ख़ान (उपाधि)

मुक्त ज्ञानकोश विकिपीडिया से

खान (उपाधि) जो एक ऐसी कौम है जो अपने आप को ऊंचा दिखाने के लिए मुलिम के और भी जाति को नीचा समझती है जो की इस्लाम में ऐसा किसी भी किताब में नही है एक यहूदी अगर मुसलमान बन जाए तो जो भी सच्चा मुसलमान रहेगा तो उस यहुदी और अपने सगे भाई में कोई अंतर नही समझेगा इस्लाम के हिसाब से दोनो बराबर हुए जैसे मदीने के अंसार इस्लाम कबूल कर लिए और मक्का के लोग मुसरिक थे मतलब ईमान नही लाए जो की prophet Mohammad saw के खानदान के लोग थे कुछ साल बाद नबी करीम अंसार के साथ मिलकर मक्का को फतह किया फिर मक्का वालो ने इस्लाम कबूल किया अब इस्लाम में उनको भी सहाबा का दर्जा हासिल है और अंसार के लोगो का भी सहाबिए रसूल का दर्जा हासिल है दोनो लोग बराबर है ये लोग को तो नबी करीम ने यशरब यानी बड़ा मुसलमान का सर्टिफिकेट दिया ही नही जो लोग अपना जान मॉल घर बार सब कुछ कुर्बान कर दिए इस्लाम पर फिर भी तो इंडिया के के कुछ मुस्लिम लोग यशराब यानी आला मुस्लिम कैसे होगी और इतनी प्रॉपर्टी कहा से इनके पास आई जैसे जमीदारी जो ठाकुर पंडित में रहता है इसका मतलब ये लोग इंडिया के मूल निवासी थे तभी तो इनके पास भी जमीदारी थी

साधारणीकरण[संपादित करें]

मंगोल ज़माने के आरम्भिक काल में ख़ान का ओहदा बहुत कम लोगों के पास होता था, लेकिन समय के साथ यह सम्राटों-राजाओं द्वारा अधिक खुलकर दिया जाने लगा और साधारण बन गया। यह वही प्रक्रिया है जो ब्रिटिश काल में 'सूबेदार' (यानि 'सूबे या प्रान्त का अध्यक्ष') की उपाधि के साथ देखा गया, जिसमें यह सेना के मध्य-वर्गी फ़ौजियों को दिया जाने लगा। भारतीय उपमहाद्वीप और अफ़्ग़ानिस्तान में यह एक पारिवारिक नाम बन गया, जिस प्रकार 'शाह', 'वज़ीर' और 'सुलतान' जैसे नाम अब पारिवारिक नामों के रूप में मिलते हैं।[1] इसी तरह, वर्तमान काल में किसी भी आदरणीय महिला को फ़ारसी में ख़ानम बुलाया जाता है, मसलन हिन्दी में 'परवीन जी' को फ़ारसी में 'ख़ानम-ए-परवीन' कहना आम है।

इतिहास[संपादित करें]

खान शब्द 'कागान' अथवा अरबी के 'खाकान' से बना है (जिसका संबंध संभवत: चीनी कुआँ से है) और मुसलमानों में सर्वप्रथम १० वीं शताब्दी ई. में मध्य एशिया के तुर्को के एक वंश इलेकखानों के लिए प्रयुक्त हुआ। १२वीं तथा १३वीं सदी ई. में तुर्क लोग इसका प्रयोग राज्य के सर्वोच्च अधिकारी के लिए किया करते थे। जियाउद्दीन बरनी ने तारीखे-फीरोजशाही में लिखा है, जिस किसी सरखेल के पास दस अच्छे तथा चुने हुए सवार न हों, उसे सरखेल न कहना चाहिए। जिस सिपहसालार के पास उस सरखेल ऐसे न हों जो उसकी आज्ञानुसार अपने परिवार की भी बलि दे दें, सिपहसालार न कहना चाहिए। जिस अमीर के पास प्रबंध करने के लिए दस सिपहसालार न हों उसे 'अमीर' न कहना चाहिए। जिस मलिक के अधीन दस अमीर न हों उस, मलिक को व्यर्थ समझना चाहिए। जिस खान के पास दस मलिक न हों उसे खान नहीं कहा जा सकता। जिस बादशाह के पास दस सहायक तथा विश्वासपात्र खान न हों उसे जहाँदारी (राज्यव्यवस्था) एवं जहाँगीरी (दिग्विजय) का नाम भी न लेना चाहिए। इस प्रकार खान बादशाह के सामंतों को कहा जाता था। मध्य एशिया के मंगोलों के राज्यकाल में सम्राट् को खान तथा चंगेज खाँ के वंशज अन्य शाहजादों को, जो छोटे राज्यों के स्वामी होते थे, सुल्तान कहा जाता था। भारतवर्ष में मुगलों के राज्यकाल में 'खानेखाना' की उपाधि भी दी जाने लगी। बाबर के समय में यह तुर्की बिगलर बेगी का अनुरूप था। सर्वप्रथम बाबर ने दौलत खाँ के पुत्र दिलावर खाँ को खानेखाना की उपाधि प्रदान की थी। इसी प्रकार खानेदौराँ तथा खानेजहाँ की उपाधियाँ भी मुगलों के राज्यकाल में उच्चतम अमीरों एवं सरदारों को प्रदान की जाती थीं।

इन्हें भी देखें[संपादित करें]

सन्दर्भ[संपादित करें]

  1. Aspects of Altaic civilization III: proceedings of the thirtieth meeting of the Permanent International Altaistic Conference, Indiana University, Bloomington, Indiana, June 19-25, 1987, Denis Sinor, Indiana University, Bloomington. Research Institute for Inner Asian Studies, Indiana University, Research Institute for Inner Asian Studies, 1990, ISBN 978-0-933070-25-7, ... an inflation of the khan titles ...