यहूदी धर्म

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यहूदी धर्म
יַהֲדוּת Yahadut
Judaica (clockwise from top): Shabbat candlesticks, handwashing cup, Chumash and Tanakh, Torah pointer, shofar and etrog
प्रकारEthnic[1]
वर्गीकरणइब्राहिमी धर्म
धर्मग्रंथतनख़
धर्ममीमांसाMonotheistic
LeadersJewish leadership
MovementsJewish religious movements
क्षेत्रPredominant religion in Israel and widespread worldwide as minorities
भाषा(एँ)Biblical Hebrew[2]
Headquartersयरुशलम (Zion)
संस्थापकअब्राहम[3][4]
उत्पत्ति20th–18th century BCE[3]
Mesopotamia[3]
सदस्यल. 14–15 million[5]

यहूदी धर्म या यूदावाद (Judaism) विश्व के प्राचीनतम धर्मों में से है, तथा दुनिया का प्रथम एकेश्वरवादी धर्म माना जाता है। इस्राइल और हिब्रू भाषियों का राजधर्म है। इस धर्म में ईश्वर और उसके नबी यानि पैग़म्बर की मान्यता प्रधान है। इनके धार्मिक ग्रन्थों में तनख़, तालमुद तथा मिद्रश प्रमुख हैं। यहूदी मानते हैं कि यह सृष्टि की रचना से ही विद्यमान है। यहूदियों के धार्मिक स्थल को मन्दिर व प्रार्थना स्थल को सिनेगॉग कहते हैं। ईसाई धर्मइस्लाम का आधार यही परम्परा और विचारधारा है। इसलिए इसे इब्राहिमी धर्म भी कहा जाता है।

परिचय[संपादित करें]

बाबिल (बेबीलोन) के निर्वासन से लौटकर इज़रायली जाति मुख्य रूप से येरूसलेम तथा उसके आसपास के 'यूदा' (Judah) नामक प्रदेश में बस गया था, इस कारण इज़रायलियों के इस समय के धार्मिक एवं सामाजिक संगठन को यूदावाद (यूदाइज़्म/Judaism) कहते हैं।

उस समय येरूसलेम का मंदिर यहूदी धर्म का केन्द्र बना और यहूदियों को मसीह के आगमन की आशा बनी रहती थी। निर्वासन के पूर्व से ही तथा निर्वासन के समय में भी यशयाह, जेरैमिया, यहेजकेल और दानिएल नामक नबी इस यूदावाद की नींव डाल रहे थे। वे यहूदियों को याहवे के विशुद्ध एकेश्वरवादी धर्म का उपदेश दिया करते थे और सिखलाते थे कि निर्वासन के बाद जो यहूदी फिलिस्तीन लौटेंगे वे नए जोश से ईश्वर के नियमों पर चलेंगे और मसीह का राज्य तैयार करेंगे।

निर्वासन के बाद एज्रा, नैहेमिया, आगे, जाकारिया और मलाकिया इस धार्मिक नवजागरण के नेता बने। 537 ई॰पू॰ में बाबिल से जा पहला काफ़िला येरूसलेम लौटा, उसमें यूदावंश के 40,000 लोग थे, उन्होंने मन्दिर तथा प्राचीर का जीर्णोंद्धार किया। बाद में और काफिले लौटै। यूदा के वे इजरायली अपने को ईश्वर की प्रजा समझने लगे। बहुत से यहूदी, जो बाबिल में धनी बन गए थे, वहीं रह गए किन्तु बाबिल तथा अन्य देशों के प्रवासी यहूदियों का वास्तविक केन्द्र येरूसलेम ही बना और यदा के यहूदी अपनी जाति के नेता माने जाने लगे।

