सदस्य वार्ता:RAO BHOJAJI LOL

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राव भोजराजसिंह (भोजाजी) लोल का इतिहास (1517-1570) ईस्वी सन् जन्म - माघ शुक्ल अष्टमी वि. सं. 1574 सती दिवस - भाद्रपद शुक्ल अष्टमी वि. सं.1627

‘’मारवाड़ के एकमात्र बारवटिया सिरदार व पुरुष सती के रूप में प्रसिद्ध’’ बाण तू ही ब्राह्मणी,माँ बायण सू विख्यात । सूर संत सुमरे सदा, भोजो लोल है मात ॥

मारवाड़ के एकमात्र ‘’बारवटिया सिरदार’’ शिव भक्त,महान योद्धा,पुरुष सती,अजय योद्धा व सिरोही फौज के आपातकालीन सेनापति (एकवलिया की पदवी से सुशोभित जो सौ शूरवीरों के बराबर होता था उसे एकवलिया की पदवी मिलती थी) के रूप में प्रसिद्ध राव भोजाजी(भोजराज सिंह) लोल मनधर गाँव(तहसील - जसवंतपुरा, जिला - जालोर, राजस्थान) के निवासी थे इनका जन्म माघ शुक्ल अष्टमी (आठम) विक्रम संवत 1574 (सन् 1517) को इनके ननिहाल के गाँव बूटड़ी में इनके नानोसा अखाजी बूटरेचा के घर हुआ था इनके पिता का नाम रायमलजी लोल व माता का नाम गंगा बाई था । इनके के पिताजी रायमलजी लोल ने दो शादियाँ की थी – प्रथम कोल्हापुर(हाल कोरटा,पाली) निवासी वीरमजी चौहान के यहाँ लीलाबाई के साथ जिनसे कोई संतान नहीं थी व दूसरी शादी – बूटड़ी निवासी अखाजी बूटरेचा की पुत्री गंगाबाई के साथ जिनके दो संतान हुई बड़े राव रणछोड़जी लोल व छोटे राव भोजाजी लोल । राव रायमलजी लोल के बड़े भाई जयमलजी लोल थे जिनके वंशज आज मनधर गाँव मे लोल वंशीय राव परिवार के नाम से जाने जाते है । राव भोजाजी लोल बचपन से ही बड़े शूरवीर,जुझारू व परोपकारी स्वभाव के धनी थे एवं कुल देवता पातालेश्वर महादेव, सेवाड़ा(रानीवाडा) व चितोड़ की धणीयाणी माँ ब्राह्मणी के परम भक्त थे । बाल्यकाल में राव भोजाजी लोल शिकार के बड़े शौकिन थे जिसे वे ड़ोरा पर्वत की पहाड़ियों में अपने साथियों के साथ तीर-कमान से अपने पिताजी की घोड़ी ‘रेवती’ पर सवार होकर सूअरों का शिकार किया करते थे तीर–कमान के अलावा वे तलवारबाजी में बड़े पारंगत थे तलवार बाजी में बड़े बड़े योद्धा भी उनसे मात खा जाते थे ।

विवाह (केवल फेरे हुए थे गौना(मुकलावा) नहीं हुआ)

