रांसिस जेवियर की श्रद्धा, भक्ति और निस्वार्थ सेवा से प्रभावित होकर पोप पाल तृतीय ने 1540 ई. में इस जेसुइट संघ को स्वीकृति पत्र देकर इसे कैथोलिक चर्च के सक्रिय संघ और कार्यकर्ताओं में मान लिया।

इस संघ का स्वरूप सैनिक था। इसका प्रमुख या अघ्यक्ष “जनरल“ कहा जाता था। वह जीवन भर के लिए इस पद पर नियुक्त होता था। इसके सदस्य निस्वार्थ सेवक थे। उनको अपने उच्च अधिकारियों के आदेशों का बड़ी कठोरता से पालन करना पड़ता था। उन्होंने कई शिक्षण संस्थाएँ स्थापित की जहाँ निःशुल्क शिक्षा दी जाती थी। उन्होंने सेवा, दान, लोकहितैषी कार्य, चिकित्सा सेवा कार्य धर्मोपदेश आदि के द्वारा कैथोलिक कार्य और चर्च की खूब उन्नति की। उन्होंने चीन भारत, अफ्रीका, उत्तरी अमेरिका, जापान, ब्राजील, पेरागुए जैसे गैर-ईसाई देशों में जाकर भी कैथोलिक धर्म का खूब प्रचार किया। अकबर के शासनकाल में जैसुइट पादरी धर्म प्रचार के लिए भारत आये थे। फ्रांसिस जेवियर तो अकबर के दरबार में था। वे कट्टर और धर्मांध थे। जेसुइट पादरियों के परिणामस्वरूप सत्रहवीं सदी के मध्य तक इटली, फ्रांस, स्पेन, पोलैण्ड, नीदरलैण्ड, दक्षिणी जर्मनी, हंगरी आदि देशों में कैथोलिक धर्म पुनः प्रतिष्ठित हो गया।

जेसुइट धर्माधिकारियों ने इंग्लैण्ड में भी कैथोलिक धर्म का प्रचार किया। उन्होंने इंग्लैण्ड की रानी एलिजाबेथ को कैथोलिक बनाने के कई प्रयास किये किंतु असफल रहे।

इन्क्वीजिशन (धार्मिक न्यायालय)[संपादित करें]

प्रोटेस्टेंट धर्म की प्रगति को अवरूद्ध करने के लिए इन्क्वीजिशन नामक धार्मिक न्यायालय विभिन्न देशों में स्थापित किये गये। इनकी स्थापना और गतिविधियों में जेसुइट पादरियों और धर्माधिकारियों का सबसे अधिक हाथ रहा।

इस विशिष्ट धार्मिक न्यायालय को 1552 ई. में पोप पॉल तृतीय ने रोम में पुनर्जीवित किया। यह न्यायालय सर्वोच्च अधिकारों युक्त था। नास्तिकों को ढूँढ निकालने, उनको कठोरतम दंड देने, केथोलिक चर्च के सिद्धांतों को बलपूर्वक लागू करने, केथोलिक धर्म के विरोधियों को निर्ममता से कुचलने के लिए, दूसरे देशों से धर्म के मुकदमों में अपीलें सुनने आदि के कार्य यह न्यायालय करता था। प्रोटेस्टेंटों के विरूद्ध इस न्यायालय ने कठोरतम उपाय किये। इस न्यायालय में बड़ी संख्या में मृत्यु दण्ड और जीवित जला देने की सजाएँ भी दीं। इससे कालांतर में यह न्यायालय कुख्यात हो गया।

धार्मिक आंदोलनों का प्रभाव[संपादित करें]