किसी भी प्रकार की मूर्तिपूजा का तीव्र विरोध तथा अन्य धर्मों के साथ समन्वय से घृणा यूदावाद की मुख्य विशेषता है। उस समय यहूदियों का कोई राजा नहीं था और प्रधान याजक धार्मिक समुदाय पर शासन करते थे। वास्तव में याह्वे (ईश्वर) यहूदियों का राजा था और बाइबिल में संगृहीत मूसा संहिता समस्त जाति के धार्मिक एवं नागरिक जीवन का संविधान बन गई। गैर यहूदी इस शर्त पर इस समुदाय के सदस्य बन सकते थे। कि वे याह्वे का पन्थ तथा मूसा की संहिता स्वीकार करें। ऐसा माना जाता था कि मसीह के आने पर समस्त मानव जाति उनके राज्य में संमिलित हो जायगी, किन्तु यूदावाद स्वयं संकीर्ण ही रहा।

यूदावाद अंतियोकुस चतुर्थ (175-164 ई0पू0) तक शान्तिपूर्वक बना रहा किन्तु इस राजा ने उसपर यूनानी संस्कृति लादने का प्रयत्न किया जिसके फलस्वरूप मक्काबियों के नेतृत्व में यहूदियों ने उनका विरोध किया था।

ईश्वर[संपादित करें]

यहूदी मान्यताओं के अनुसार ईश्वर एक है और उसके अवतार या स्वरूप नहीं है, लेकिन वो दूत से अपने संदेश भेजता है। ईसाई और इस्लाम धर्म भी इन्हीं मान्यताओं पर आधारित है पर इस्लाम में ईश्वर के निराकार होने पर अधिक ज़ोर डाला गया है। यहूदियों के अनुसार मूसा को ईश्वर का संदेश दुनिया में फैलाने के लिए मिला था जो लिखित (तनाख) तथा मौखिक रूपों में था। यहोवा ने इसरायल के लोगों को एक ईश्वर की अर्चना करने का आदेश दिया।

धर्मग्रन्थ[संपादित करें]

यहूदी धर्मग्रन्थ अलग अलग लेखकों के द्वारा कई सदियों के अन्तराल में लिखे गए हैं। ये मुख्यतः इब्रानीअरामी भाषा में लिखे गए हैं।

ये धार्मिक ग्रन्थ हैं तनख़, तालमुद तथा मिद्रश। इनके अलावा सिद्दूर, हलाखा, कब्बालाह आदि।

सन्देशवाहक (नबी)[संपादित करें]

नूह[संपादित करें]

यहूदी धर्मग्रन्थ तोराह के अनुसार हजरत नूह ने ईश्वर के आदेश पर जलप्रलय के समय बहुत बड़ा जहाज बनाया, और उसमें सारी सृष्टि को बचाया था।

अब्राहम[संपादित करें]

अब्राहम, यहूदी, इस्लाम और ईसाई धर्म तीनों के पितामह माने जातें हैं। तोराह के अनुसार अब्राहम लगभग 2000 ई॰पू॰ अकीदियन साम्राज्य के ऊर प्रदेश में अपने इब्रानी कबीले के साथ रहा करते थे। जहाँ प्रचलित मूर्तिपूजा से व्यथित होकर इन्होंने ईश्वर की खोज में अपने कबीले के साथ एक लम्बी यात्रा को शुरू किया।

यर्दन नदी की तराई के प्रदेश में पहुँचने के बाद प्रथम इज़राएली प्रदेश की नींव पड़ी। यहूदी मान्यता के अनुसार कालांतर में कनान प्रदेश में भीषण अकाल पड़ने के कारण इब्रानियों को सम्पन्न मिस्र देश में जाकर शरण लेनी पड़ी। मिस्र में कई वर्षों बाद इज़राएलियों को गुलाम बना लिया गया।

मूसा[संपादित करें]

