बैरम खां
बैरम खान(फ़ारसी: [بيرام خان] Error: {{Lang}}: text has italic markup (help)) या मोहम्मद बैरम खान अब्दुल रहीम खानेखाना के पिता जाने-माने योद्धा थे। वह अकबर के वज़ीर थे[1] व तुर्किस्तान से आए थे।[2] उन्हीं के संरक्षण में अकबर बड़े हुए लेकिन दरबार के कुछ लोगों ने अकबर को बैरम खान के खिलाफ भड़का दिया और उन्हें संरक्षक पद से हटा दिया गया, वह जब हज के लिए जा रहे थे तो रास्ते में उनकी हत्या कर दी गई। उस समय अब्दुल रहीम ५ साल के थे। उन्हें अकबर ने अपने पास रख लिया।
बैरम खाँ तेरह वर्षीय अकबर के अतालीक (शिक्षक) तथा अभिभावक थे। बैरम खाँ खान-ए-खाना की उपाधि से सम्मानित थे। वे हुमायूँ के साढ़ू और अंतरंग मित्र थे। रहीम की माँ वर्तमान हरियाणा प्रांत के मेवाती मुस्लिम जमाल खाँ की सुंदर एवं गुणवती कन्या सुल्ताना बेगम थी। जब रहीम पाँच वर्ष के ही थे, तब गुजरात के पाटन नगर में सन १५६१ में इनके पिता बैरम खाँ की हत्या अकबर के आदेश से कर दी गई। रहीम का पालन-पोषण अकबर ने अपने धर्म-पुत्र की तरह किया।[3]
मध्य कालीन युद्धों के अरबी इतिहास ग्रंथ के प्रथम अध्याय में बैरम खां द्वारा बनवाई गई `कल्ला मीनार' का उल्लेख है।[4] इस स्थान का नाम सर मंजिल रखा गया था। सिकंदर शाह सूरी के साथ लड़ने में जितने सिर कटे थे या सैनिक मरे थे, उन्हें बटोर कर उन्हें ईंट, पत्थरें की जगह काम में लाया गया और यह ऊंची मीनार खड़ी की गई थी। मुगल बादशाहों ने और भी कितनी ही ऐसी कल्ला मीनारें युद्ध विजय के दर्प-प्रदर्शन के लिए बनवाई थीं। कल्ला, फारसी में सिर को कहते हैं।
बैरम ख़ाँ हुमायूँ का सहयोगी तथा उसके नाबालिग पुत्र अकबर का वली अथवा संरक्षक था। वह बादशाह हुमायूँ का परम मित्र तथा सहयोगी भी था। अपने समस्त जीवन में बैरम ख़ाँ ने मुग़ल साम्राज्य की बहुत सेवा की थी। हुमायूँ को उसका राज्य फिर से हासिल करने तथा कितने ही युद्धों में उसे विजित कराने में बैरम ख़ाँ का बहुत बड़ा हाथ था। अकबर को भी भारत का सम्राट बनाने के लिए बैरम ख़ाँ ने असंख्य युद्ध किए और हेमू जैसे शक्तिशाली राजा को हराकर भारत में मुग़ल साम्राज्य की स्थापना में महत्त्वपूर्ण योगदान दिया। मुग़ल साम्राज्य में अकबर की दूधमाता माहम अनगा ही थी, जो बैरम ख़ाँ के विरुद्ध साज़िश करती रहती थी। ये इन्हीं साज़िशों का नतीजा था कि बैरम को हज के लिए आदेश दिया गया, जहाँ 1561 ई. में उसकी हत्या कर दी गई।