राव भोजाजी लोल के परोपकारी स्वभाव,शूरवीरतापूर्ण कार्य व आध्यात्मिक प्रकृति के कारण इनकी प्रसिद्धि बढ़ने लगी व इनके बहादुरी के किस्से जब घरवालों तक पहुंचे तो घरवालों ने इनके सांसारिक जीवन पर खतरा मंडराते देख इनका विवाह करने का निर्णय ले लिया । पिता रायमलजी लोल ने इनकी सगाई गांव बगसड़ी(चितलवाना) निवासी लाखाजी जलसर की पुत्री गीताबाई के साथ कर दी तथा बाल्यावस्था में ही मात्र 13 वर्ष की उम्र मे ही राव भोजाजी लोल की शादी गीताबाई के साथ करवा दी गई पर इस शादी मे केवल फेरे हुए थे क्योकि छोटी उम्र के कारण गौना(मुकलावा) नहीं करवाया था । इनके जीवन पर विवाह का कोई प्रभाव नहीं हुआ और बढ़ती उम्र के साथ उनकी शूरवीरता व परोपकारिता का स्वभाव परवान चढ़ने लगा व अपने जनकल्याणकारी कार्यों के लिए पहचाने जाने लगे व इनकी शूरवीरता के सामने तानाशाही शासक व सामंत वर्ग में खौफ व डर फ़ेल गया था क्योकि भोजराजसिंहजी लोल निर्बल व कमजोर वर्ग की सहायता व मदद के लिए अन्यायकारी व अत्याचारी शक्तियों के खिलाफ आवाज उठाते थे । इनका मन परोपकारी होने के कारण जनकल्याण कार्यों में इतना रम गया था की जब इनकी उम्र 18 वर्ष को पार कर गई तो घर व ससुराल में इनके गौने(मुकलावा) की बात होने लगी तो इन्होने घरवालों से साफ मना कर दिया कि मेरे संघर्षपूर्ण आध्यात्मिक जीवन में अबला नारी को शामिल मत करो पर घरवाले नहीं माने तो इन्होने गौना करवाने से पहले ही 18 वर्ष कि उम्र में गृह-त्याग कर दिया व खोडिया महादेव(खोड़ेश्वर) के पहाड़ों में चले गए व ‘’बारवटिया सिरदार’’ की उपाधि धारण कर ली पर माता गंगाबाई का आशीर्वाद लेने महिने में एक-दो बार अपने पैतृक गाँव मनधर आया करते थे या कभी बाहर प्रवास पर जाते थे तो माँ गंगाबाई का आशीर्वाद लेने गाँव मनधर जरूर आते थे | जब इनके गृह-त्याग की बात इनके ससुराल तक पहूँची व गीताबाई(पत्नी) को इस बात की जानकारी मिली तो गीताबाई ने एक बार मिलने आने की बात का संदेश भेजा । साहेब एक वार मलवा आवों, गीताबाई करे पुकार ‘’तज चंदवाणी चाल, हवी लोलवाणी हवे म्हारा भव-भव ना भरतार,माथों मत धुणो लोलेसा’’ ‘’मन ती मोनिया म्हारा भव-भव ना भरतार बीजे परणु तो लागू थोरी दिकरी’’ पर जब गीताबाई के संदेश को इन्होने ‘’बारवटिया सिरदार’’ का हवाला देकर मिलने से मना कर दिया था ‘’गीता मत कर पुकार, किजू मू बारवटिया सिरदार’’(क्योकि ‘’बारवटिया सिरदार’’ माँ-बहन को छोड़कर सम्पूर्ण नारी जाति का त्याग कर देते थे) । जब उनकी पत्नी गीताबाई को यह संदेश मिला कि उन्होंने मिलने से मना कर दिया है क्योंकि वे बारवटिया सिरदार बन गए हैं तो गीताबाई ने पुनः संदेश भेजा और उस संदेश में यह बात कही कि यदि आप एक बार मिलने नहीं आए तो मैं आत्मदाह कर लूंगी | जब उन्हे आत्मदाह करने का संदेश मिला तो उन्हें बड़ा दुख हुआ क्योंकि वे एक सच्चे शूरवीर थे तथा एक शूरवीर की वजह से नारी का आत्मदाह होना वे घोर अन्याय मानते थे क्योंकि वे स्वयं अन्याय व अत्याचार के विरोधी थे तो वे एक अन्याय का कारण खुद कैसे बन सकते थे अतः एक नारी के प्राण बचाने की खातिर वे अपने ससुर लाखाजी जलसर के घर अर्थात अपने ससुराल बगसड़ी जाते हैं तथा अपनी पत्नी गीताबाई से केवल नेत्र मिलन अर्थात केवल आंखों से बात हुई जिस पर गीताबाई ने कहां था – नेण मदारस नेण रस, नेण सू नेण मिलत । अजाणा सू प्रितडी, नेण सू नेण करत ॥

उनका रूप भी बड़ा शूरवीरो वाला था लंबा कद, बड़ी-बड़ी मूछें, बड़ी ललाट, हष्ट-पुष्ट शरीर जिसे देखकर उनकी पत्नी गीताबाई ने अपनी सहेलियों से अपने पति के रूप का कुछ इस अंदाज में वर्णन किया था ‘वाहे फड़के मुछडीयो रैयण झबूके दंत, अरे जोयलो पटोलावालियों म्हारो लोबड़ीयानो कंत’ इस प्रकार भोजराज सिंह जी लोल ने अपनी बारवटिया सिरदार की उपाधि का मान रखते हुए व अपनी पत्नी से केवल नेत्र मिलन की भेंट कर वापस अपने गांव मनधर लौट आए उधर उनकी पत्नी गीता बाई ने भी क्षत्राणी का धर्म निभाते हुए आजीवन अन्न का त्याग कर दिया था व शेष जीवन ब्रह्मचर्य व्रत का पालन करते हुए पातालेश्वर महादेव की भक्ति की थी व अपना जीवन पति के नाम समर्पित कर दिया था वह एक क्षत्राणी के रूप में अमर हो गई बारवटिया सिरदार

