सुन्दरीनन्दा

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शाक्य राजवंश की राजकुमारी सुंदरीनंदा, जिन्हें सुंदरी के नाम से भी जाना जाता है, राजा शुद्धोदन (सिद्धार्थ गौतम के पिता) और रानी महापजापति गोतमी (सिद्धार्थ गौतम की मौसी) की पुत्री थीं। सिद्धार्थ गौतम के ज्ञान-प्राप्ति के उपरांत उन्होंने संन्यास लेने का निर्णय किया और कुछ समय उपरान्त एक अर्हंत बन गईं। वह बुद्ध द्वारा निर्दिष्ट ध्यान की परंपरा में भिक्षुणियों के बीच अग्रणी मानी गयी है। सुन्दरी 6वीं सदी ईसा पूर्व में उत्तर भारत (बिहार और उत्तर प्रदेश) में रहती थीं।

आरम्भिक जीवन[संपादित करें]

उनके पिता राजा शुद्धोदन, जो सिद्धार्थ के पिता भी थे, और उनकी मां महाप्रजापति थीं। महाप्रजापति शुद्धोदन की दूसरी पत्नी थीं, जो उनकी पहली पत्नी रानी माया की छोटी बहन थीं। नंदा का नाम आनंद, संतोष और सुख का है.  उनके माता-पिता सुंदरी के जन्मने पर विशेष रूप से आनंदित थे। उसकी सुंदरता दिन-प्रतिदिन प्रखर हो रही थी, इसलिए उन्हे बाद में "जनपद कल्याणी" के रूप में जाना जा गया। समय के साथ, उसके परिवार के कई सदस्यो (कपिलवस्तु के शाक्य वंश) ने अपने सांसारिक जीवन को त्यागकर संन्यासी जीवन में प्रवृत्त होने का प्रेरणा लिया जिसमे उनके भाई नंदा और दो चचेरे भाई अनुरुद्ध और आनंद भी थे।

उसकी मां, महाप्रजापति, संघ की प्रथम बौद्ध भिक्षुणी बनी. उन्होंने बुद्ध से संघ में महिलाओं को शामिल करने की अनुमति देने के लिए प्रार्थना की थी। इसके परिणामस्वरूप, कई अन्य शाक्य स्त्रियाँ, जिसमें सिद्धार्थ की पत्नी राजकुमारी यशोधरा भी थी, बौद्ध विक्षुणी  बनी। इस पर, नंदा ने भी संसार का त्याग किया, परन्तु  यह कहा गया है कि वह इसे बुद्ध और धर्म में आत्म-विश्वास के लिए नहीं किया, बल्कि सिद्धार्थ के प्रति भ्रातृ-प्रेम और संबंध के भावना के कारण किया था।

संन्यास[संपादित करें]

सुंदरीनंदा का ध्यान आरम्भ में अपने सौन्दर्य पर केंद्रित था। वह दृढ़ता पूर्वक ध्यान की उच्च परम्पराओं का पालन नहीं कर रही थी, जो अन्य शाक्य राजवंश के कई सदस्यों ने अपने लौकिक जीवन को त्यागने के लिए रचे थे. बुद्ध उनकी निन्दा करेंगे, इसलिए वह बहुत समय तक उससे बचती रही।परन्तु अन्तत: उन्होने बुद्ध से सन्यास की दीक्षा ली।

बोधि[संपादित करें]

एक दिन, बुद्ध ने सभी भिक्षुणियों से व्यक्तिगत रूप में अपने शिष्य के रूप में उनकी शिक्षा प्राप्त करने के लिए कहा, लेकिन नंदा ने उसकी आज्ञा का पालन नहीं किया। बुद्ध ने स्पष्ट रूप से उसे बुलवाया, और फिर वह सलज्ज और चिंत्य भाव से पहुँची। बुद्ध ने उससे बात की और उसकी सभी सकारात्मक गुणों की प्रशंसा की, ताकि नंदा उसकी बातों को इच्छुक रूप से सुने और उसमें आनंदित हो।  बुद्ध की शिक्षा को उन्होंने सप्रसन्न स्वीकार कर लिया. बुद्ध की यौगिक शक्ति से सुंदरी ने देखा कि कैसे उनकी युवावस्था और सुंदरता का नाश हो रहा है.  इस दृश्य का उनके ऊपर गहरा प्रभाव पड़ा.  नंदा को इस प्रभावी छवि को देखने के बाद, बुद्ध ने उससे इस तरह से अनित्य की धारणा को समझाया कि उसने इसकी सत्यता को पूरी तरह से समझा, और इस प्रकार निब्बान की सर्वोत्तम आनंद को प्राप्त किया।

बाद में बुद्ध ने सुंदरी नंदा को उन भिक्षुणियों में मान्यता दी जिन्होंने ध्यान की प्रथा में प्रमुख स्थान प्राप्त किया था। अर्हन्त बनाने के उपरांत इस पवित्र सुख का आनंद लेते हुए, उनको और किसी इंद्रिय सुख की आवश्यकता नहीं थी और शीघ्र ही उसने अपनी आत्मिक शांति पाई.

सन्दर्भ:[संपादित करें]

बुद्धचरित - अश्वघोष

Murcott, Susan (1991). The First Buddhist Women: Translations and Commentaries on the Therigatha.