वंश परिचय बैरम ख़ाँ का सम्बन्ध तूरान (मध्य एशिया) की तुर्कमान जाति से था। हैदराबाद के निज़ाम भी तुर्कमान थे। इतिहासकार कासिम फ़रिश्ता के अनुसार वह ईरान के कराकुइलु तुर्कमानों के बहारलु शाखा से सम्बद्ध था। अलीशकर बेग तुर्कमान तैमूर के प्रसिद्ध सरदारों में से एक था, जिसे हमदान, दीनवर, खुजिस्तान आदि पर शासक नियुक्त किया गया था। अलीशकर की सन्तानों में शेरअली बेग हुआ। तैमूरी शाह हुसेन बायकरा के बाद जब तूरान में सल्तनत बरबाद हुई, तो शेरअली काबुल की तरफ भाग्य परीक्षा करने के लिए आया। उसका बेटा यारअली और पोता सैफअली अफ़ग़ानिस्तान चले आये। यारअली को बाबर ने ग़ज़नी का हाकिम नियुक्त किया। थोड़े ही दिनों के बाद उसके मरने पर बेटे सैफअली को वहीं दर्जा मिला। वह भी जल्दी ही मर गया। अल्प वयस्क बैरम अपने घरवालों के साथ बल्ख चला गया।
हुमायूँ से मित्रता बल्ख में वह कुछ दिनों तक पढ़ता-लिखता रहा। फिर वह समवयस्क शाहज़ादा हुमायूँ का नौकर और बाद में उसका मित्र हो गया। बैरम ख़ाँ को साहित्य और संगीत से भी बहुत प्रेम था। वह जल्दी ही अपने स्वामी का अत्यन्त प्रिय हो गया था। 16 वर्ष की आयु में ही एक लड़ाई में बैरम ख़ाँ ने बहुत वीरता दिखाई, उसकी ख्याति बाबर तक पहुँच गई, तब बाबर ने खुद उससे कहा : शाहज़ादा के साथ दरबार में हाजिर करो। बाबर के मरने के बाद वह हुमायूँ बादशाह की छाया के तौर पर रहने लगा। हुमायूँ ने चांपानेर (गुजरात) के क़िले पर घेरा डाला। किसी तरह से दाल ग़लती न देखकर चालीस मुग़ल बहादुर सीढ़ियों के साथ क़िले में उतर गए, जिनमें बैरम ख़ाँ भी था। क़िला फ़तह कर लिया गया। शेरशाह से चौसा में लड़ते वक़्त बैरम ख़ाँ भी साथ ही था। कन्नौज में भी वह लड़ा। इन सभी घटनाओं ने हुमायूँ और बैरम ख़ाँ को एक अटूट मित्रता में बाँध दिया था।
जीवन दान कन्नौज की लड़ाई में पराजय के बाद मुग़ल सेना में जिसकी सींग जिधर समाई, वह उधर भागा। बैरम ख़ाँ अपने पुराने दोस्त सम्भल के मियाँ अब्दुल वहाब के पास पहुँचा। फिर लखनऊ के राजा मित्रसेन के पास जंगलों में दिन गुज़ारता रहा। शेरशाही हाकिम नसीर ख़ाँ को पता लगा। उसने बैरम ख़ाँ को पकड़ मंगवाया। नसीर ख़ाँ चाहता था कि बैरम ख़ाँ को कत्ल कर दें, पर दोस्तों की कोशिश से बैरम ख़ाँ किसी प्रकार से बच गया। अन्त में उसे शेरशाह के सामने हाजिर होना पड़ा, जिसने एक मामूली मुग़ल सरदार को महत्व न देकर उसे माफ कर दिया और जीवन दान दे दिया।