(1) सोलहवीं सदी के प्रारंभ से लेकर सत्रहवीं सदी के मध्यान्ह तक यूरोप में जो धर्म सुधार आंदोलन और प्रतिवादी धर्म सुधार आंदोलन और संघर्ष हुए- उसके परिणामस्वरूप यूरोप का ईसाई जगत दो प्रमुख भागों में विभक्त हो गया-केथोलिक और प्रोटेस्टें ट। अब केथोलिक धर्म के अंतर्गत यूरोप में इटली, स्पेन, पुर्तगाल, बेलजियम, स्विटजरलैण्ड, दक्षिणी जर्मनी, आयरलैण्ड, पोलैण्ड, लिथुनिया, बोहेमिया, उत्तरी यूगोस्लाविया, हंगरी तथा यूरोप से बाहर पश्चिमी द्वीप समूह तथा मध्य व दक्षिण अमेरिका थे। प्रोटेस्टेंट धर्म के अंतर्गत उत्तरी और मध्य जर्मनी, डेनमार्क, नारवे, स्वीडन, फिनलैण्ड, एस्टोनिया, लेटविया, उत्तरी नीदरलैण्ड (हालैण्ड), स्काटलैण्ड व स्विटजरलैण्ड के क्षेत्र थे। दूसरे शब्दों में उत्तरी और पूर्वी यूरोप प्रोटेस्टेंट हो गया और दक्षिणी तथा पश्चिमी यूरोप केथोलिक बना रहा।

(2) धार्मिक आंदोलनों के फलस्वरूप यूरोप में राष्ट्रों और सुदृढ़ राजतंत्रों का विकास हुआ। अपने अधिकारों की वृद्धि करने और अपने राष्ट्र व राज्य को सुदृढ़ करने के लिए उन्होंने धार्मिक आंदोलनों में सक्रिय भाग लिया। एक ओर केथोलिक धर्मावलंबी राजाओं ने केथोलिक धर्म का और दूसरी ओर प्रोटेस्टेंट राजाओं ने प्रोटेस्टेंट धर्म का समर्थन किया। उन्होंने चर्च के सहयोग से धार्मिक एकता स्थापित कर अपने-अपने राज्य में सुदृढ़ राजतंत्र और राष्ट्रीय एकता स्थापित की। 1517 ई. से 1646 ई. तक यूरोप का राजनीतिक क्षेत्र धर्म से पूर्ण प्रभावित था।

(3) धार्मिक आंदोलनों के फलस्वरूप यूरोप के विभिन्न देशों में राष्ट्रीय भावना का उदय और विकास हुआ। ईसाई धर्म का राष्ट्रीयकरण हो गया। केथोलिक चर्च और पोपशाही के विरूद्ध आंदोलन को राष्ट्रीयता की अभिव्यक्ति माना गया। प्रोटेस्टेंटवाद का समीकरण राष्ट्रवाद में हो गया। लूथरवाद ने जर्मन राष्ट्रीयता, कैल्विनवाद ने डच और स्काटिश राष्ट्रीयता और एंग्लिकन चर्च ने ब्रिटिश राष्ट्रीयता का विकास किया। इसी प्रकार अन्य देशों में भी केथोलिक चर्च का स्वरूप राष्ट्रीय हो गया।

(4) धर्म सुधारों से जन जागृति और स्वतंत्र वातावरण निर्मित हुआ और स्वतंत्र विचारों की अभिव्यक्ति हुई तथा मनन-चिंतन की प्रवृत्ति अधिक बलवती हुई। जेसुइट पादरियों और धर्म प्रचारकों ने शिक्षा को धर्म की उन्नति का साधन मानकर शिक्षा की प्रगति और प्रसार की ओर विशेष ध्यान दिया। न केवल जेसुइटों ने, अपितु लूथर और कैल्विन के अनुयायियों ने भी शिक्षा के प्रसार और विकास पर अधिकाधिक बल दिया। कैल्विन ने तो जेनेवा को प्रोटेस्टेंट जगत का ज्ञान-विज्ञान का केन्द्र बना दिया था।

(5) धार्मिक आंदोलनों के परिणामस्वरूप ईसाईयों का नैतिक जीवन अधिक उन्नत हो गया। विभिन्न ईसाई सम्प्रदायों में व्यावहारिक नैतिक, चारित्रिक पवित्रता, आचरण की श्रेष्ठता, सरल और संयमी जीवन प्रणाली पर अधिकाधिक बल दिया जाने लगा।

इन्हें भी देखें[संपादित करें]