रंग

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रंग प्रकाश का गुण है। इसके तीन गुण होते है- रंगत ,मान, सघनता। वर्ण, चाक्षुक या आभासी कला के महत्वपूर्ण अंग हैं।
रंग चक्र

वर्ण या रंग होते हैं, आभास बोध का मानवी गुण धर्म है, जिसमें लाल, हरा, नीला, इत्यादि होते हैं। रंग, मानवी आँखों की वर्णक्रम से मिलने पर छाया सम्बंधी गतिविधियों से से उत्पन्न होते हैं। रंग की श्रेणियाँ एवं भौतिक विनिर्देश जो हैं, जुड़े होते हैं वस्तु, प्रकाश स्त्रोत, इत्यादि की भौतिक गुणधर्म जैसे प्रकाश अन्तर्लयन, विलयन, समावेशन, परावर्तन या वर्णक्रम उत्सर्ग पर निर्भर भी करते हैं।

रंगों की भौतिकी[संपादित करें]

अनवरत प्रकाश वर्णक्रम (गाम्मा सुधार-1.5 वाले प्रदर्शकों हेतु निर्मित)

रंग के वैसे तो सिर्फ पांच ही रूप होते हैं जिससे अनेक रंग बनते है। वैसे मूल रंग ३ होते हैं -- लाल, नीला, और पीला। इनमें सफेद और काला भी मूल रंग में अपना योगदान देते है। लाल रंग में अगर पीला मिला दिया जाये, तो केसरिया रंग बनता है। यदि नीले में पीला मिल जाये, तब हरा बन जाता है। इसी तरह से नीला और लाल मिला दिया जाये, तब जामुनी बन जाता है।

रंग[संपादित करें]

प्रत्यक्ष प्रकाश वर्णक्रम के रंग[1]
वर्ण तरंगदैर्घ्य अंतराल आवृत्ति अंतराल
लाल ~ 630–700 nm ~ 480–430 THz
नारंगी ~ 590–630 nm ~ 510–480 THz
पीला ~ 560–590 nm ~ 540–510 THz
हरा ~ 490–560 nm ~ 610–540 THz
नीला ~ 450–490 nm ~ 670–610 THz
बैंगनी ~ 400–450 nm ~ 750–670 THz
प्रकाश के रंग, तरंग दैर्घ्य, आवृत्ति एवं ऊर्जा
वर्ण /nm /1014 Hz /104 cm−1 /eV /kJ mol−1
अधोरक्त >1000 <3.00 <1.00 <1.24 <120
लाल 700 4.28 1.43 1.77 171
नारंगी 620 4.84 1.61 2.00 193
पीला 580 5.17 1.72 2.14 206
हरा 530 5.66 1.89 2.34 226
नीला 470 6.38 2.13 2.64 254
बैंगनी 420 7.14 2.38 2.95 285
निकटवर्ती पराबैंगनी 300 10.0 3.33 4.15 400
दूरवर्ती पराबैंगनी <200 >15.0 >5.00 >6.20 >598

वस्तुओं के रंग[संपादित करें]

नारंगी डिस्क और भूरा डिस्क का वस्तुनिष्ठ रंग बिल्कुल एक जैसा है, और वे समान ग्रे रंग से घिरे में हैं; संदर्भ अंतर के आधार पर, मनुष्यों को अलग-अलग प्रतिबिंबों के रूप में देखते हैं, और रंगों की अलग-अलग रंग श्रेणियों के रूप में व्याख्या कर सकते हैं।


इतिहास[संपादित करें]

रंग हज़ारों वर्षों से हमारे जीवन में अपनी जगह बनाए हुए हैं। यहाँ आजकल कृत्रिम रंगों का उपयोग जोरों पर है वहीं प्रारंभ में लोग प्राकृतिक रंगों को ही उपयोग में लाते थे। उल्लेखनीय है कि मोहनजोदड़ो और हड़प्पा की खुदाई में सिंधु घाटी सभ्यता की जो चीजें मिलीं उनमें ऐसे बर्तन और मूर्तियाँ भी थीं, जिन पर रंगाई की गई थी। उनमें एक लाल रंग के कपड़े का टुकड़ा भी मिला। विशेषज्ञों के अनुसार इस पर मजीठ या मजिष्‍ठा की जड़ से तैयार किया गया रंग चढ़ाया गया था। हजारों वर्षों तक मजीठ की जड़ और बक्कम वृक्ष की छाल लाल रंग का मुख्‍य स्रोत थी। पीपल, गूलर और पाकड़ जैसे वृक्षों पर लगने वाली लाख की कृमियों की लाह से महाउर रंग तैयार किया जाता था। पीला रंग और सिंदूर हल्दी से प्राप्‍त होता था।