कंधार के हाकिम का पद बैरम ख़ाँ फिर से गुजरात के सुल्तान महमूद के पास गया, पर उसे अपने स्वामी से मिलने की धुन थी। जब हिजरी 950 (1543-1544 ई.) में हुमायूँ ईरान से लौटकर काबुल लेते सिंध की ओर बढ़ा, तो बैरम ख़ाँ अपने आदमियों के साथ हुमायूँ की ओर से लड़ने लगा। हुमायूँ को इसकी ख़बर लगी तो उसकी खुशी का ठिकाना नहीं रहा। हिन्दुस्तान में सफलता मिलने वाली नहीं थी, इसलिए हुमायूँ ने ईरान का रास्ता किया। बैरम ख़ाँ भी उसके साथ था। शाही काफिले में कुल मिलाकर सत्तर आदमी से ज़्यादा नहीं थे। ईरान से लौटकर हुमायूँ ने कंधार को घेरा। उसने चाहा, भाई कामराँ को समझा-बुझाकर ख़ून-ख़राबा रोका जाए। उसे समझाने के लिए हुमायूँ ने बैरम ख़ाँ को काबुल भेजा, लेकिन वह कहाँ होने वाला था। कंधार पर अधिकार करके बैरम ख़ाँ को वहाँ का हाकिम नियुक्त किया गया। कंधार विजय के बारे में हुमायूँ ने स्वयं कहा- “रोज नौरोज बैरम’स्त इमरोज”। दिले अहबाब बेगम’स्त इमरोज। (आज नववर्ष दिन बैरम है। आज मित्रों के दिल बेफिकर हैं।
ख़ानख़ाना की उपाधि जब हुमायूँ हिन्दुस्तान की ओर बढ़ते समय सतलुज नदी के किनारे माछीवाड़ा पहुँचा था, तब पता लगा दूसरी पार बेजवाड़ा में तीस हज़ार पठान डेरा डाले पड़े हैं। पठान लकड़ी जलाकर ताप रहे थे। रात को रौशनी ने लक्ष्य बतलाने में सहायता की। अपने एक हज़ार सवारों के साथ बैरम ख़ाँ उनके ऊपर टूट पड़ा। दुश्मन की संख्या का उनको पता नहीं था। तीरों की वर्षा से पठान घबरा गए। वे अपना सारा माल वहीं पर छोड़कर भाग गए। इसी विजय के उपलक्ष्य में हुमायूँ ने उसे ‘ख़ानख़ाना’ की उपाधि प्रदान की। तर्दीबेग बैरम ख़ाँ का प्रतिद्वन्द्वी था, लेकिन हेमू से हारकर भागने के समय बैरम ख़ाँ को मौक़ा मिल गया और उसने इस काँटे को निकाल बाहर किया। अकबर के गद्दी पर बैठने के दिन अबुल मसानी ने कुछ गड़बड़ी करनी चाही थी, लेकिन बैरम ख़ाँ ने जैसी ख़ूबसूरती से इस गुत्थी को सुलझाया, वह उसका ही काम था। हेमचन्द्र (हेमू) से पराजित होकर मुग़ल अमीर निराश हो चुके थे। वह काबुल लौट जाना चाहते थे, पर बैरम ख़ाँ ने उन्हें रोक दिया।
साज़िश अकबर की दूधमाता माहम अनगा नित्य ही बैरम ख़ाँ के ख़िलाफ़ साज़िशें रचती रहती थी। मुग़ल दरबार में माहम अनगा का एक समूह था, जो हमेशा ही बैरम को नीचा दिखाने में लगा रहता था। हिजरी 961 (1553-1554 ई.) में इन लोगों ने चुगली लगाई कि बैरम ख़ाँ स्वतंत्र होना चाहता है, लेकिन बैरम ख़ाँ नमक-हराम नहीं था। हुमायूँ एक दिन जब स्वयं कंधार पहुँचा था, तब बैरम ख़ाँ ने बहुत चाहा कि बादशाह उसे अपने साथ ले चले, लेकिन कंधार भी एक बहुत महत्त्वपूर्ण स्थान था, जिसके लिए बैरम ख़ाँ से बढ़कर अच्छा शासक नहीं मिल सक