मूसा का जन्म मिस्र के गोशेन शहर में हुआ था। यहूदी इतिहास के अनुसार इन्होंने इब्रानियों को मिस्र की 400 वर्ष की गुलामी से बाहर निकालकर उन्हें कनान देश तक पहुँचाने में उनका नेतृत्व किया। मूसा को ही यहूदी धर्मग्रन्थ की प्रथम पाँच किताबों, तोराह का रचयिता माना जाता है। इन्होंने ही ईश्वर के दस विधान व व्यवस्था इब्रानियों को प्रदान की थी। तनख़ के अनुसार मूसा मिस्र में रामेसेस द्वितीय के शासन में थे, जो कि लगभग 1300 ई॰पू॰ था।

मत[संपादित करें]

यहूदी मृत्यु के बाद की दुनिया में यकीन नहीं रखते। उनके हिसाब से सभी मनुष्यों का यहूदी होना जरूरी नहीं है। यहूदी दर्शन में वर्तमान को ही महत्वपूर्ण माना जाता है, एवं हर क्षण को भरपूरी के साथ जीना ही आवश्यक है। ईश्वर समय-समय पर सही राह दिखाने के लिए नबियों को भेजता है। अपने हाथों से बनाई हुई मूर्ति को ईश्वर मानकर पूजना पूर्ण रूप से प्रतिबंधित है। अपने सारे कर्तव्यों को ईश्वर को समर्पित कर उनका पूरी ईमानदारी से निर्वाह ही असल धर्म है। यहूदी धर्म किसी निर्धारित पाप को मान्यता नहीं देता जिसमें मनुष्य जन्म से ही पापी हो बल्कि, इसमें पाप व प्रायश्चित को निरन्तर प्रक्रिया के रूप में माना जाता है। प्रायश्चित ही मुक्ति है।

प्रमुख सिद्धान्त[संपादित करें]

बाइबल के पूर्वार्ध में जिस धर्म और दर्शन का प्रतिपादन किया गया है वह निम्नलिखित मौलिक सिद्धांतों पर आधारित है -

