"अकबर इलाहाबादी": अवतरणों में अंतर
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{{ज्ञानसन्दूक संगीतज्ञ |
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जन्म: 16 नवंबर 1846 |
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जन्म स्थान- इलाहाबाद |
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निधन: 9 सितंबर 1921 |
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मूल - नाम सैयद हुसैन था। |
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उस्ताद- वहीद |
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|Background = कवि |
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|Birth_name = सैयद हुसैन |
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|Born = १६ नवंबर १८४६ <br /> [[इलाहाबाद]], [[उत्तर प्रदेश]], [[भारत]] |
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|Died = ९ सितंबर १९२१ |
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|Genre = [[कविता]], [[ग़ज़ल]] |
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राह बेचारा चलता था रुक कर |
राह बेचारा चलता था रुक कर |
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चन्द लड़कों को उस पे आई हँसी |
चन्द लड़कों को उस पे आई हँसी |
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क़द पे फबती कमान की |
क़द पे फबती कमान की |
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कहा इक लड़के ने ये उससे कि बोल |
कहा इक लड़के ने ये उससे कि बोल |
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तूने कितने में ली कमान ये मोल |
तूने कितने में ली कमान ये मोल |
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पहुँचोगे मेरी उम्र को जिस आन |
पहुँचोगे मेरी उम्र को जिस आन |
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मुफ़्त में मिल जाएगी तुम्हें ये कमान |
मुफ़्त में मिल जाएगी तुम्हें ये कमान |
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[[श्रेणी:भारतीय कवि]] |
[[श्रेणी:भारतीय कवि]] |
06:01, 29 जुलाई 2012 का अवतरण
अकबर इलाहाबादी | |
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बेपर्दा नज़र आई जो कल चंद बीबियां अक़बर ज़मी में गैरते कौमी से गड़ गया पूछा जो उनसे आपका पर्दा वो क्या हुआ? कहने लगीं कि अक्ल पे मर्दों की पड़ गया
हम ऐसी कुल किताबें काबिले जब्ती समझते हैं जिन्हें पढ़कर के लड़के बाप को खब्ती समझते हैं
इन्क़िलाब आया, नई दुन्या नया हंगामा है शाहनामा हो चुका, अब दौरे गांधीनामा है।
दीद के क़ाबिल अब उस उल्लू का फ़ख्रो नाज़ है जिस से मग़रिब, ने कहा तू ऑनरेरी बाज़ है।
है क्षत्री भी चुप न पट्टा न बांक है पूरी भी ख़ुश्क लब है कि घी छ: छटांक है।
गो हर तरफ हैं खेत फलों से भरे हुये थाली में ख़ुरपुज़: की फ़क़त एक फॉंक है।
कपड़ा गिरां है सित् र है औरत का आश्कार कुछ बस नहीं ज़बॉं पे फ़क़त ढांक ढांक है।
भगवान का करम हो सोदेशी के बैल पर लीडर की खींच खांच है, गाँधी की हांक है।
अकबर पे बार है यह तमाशाए दिल शिकन उसकी तो आख़िरत की तरफ ताक-झांक है।
महात्मा जी से मिल के देखो, तरीक़ क्या है, सोभाव क्या है पड़ी है चक्कर में अक़्ल सब की बिगाड़ तो है बनाव क्या है
हमारे मुल्क में सरसब्ज़ इक़बाले फ़रंगी है
कि ननकोऑपरेशन में भी शाख़ें ख़ान: जंगी है।
क़ौम से दूरी सही हासिल जब ऑनर हो गया
तन की क्या पर्वा रही जब आदमी ‘सर’ हो गया
यही गाँधी से कहकर हम तो भागे ’क़दम जमते नहीं साहब के आगे’।
वह भागे हज़रते गाँधी से कह के ’मगर से बैर क्यों दर्या में रह के’। किया तलब जो स्वराज भाई गाँधी ने बची यह धूम कि ऐसे ख़याल की क्या बात! कमाले प्यार से अंग्रेज़ ने कहा उनसे हमीं तुम्हारे हैं फिर मुल्कोमाल की क्या बात।
हुक्काम से नियाज़ न गाँधी से रब्त है अकबर को सिर्फ़ नज़्में मज़ामीं का ख़ब्त है। हंसता नहीं वह देख के इस कूद फांद को दिल में तो क़हक़हे हैं मगर लब पे ज़ब्त है।
पतलून के बटन से धोती का पेच अच्छा दोनों से वह जो समझे दुन्या को हेच अच्छा। निगहे-लुत्फ़ तेरी बादे-बहारी है मगर गुंचए-ख़ातिरे-आशिक़ को खिला देती है
हो न रंगीन तबीयत भी किसी की या रब आदमी को यह मुसीबत में फँसा देती है
चोर के भाई गिरहकट तो सुना करते थे
अब यह सुनते हैं एडीटर के भाई लीडर
एक बूढ़ा नहीफ़-ओ-खस्ता दराज़ इक ज़रूरत से जाता था बाज़ार ज़ोफ-ए-पीरी से खम हुई थी कमर राह बेचारा चलता था रुक कर चन्द लड़कों को उस पे आई हँसी क़द पे फबती कमान की कहा इक लड़के ने ये उससे कि बोल तूने कितने में ली कमान ये मोल पीर मर्द-ए-लतीफ़-ओ-दानिश मन्द हँस के कहने लगा कि ए फ़रज़न्द पहुँचोगे मेरी उम्र को जिस आन मुफ़्त में मिल जाएगी तुम्हें ये कमान