बैरम ख़ाँ हुमायूँ का सहयोगी तथा उसके नाबालिग पुत्र अकबर का वली अथवा संरक्षक था। वह बादशाह हुमायूँ का परम मित्र तथा सहयोगी भी था। अपने समस्त जीवन में बैरम ख़ाँ ने मुग़ल साम्राज्य की बहुत सेवा की थी। हुमायूँ को उसका राज्य फिर से हासिल करने तथा कितने ही युद्धों में उसे विजित कराने में बैरम ख़ाँ का बहुत बड़ा हाथ था। अकबर को भी भारत का सम्राट बनाने के लिए बैरम ख़ाँ ने असंख्य युद्ध किए और हेमू जैसे शक्तिशाली राजा को हराकर भारत में मुग़ल साम्राज्य की स्थापना में महत्त्वपूर्ण योगदान दिया। मुग़ल साम्राज्य में अकबर की दूधमाता माहम अनगा ही थी, जो बैरम ख़ाँ के विरुद्ध साज़िश करती रहती थी। ये इन्हीं साज़िशों का नतीजा था कि बैरम को हज के लिए आदेश दिया गया, जहाँ 1561 ई. में उसकी हत्या कर दी गई।
ेनलात
हुमायूँ से मित्रता बल्ख में वह कुछ दिनों तक पढ़ता-लिखता रहा। फिर वह समवयस्क शाहज़ादा हुमायूँ का नौकर और बाद में उसका मित्र हो गया। बैरम ख़ाँ को साहित्य और संगीत से भी बहुत प्रेम था। वह जल्दी ही अपने स्वामी का अत्यन्त प्रिय हो गया था। 16 वर्ष की आयु में ही एक लड़ाई में बैरम ख़ाँ ने बहुत वीरता दिखाई, उसकी ख्याति बाबर तक पहुँच गई, तब बाबर ने खुद उससे कहा : शाहज़ादा के साथ दरबार में हाजिर करो। बाबर के मरने के बाद वह हुमायूँ बादशाह की छाया के तौर पर रहने लगा। हुमायूँ ने चांपानेर (गुजरात) के क़िले पर घेरा डाला। किसी तरह से दाल ग़लती न देखकर चालीस मुग़ल बहादुर सीढ़ियों के साथ क़िले में उतर गए, जिनमें बैरम ख़ाँ भी था। क़िला फ़तह कर लिया गया। शेरशाह से चौसा में लड़ते वक़्त बैरम ख़ाँ भी साथ ही था। कन्नौज में भी वह लड़ा। इन सभी घटनाओं ने हुमायूँ और बैरम ख़ाँ को एक अटूट मित्रता में बाँध दिया था।
जीवन दान कन्नौज की लड़ाई में पराजय के बाद मुग़ल सेना में जिसकी सींग जिधर समाई, वह उधर भागा। बैरम ख़ाँ अपने पुराने दोस्त सम्भल के मियाँ अब्दुल वहाब के पास पहुँचा। फिर लखनऊ के राजा मित्रसेन के पास जंगलों में दिन गुज़ारता रहा। शेरशाही हाकिम नसीर ख़ाँ को पता लगा। उसने बैरम ख़ाँ को पकड़ मंगवाया। नसीर ख़ाँ चाहता था कि बैरम ख़ाँ को कत्ल कर दें, पर दोस्तों की कोशिश से बैरम ख़ाँ किसी प्रकार से बच गया। अन्त में उसे शेरशाह के सामने हाजिर होना पड़ा, जिसने एक मामूली मुग़ल सरदार को महत्व न देकर उसे माफ कर दिया और जीवन दान दे दिया।
कंधार के हाकिम का पद बैरम ख़ाँ फिर से गुजरात के सुल्तान महमूद के पास गया, पर उसे अपने स्वामी से मिलने की धुन थी। जब हिजरी 950 (1543-1544 ई.) में हुमायूँ ईरान से लौटकर काबुल लेते सिंध की ओर बढ़ा, तो बैरम ख़ाँ अपने आदमियों के साथ हुमायूँ की ओर से लड़ने लगा। हुमायूँ को इसकी ख़बर लगी तो उसकी खुशी का ठिकाना नहीं रहा। हिन्दुस्तान में सफलता मिलने वाली नहीं थी, इसलिए हुमायूँ ने ईरान का रास्ता किया। बैरम ख़ाँ भी