आस्रव
जैन दर्शन के अनुसार, आस्रव संसार का एक तत्त्व अथवा एक मूल यथार्थ हैं। यह आत्मा के कर्म करने के पीछे मन और शरीर के प्रभाव को संदर्भित करता हैं। जैन धर्म में, कर्म की प्रक्रिया सात सत्य या मौलिक सिद्धांतों (तत्त्व) पर आधारित हैं, जो मानव दुर्दशा समझाते हैं।[1]उन सात में से, चार - आश्रव, बंध, संवर और निर्जरा - कर्म की प्रक्रिया से जुड़े हुएँ हैं। भारतीय दर्शन की दूसरी परंपराओं में भी आत्मा को मलिन करनेवाले तत्त्व आश्रव (पालि:आशव) के नाम से अभिहित किए गए हैं। उनके स्वरूप के विस्तार में भेद होते हुए भी यह समानता है कि आश्रव चित्त के मल है जिनका निराकरण आवश्यक हैं।[1]
अवलोकन
[संपादित करें]जैन ग्रन्थ तत्त्वार्थसूत्र के अनुसार "योग (मन, वचन, और काय की क्रिया) से आश्रम होता है।"
वर्गीकरण
[संपादित करें]जैन दर्शन
[संपादित करें]मन, वचन और काया की सहायता से आत्मप्रदेशों में गति होना जैन धर्म में 'योग' कहलाता है और इसी योग के माध्यम से आत्मा में कर्म की पुद्गलवर्गणाओं का जो संबंध होता है उसे आस्रव कहते हैं। आस्रव के दो भेद हैं :
- (१) सांपरायिक आस्रव तथा
- (२) ईर्यापथ आस्रव।
सभी शरीरधारी आत्माओं को ज्ञानावरणादि कर्मों का (आयुकर्म के अतिरिक्त) हर समय बंध होता रहता है। मोह, माया, मद, क्रोध, लोभ आदि से ग्रस्त आत्माओं को सांपरायिक आस्रव (शुभाशुभ फल देनेवाले कर्मों का होना) होता है और जो आत्माएँ क्रोधादि रहित हैं उन्हें ईयापथ आस्रव (फल न देनेवाले कर्मों का होना) होता है।
सन्दर्भ
[संपादित करें]- ↑ अ आ सोनी, जयंद्र. "Jaina philosophy" [जैन दर्शन]. रॉउटलेज दार्शनिक विश्वकोश (अंग्रेज़ी में). रॉउटलेज. मूल से 20 सितंबर 2016 को पुरालेखित. अभिगमन तिथि 7 सितम्बर 2016.
इन्हें भी देखें
[संपादित करें]बाहरी कड़ियाँ
[संपादित करें]- आस्रव : स्वरूप और कारण[मृत कड़ियाँ]
- आस्रव (जैनकोष)