  1. एक ही सर्वशक्तिमान् ईश्वर को छोड़कर और कोई देवता नहीं है। ईश्वर इजरायल तथा अन्य देशों पर शासन करता है और वह इतिहास तथा पृथ्वी की एंव घटनाओं का सूत्रधार है। वह पवित्र है और अपने भक्तों से यह माँग करता है कि पाप से बचकर पवित्र जीवन बिताएँ। ईश्वर एक न्यायी एवं निष्पक्ष न्यायकर्ता है जो कूकर्मियों को दंड और भले लोगों को इनाम देता है। वह दयालु भी हे और पश्चाताप करने पर पापियों को क्षमा प्रदान करता है, इस कारण उसे पिता की संज्ञा भी दी जा सकती है। ईश्वर उस जाति की रक्षा करता है जो उसकी सहायता माँगती है। यहूदियों ने उस एक ही ईश्वर के अनेक नाम रखे थे, अर्थात एलोहीम, याहवे और अदोनाई। बाइबिल के पूर्वार्ध से यह स्पष्ट नहीं हो पाता है कि ईश्वर इस जीवन में ही अथवा परलोक में भी पापियों को दण्ड और अच्छे लोगों को इनाम देता है।
  2. इतिहास में ईश्वर ने अपने को अब्राहम तथा उसके महान वंशजों पर प्रकट किया है। उसने उनको सिखलाया है कि वह स्वर्ग, पृथ्वी तथा सभी चीजों का सृष्टिकर्ता है। सृष्टि ईश्वर का कोई रूपान्तर नहीं है क्योंकि ईश्वर की सत्ता सृष्टि से सर्वथा भिन्न है, इस लोकोत्तर ईश्वर ने अपनी इच्छाशक्ति द्वारा सभी चीजों की सृष्टि की है। यहूदी लोग सृष्टिकर्ता और सृष्टि इन दोनों को सर्वथा भिन्न समझते थे।
  3. समस्त मानव जाति की मुक्ति हेतु अपना विधान प्रकट करने के लिये ईश्वर ने यहूदी जाति को चुन लिया है। यह जाति अब्राहम से प्रारंभ हुई थी (दे0 अब्राहम) और मूसा के समय ईश्वर तथा यहूदी जाति के बीच का व्यवस्थान संपन्न हुआ था।
  4. मसीह का भावी आगमन यहूदी जाति के ऐतिहासिक विकास की पराकाष्ठा होगी। मसीह समस्त पृथ्वी पर ईश्वर का राज्य स्थापित करेंगे और मसीह के द्वारा ईश्वर यहूदी जाति के प्रति उपनी प्रतिज्ञाएं पूरी करेगा। किन्तु बाइबिल के पूर्वार्ध में इसका कहीं भी स्पष्ट उल्लेख नहीं मिलता कि मसीह कब और कहाँ प्रकट होने वाले हैं।
  5. मूसा संहिता यहूदियों के आचरण तथा उनके कर्मकाण्ड का मापदण्ड था किन्तु उनके इतिहास में ऐसा समय भी आया जब वे मूसासंहिता के नियमों की उपेक्षा करने लगे। ईश्वर तथा उसके नियमों के प्रति यहूदियों के इस विश्वासघात के कारण उनको बाबिल के निर्वासन का दण्ड भोगना पड़ा। उस समय भी बहुत से यहूदी प्रार्थना, उपवास तथा परोपकार द्वारा अपनी सच्ची ईश्वरभक्ति प्रमाणित करते थे।
  6. यहूदी धर्म की उपासना येरूसलेम के महामन्दिर में केन्द्रीभूत थी। उस मन्दिर की सेवा तथा प्रशासन के लिये याजकों का श्रेणीबद्ध संगठन किया गया था। येरूसलेम के मन्दिर में ईश्वर विशेष रूप से विद्यमान है, यह यहूदियों का द्दढ़ विश्वास था और वे सब के सब उस मंदिर की तीर्थयात्रा करना चाहते थे ताकि वे ईश्वर के सामने उपस्थित होकर उसके प्रति अपना हृदय प्रकट कर सकें। मन्दिर के धार्मिक अनुष्ठान तथा त्योहारों के अवसर पर उसमें आयोजित समारोह भक्त यहूदियों को आनन्दित किया करते थे। छठी शताब्दी ई0 पू0 के निर्वासन के बाद विभिन्न स्थानीय सभाघरों में भी ईश्वर की उपासना की जाने लगी।
  7. प्रारम्भ से ही कुछ यहूदियों (और बाद में मुसलमानों ने) बाइबिल के पूर्वार्ध में प्रतिपादित धर्म तथा दर्शन की व्याख्या अपने ढंग से की है। ईसाइयों का विश्वास है कि ईसा ही बाइबिल में प्रतिज्ञात मसीह है किन्तु ईसा के समय में बहुत से यहूदियों ने ईसा को अस्वीकार कर दिया। आजकल भी यहूदी धर्मावलम्बी सच्चे मसीह की राह देख रहे हैं। संत पॉल के अनुसार यहूदी जाति किसी समय ईसा को मसीह के रूप में स्वीकार करेगी।

यहूदी त्यौहार[संपादित करें]

इन्हें भी देखें[संपादित करें]

संदर्भ ग्रंथ[संपादित करें]

  • आई0 एपस्टाइन: जूदाइज्म, पेंग्विन, 1959। (कामिल बुल्के)
  1. Jacobs 2007, पृ॰ 511 quote: "Judaism, the religion, philosophy, and way of life of the Jews.".
  2. Sotah 7:2 with vowelized commentary (हिब्रू में). New York. 1979. अभिगमन तिथि Jul 26, 2017.
  3. Mendes-Flohr 2005.
  4. Levenson 2012, पृ॰ 3.
  5. (2018) World Jewish Population. Berman Jewish DataBank. (Report).