उसके साथ था। शाही काफिले में कुल मिलाकर सत्तर आदमी से ज़्यादा नहीं थे। ईरान से लौटकर हुमायूँ ने कंधार को घेरा। उसने चाहा, भाई कामराँ को समझा-बुझाकर ख़ून-ख़राबा रोका जाए। उसे समझाने के लिए हुमायूँ ने बैरम ख़ाँ को काबुल भेजा, लेकिन वह कहाँ होने वाला था। कंधार पर अधिकार करके बैरम ख़ाँ को वहाँ का हाकिम नियुक्त किया गया। कंधार विजय के बारे में हुमायूँ ने स्वयं कहा- “रोज नौरोज बैरम’स्त इमरोज”। दिले अहबाब बेगम’स्त इमरोज। (आज नववर्ष दिन बैरम है। आज मित्रों के दिल बेफिकर हैं।
ख़ानख़ाना की उपाधि जब हुमायूँ हिन्दुस्तान की ओर बढ़ते समय सतलुज नदी के किनारे माछीवाड़ा पहुँचा था, तब पता लगा दूसरी पार बेजवाड़ा में तीस हज़ार पठान डेरा डाले पड़े हैं। पठान लकड़ी जलाकर ताप रहे थे। रात को रौशनी ने लक्ष्य बतलाने में सहायता की। अपने एक हज़ार सवारों के साथ बैरम ख़ाँ उनके ऊपर टूट पड़ा। दुश्मन की संख्या का उनको पता नहीं था। तीरों की वर्षा से पठान घबरा गए। वे अपना सारा माल वहीं पर छोड़कर भाग गए। इसी विजय के उपलक्ष्य में हुमायूँ ने उसे ‘ख़ानख़ाना’ की उपाधि प्रदान की। तर्दीबेग बैरम ख़ाँ का प्रतिद्वन्द्वी था, लेकिन हेमू से हारकर भागने के समय बैरम ख़ाँ को मौक़ा मिल गया और उसने इस काँटे को निकाल बाहर किया। अकबर के गद्दी पर बैठने के दिन अबुल मसानी ने कुछ गड़बड़ी करनी चाही थी, लेकिन बैरम ख़ाँ ने जैसी ख़ूबसूरती से इस गुत्थी को सुलझाया, वह उसका ही काम था। हेमचन्द्र (हेमू) से पराजित होकर मुग़ल अमीर निराश हो चुके थे। वह काबुल लौट जाना चाहते थे, पर बैरम ख़ाँ ने उन्हें रोक दिया।
साज़िश अकबर की दूधमाता माहम अनगा नित्य ही बैरम ख़ाँ के ख़िलाफ़ साज़िशें रचती रहती थी। मुग़ल दरबार में माहम अनगा का एक समूह था, जो हमेशा ही बैरम को नीचा दिखाने में लगा रहता था। हिजरी 961 (1553-1554 ई.) में इन लोगों ने चुगली लगाई कि बैरम ख़ाँ स्वतंत्र होना चाहता है, लेकिन बैरम ख़ाँ नमक-हराम नहीं था। हुमायूँ एक दिन जब स्वयं कंधार पहुँचा था, तब बैरम ख़ाँ ने बहुत चाहा कि बादशाह उसे अपने साथ ले चले, लेकिन कंधार भी एक बहुत महत्त्वपूर्ण स्थान था, जिसके लिए बैरम ख़ाँ से बढ़कर अच्छा शासक नहीं मिल सक
सन्दर्भ
[संपादित करें]- ↑ जिसने सबकी व्यथा कही उसकी व्यथा कौन कह[मृत कड़ियाँ]। याहू जागरण
- ↑ अब्दुर्रहीम खानखाना Archived 2009-12-31 at the वेबैक मशीन। हिन्दी नेस्ट
- ↑ रहिमन धागा प्रेम का Archived 2010-12-02 at the वेबैक मशीन। अभिव्यक्ति। डॉ॰ दर्शन सेठी
- ↑ देव मानव या दानव Archived 2010-07-16 at the वेबैक मशीन। मिलाप। २९ मई २००८