            उन्होने 18 वर्ष की उम्र में घर छोड़ दिया था तथा खोड़िया महादेव के पहाड़ों में खोड़िया महादेव यानी खोड़ेश्वर के चरणो में रहकर दिन दुःखी लोगों की, तानाशाही शासक,सामंत वर्ग से रक्षा करने लगे तथा अपना जीवन जनकल्याणकारी कार्यों में समर्पित कर दिया व गृह त्याग कर बारवटिया सिरदार की उपाधि धारण कर ली थी जो व्यक्ति जन कल्याण हेतु गृह त्याग कर अपनी मां व बहन के अतिरिक्त अन्य नारी या स्त्री का पूर्णतया त्याग कर देता था व ब्रह्मचर्य व्रत का पालन करते हुए अपना जीवन व्यतीत करता था बारवटिया सिरदार कहलाता था जो अपने मन का मालिक हुआ करता था भोजराजसिंह जी लोल मारवाड़ क्षेत्र से एकमात्र ऐसे बारवटिया सिरदार थे कि उनके बाद किसी ने भी संपूर्ण मारवाड़ क्षेत्र से आज तक बारवटिया सिरदार की उपाधि धारण नहीं की । तत्कालीन समय में मेवाड़ क्षेत्र से एकमात्र बारवटिया सिरदार कल्ला जी राठौड़ थे जो मेवाड़ सेना के महान सेनापति जयमल मेड़तिया के भतीजे थे कल्ला जी राठौड़ मूलतः मारवाड़ के मेड़ता क्षेत्र से थे पर उन्होंने मारवाड़ से परित्याग कर मेवाड़ सेना से जुड़ गए थे इसलिए वे मेवाड़ के बारवटिया सिरदार के रूप में जाने जाते थे जो भोजराज सिंह जी लोल से उम्र में 25 वर्ष छोटे थे तथा अल्प आयु में ही मुगलों से युद्ध करते हुए अपने काका जयमल मेड़तिया को अपने कंधों पर बिठाकर युद्ध करते हुए वीरगति को प्राप्त हुए थे इस प्रकार मारवाड़ से राव भोजाजी लोल व मेवाड़ से कल्ला जी राठौड़ मात्र दो समूचे राजस्थान में इतिहास प्रसिद्ध बारवटिया सिरदार हुए हैं 

24 योद्धाओं का भोजा जी से जुड़ना

            राव भोजाजी लोल की शूरवीरता की ख्याति चारों और फैलने लगी व इनकी ख्याति गुजरात तक पहुंच गई जो बारवटिया सिरदार शब्द मुलत गुजराती शब्द हैं जिसका शाब्दिक अर्थ होता है घर का त्याग करना इस प्रकार जब राव भोजाजी लोल की प्रसिद्धि गुजरात तक पहुंची तो  इनके शूरवीरतापूर्ण स्वभाव से प्रभावित होकर गुजरात के मेहसाणा नामक गांव से जो आज एक बड़ा नगर हैं 13 योद्धा जो राव जाति(ब्रहम भट्ट) से थे इनके साथ जुड़ गए जिसमें एक सूरदास बारहठ नामक योद्धा भी था जो एक कवि भी था इधर 11 योद्धाओं की एक टुकड़ी लोहियाणागढ़ के राजपूत योद्धा भी इन से जुड़ गए इस प्रकार राव भोजाजी लोल के साथ हमेशा इन 24 बहादुर योद्धाओं की एक टुकड़ी रहती थी जो खोडिया महादेव व जागनाथ महादेव लोहियाणागढ़ की पहाड़ियों में स्थित है के चरणों में निवासरत रहते थे पर राव भोजा जी लोल अपनी माता गंगाबाई से मिलने अपने गांव मनधर अकेले आते थे राव भोजाजी लोल ने बारवटिया सिरदार बनने के बाद अपनी सवारी हेतु लीलण नाम की घोड़ी कोल्हापुर(हाल कोरटा, पाली) देवडो के यहां से लूट कर लाई थी जो बड़ी स्वामी भक्त व वफादार थी इनके हाथों में मुठ की शोभा नागौरी तलवार के साथ होती थी जो 8  फिट लंबी थी