रंगों की तलाश[संपादित करें]

क़रीब सौ साल पहले पश्चिम में हुई औद्योगिक क्रांति के फलस्‍वरूप कपड़ा उद्योग का तेजी से विकास हुआ। रंगों की खपत बढ़ी। प्राकृतिक रंग सीमित मात्रा में उपलब्ध थे इसलिए बढ़ी हुई मांग की पूर्ति प्राकृतिक रंगों से संभव नहीं थी। ऐसी स्थिति में कृत्रिम रंगों की तलाश आरंभ हुई। उन्हीं दिनों रॉयल कॉलेज ऑफ़ केमिस्ट्री, लंदन में विलियम पार्कीसन एनीलीन से मलेरिया की दवा कुनैन बनाने में जुटे थे। तमाम प्रयोग के बाद भी कुनैन तो नहीं बन पायी, लेकिन बैंगनी रंग ज़रूर बन गया। महज संयोगवश 1856 में तैयार हुए इस कृत्रिम रंग को मोव कहा गया। आगे चलकर 1860 में रानी रंग, 1862 में एनलोन नीला और एनलोन काला, 1865 में बिस्माई भूरा, 1880 में सूती काला जैसे रासायनिक रंग अस्तित्त्व में आ चुके थे। शुरू में यह रंग तारकोल से तैयार किए जाते थे। बाद में इनका निर्माण कई अन्य रासायनिक पदार्थों के सहयोग से होने लगा। जर्मन रसायनशास्त्री एडोल्फ फोन ने 1865 में कृत्रिम नील के विकास का कार्य अपने हाथ में लिया। कई असफलताओं और लंबी मेहनत के बाद 1882 में वे नील की संरचना निर्धारित कर सके। इसके अगले वर्ष रासायनिक नील भी बनने लगा। इस महत्त्वपूर्ण कार्य के लिए बइयर साहब को 1905 का नोबेल पुरस्कार भी प्राप्‍त हुआ था।

मुंबई रंग का काम करने वाली कामराजजी नामक फर्म ने सबसे पहले 1867 में रानी रंग (मजेंटा) का आयात किया था। 1872 में जर्मन रंग विक्रेताओं का एक दल एलिजिरिन नामक रंग लेकर यहाँ आया था। इन लोगों ने भारतीय रंगरेंजों के बीच अपना रंग चलाने के लिए तमाम हथकंडे अपनाए। आरंभ में उन्होंने नमूने के रूप में अपने रंग मुफ़्त बांटे। बाद में अच्छा ख़ासा ब्याज वसूला। वनस्पति रंगों के मुक़ाबले रासायनिक रंग काफ़ी सस्ते थे। इनमें तात्कालिक चमक-दमक भी खूब थी। यह आसानी से उपलब्ध भी हो जाते थे। इसलिए हमारी प्राकृतिक रंगों की परंपरा में यह रंग आसानी से क़ब्ज़ा जमाने में क़ामयाब हो गए।।[2]

सन्दर्भ[संपादित करें]

  1. Craig F. Bohren (2006). Fundamentals of Atmospheric Radiation: An Introduction with 400 Problems. Wiley-VCH. आई॰ऍस॰बी॰ऍन॰ 3527405038. मूल से 22 जुलाई 2011 को पुरालेखित. अभिगमन तिथि 19 जनवरी 2008.
  2. "कैसे आए कृत्रिम रंग". खुलासा डॉट कॉम. अभिगमन तिथि 16 अक्टूबर 2010. |access-date= में तिथि प्राचल का मान जाँचें (मदद)

बाहरी कड़ियाँ[संपादित करें]