मां ब्राह्मणी का आशीर्वाद प्राप्त हुआ

राव भोजा जी लोल कुलदेवी मां ब्राम्हणी के परम भक्त थे उनकी अनन्य भक्ति व परोपकारीता से प्रसन्न हो मां ब्राह्मणी का आशीर्वाद व साक्षात्कार इन्हें 24 वर्ष की आयु में हुआ था तथा मां ब्राह्मणी से साक्षात्कार होने के बाद इन्होंने शिकार करने के अपने शौक को छोड़ दिया था वह पूरी तरह से आध्यात्मिक हो गए थे

मेवाड़ प्रशासक बनवीर की फौज को लूटना 1537 (ईस्वी सन्) एक बार राव भोजा जी लोल अपने 24 बीरवर योद्धाओं के साथ मां ब्राह्मणी के दर्शन कर चितौड़ से वापस लौट रहे थे जब वे आसींद के जंगल में पहुंचे तो रात के अंधेरे में उन्हें मशाले जलती हुई दिखाई दी तो उन्होंने पास जाकर देखना जायज समझा कि कहीं कोई अनैतिक या अन्यायपूर्ण कार्य तो नहीं हो रहा या कोई अनहोनी घटना तो नहीं घटी जब वे जलती हुई मशालो के पास पहुंचे तो देखा कि एक सेना सैकड़ों तंबुओं में अपना पड़ाव डाले हुए थी जब प्रथम तंबू के बाहर खड़े सैनिकों से भोजाजी लोल ने पूछा कि इन तंबुओं में विश्राम कर रही फ़ौज किस शासक की है चूंकि समस्त फौज उस समय मदिरा के नशे में मस्त थी तो बनवीर के सैनिकों ने अकड़ कर जवाब दिया कि यह फौज तो मेवाड़ के प्रशासक बनवीर की है बनवीर का नाम सुनते ही राव भोजाजी लोल का खून खोल उठा क्योंकि बनवीर की तानाशाही के चर्चे उस समय आमतौर पर व्याप्त थे इस बात से राव भोजाजी लोल भलीभांति परिचित थे तथा राव भोजाजी लोल ने सूरदास बारहठ से भी सलाह मशविरा किया तो सूरदास बारहठ ने कुछ इस तरह जवाब दिया ‘सूरदास बारहठ अर्ज करें भोजा लुटे रे बनवीर रे वाली फौज ‘ सूरदास बारहठ की सलाह पर राव भोजाजी लोल ने बनवीर के सैनिकों से उनके शस्त्रागार वाले तंबू के बारे में पूछा तो सैनिक उन्हें आम राहगीर समझकर उसे तंबू की ओर इशारा कर दिया जिसमें शस्त्र रखे हुए थे इशारा मिलते ही राव भोजाजी लोल ने अपने 24 योद्धाओं के साथ उस तंबू पर हमला बोल दिया उस तंबू में 20 सैनिक शस्त्रों की सुरक्षा में थे तंबू पर अचानक हुए इस हमले से बनवीर के सैनिक समझ भी नहीं सके कि क्या हुआ इसलिए वे इस हमले में घायल होकर दूसरे तंबू की ओर भागे जब तक बनवीर की पूरी फौज संभलती तब तक राव भोजाजी लोल की टुकड़ी बनवीर की फौज के आरक्षित शस्त्रों को लूट कर आगे बढ़ गई गोगुंदा में राजदान चारण के गायों को अफगानी फौजी से छुड़ाया बात सन् 1541 की जब राव भोजाजी लोल अपने 24 योद्धाओं के साथ मां ब्राह्मणी के दर्शन कर चित्तौड़ से लौट रहे थे तब वे गोगुंदा नामक गांव में से होकर गुजर रहे थे उसी दिन उस गांव के राजदान नामक चारण की गायों को अफगानी फौज की 60 आदमियों की टुकड़ी ने लूट ली थी तब राजदान चारण की नजर वहां से गुजर रही राव भोजाजी लोल की टुकड़ी पर पड़ी तो टुकडी के आगे चल रहे राव भोजाजी लोल की मूछों का ताव देखकर राजदान चारण ने सोचा जरूर कोई शूरवीर है अतः राव भोजाजी लोल की घोड़ी लीलण के आगे आकर विनती करने लगा ‘रेवत रोको थे शूरा आपरा अर्ज करे हैं थाने चारण राजदान किसा गढ़ो रा कीजो राजवी किसा नामा सू थारी ओलखाण पाछी ल्यावों थे म्हारी गावडली ज्यानें ने लूटी है फौज अफगान मारवाड़ रो कीजू बारवटियो सिरदार भोजा लोल नामा सू म्हारी ओलखाण मत कर चारण थू यूं पुकार जावू मैं गौ माता रे वार अर लडू मू फौज अफगान । राजदान चारण के मुख से गौ माता के लूटने की बात सुनते ही राव भोजाजी लोल का खून खोल उठा वह अपने 24 शूरवीर योद्धाओं के साथ अफगानी फौज का पीछा किया तो रास्ते में स्थित राणेराव तालाब की पाल पर स्थित सती माता ‘राठौड़ रानी’ को नमन कर साथ देने का आशीर्वाद प्राप्त कर आगे बढ़े व गायों को ले जा रही अफगानी फौज पर भूखे शेर की भांति टूट पड़े तो इनके पराक्रम के आगे अफगानी फौज भागने लगी फिर भी भागती हुई अफगानी फौज के 2 सैनिकों को मौत के घाट उतार दिया जबकि अन्य 58 अफगानी सैनिक गायों को छोड़कर भाग गए व इस प्रकार राव भोजाजी लोल ने अफगानी फौज से गायों की रक्षा की । सिरोही शाही फौज का सेनापति बनने का निमंत्रण मिला जब राव भोजाजी लोल की शूरवीरता व बहादुरी पूर्ण कार्यो की बातें सिरोही के तत्कालीन शासक अखेराज देवड़ा तक पहूँची तो उन्होने राव भोजाजी लोल को सिरोही की शाही फौज मे सेनापति बनने का निमंत्रण भेजा तो राव भोजाजी लोल ने अखेराज देवड़ा का निमंत्रण सहर्ष स्वीकार कर लिया जो इस शर्त पर की बारवटिया सिरदार होने के कारण केवल आपातकालीन युद्ध स्थिति उत्पन्न होने पर युद्ध का नैतृत्व करने हेतु सेनापति बनना स्वीकार किया (1542ई.) जो राव भोजाजी लोल की इच्छा पर निर्भर था । इस प्रकार सन् 1542 मे आप सिरोही की शाही फौज से जुड़ गये तथा सन् 1570 तक सिरोही की शाही फौज से जुड़े रहे (राव सुरताण देवड़ा के शासनकाल तक ) कई मौके पर सिरोही फौज मे उनकी शूरवीरता,पराक्रमी कार्य व युद्ध कौशल को देखकर सिरोही शासक अखेराज देवड़ा ने उन्हे एकवलिया की उपाधि से नवाजा था एकवलिया अर्थात् जो सौ शूरवीरों के समान या बराबर बल वाला योद्धा जिसे काठियावाड गुजरात मे एका व मारवाड़ क्षेत्र मे विशेषकर सिरोही रियासत मे उसे एकवलिया के नाम से जाना जाता था अजेय योद्धा - राव भोजाजी लोल अपने सम्पूर्ण जीवन काल मे एक अजेय योद्धा के रूप मे प्रसिद्ध रहे और सिरोही फौज से जुडने के बाद (1542-1570) राव भोजाजी लोल ने सिरोही फौज की और से जिस किसी भी युद्ध मे भाग लिया व उसका नैतृत्व किया वह युद्ध सिरोही फौज कभी नही हारी | सिरोही फौज के नेतृत्व करने के अलावा एक बारवटिया सिरदार के रूप मे इन्होने जिन जिन तानाशाहों के खिलाफ आवाज उठाई वहाँ पर हमेशा इनकी जीत रही इसलिए राव भोजाजी लोल एक अजेय योद्धा के रूप मे प्रसिद्ध है | जालौर शासक मजूद खान पठान को बंदी बनाया (1544) बात सन् 1544 की है जब राव भोजाजी लोल सिरोही की फौज से जुड़ चुके थे व अपने पराक्रम व शूरवीरता के कारण अखेराज जी देवड़ा के द्वारा एकवलिया की पदवी से नवाजे जा चुके थे पर सिरोही रियासत की फौज मे उन्हे सेनापति का ओहदा प्राप्त था जो युद्धकालीन स्थिति मे उन्हे निमंत्रण भेजा जाता था जो उनकी इच्छा पर निर्भर था उन्हे बाध्य नही किया जा सकता था क्योकि वे मारवाड़ के एकमात्र बारवटिया सिरदार की उपाधि को धारण किए हुये थे सिरोही के तत्कालीन शासक (अक्षयराज) अखेराज देवड़ा थे जबकि जालोर गढ़ पर मुस्लिम शासक मजूद खान पठान राज कर रहा था | अखेराज देवड़ा ने जालोर गढ़ से मुस्लिम राज खत्म कर वहाँ पर सिरोही गढ़ की पताका फहराने की योजना बनाई तथा इस युद्ध मे सेनापति की ज़िम्मेदारी देने हेतु राव भोजाजी लोल को निमंत्रण भेजा गया जब सिरोही का निमंत्रण राव भोजाजी लोल को मिला तो वे अपने सबसे भरोसेमंद योद्धा व कवि सूरदास बारहठ के साथ सिरोही के लिए अपनी लीलण पर सवार होकर पहुंचे व अखेराज देवड़ा के दरबार मे उपस्थित हुए खम्मा घणी म्हारा देवड़ा रा राय ने राव भोजो लोल थाने अर्ज करे पधारो म्हारा एकवलिया सिरदार पधारो म्हारा मारवाड़ रा बारवटिया सिरदार तेड़ाया थाने सिरोही गढ़ रे काज जावणु घेरवा थाने जालोर गढ़ राज हाकजो थे रोणो मीणों नी फौज राखजो थे सिरोही गढ़ री लाज इस युद्ध मे सिरोही की ओर से 8000 सिपाही शामिल थे जिन्होने 2000 – 2000 की चार टुकड़िया मे बाँट दिया था जालोर गढ़ पर तीन दिशाओ से हमला करने की योजना बनाई जबकि चौथी टुकड़ी अखेराज देवड़ा के साथ आरक्षित रखी गई जो जालोर गढ़ की तलहटी पर मौजूद थी । राव भोजाजी लोल को 2000 भील – मीणों की बहादुर फौज का नेतृत्व करने की ज़िम्मेदारी सौपीं गई जो कठिन से कठिन स्थितियो मे भी जीत हासिल करणे मे पारंगत थी तथा राव भोजाजी लोल को जालोर गढ़ पर पश्चिम दिशा से हमला करने की ज़िम्मेदारी सौपीं गई जो सबसे दुर्गम व दुष्कर रास्ता था पर राव भोजाजी लोल ऐसे दुर्गम व दुष्कर रास्तों व मंजिलों को फतह करने में पारंगत थे एक अन्य टुकड़ी का नेतृत्व खानवा के रागाजी देवड़ा कर रहे थे जो वीर व पराक्रमी थे जालौर की पठानी सेना किले में ऊपर थी वह पहाड़ों में छिपकर हमले करने में पारंगत थी इसलिए इस युद्ध में जालौर की स्थिति मजबूत लग रही थी पर सिरोही की फौज प्रतिकूल स्थिति में होने के बावजूद अपने राजपूती जोश व जज्बे के साथ लड़ते हुए आगे बढ़ रही थी राव भोजराज सिंह लोल व सूरदास बारहठ शूरवीरता व पराक्रम के साथ लड़ते हुए आगे बढ़ रहे थे पर रास्ता दुर्गम होने के कारण राव भोजाजी लोल की टुकड़ी के सैनिक काफी पीछे रह गए जबकि राव भोजाजी लोल व सूरदास बारहठ 26 भील-मीणा योद्धाओं के साथ आगे बढ़ रहे थे टुकड़ी के बाकी सभी सैनिकों के पीछे रह जाने के कारण राव भोजाजी लोल व सूरदास बारहठ अपने 26 भील-मीणा योद्धाओं के साथ 500 पठानी सैनिकों से घिर जाते हैं तथा पठानी सेनानायक अपनी मजबूत स्थिति को देखकर राव भोजाजी लोल से हथियार डालकर समर्पण करने के लिए कहता है तो राव भोजाजी लोल के द्वारा दिए गए जवाब को सूरदास बारहठ ने अपनी काव्य शैली में इस तरह कहा ~ पहलो हाथ मुछे ,बीजो तलवारे तवाव हवे हद जो त्रिजों हाथ, तो पण नर धणियों ने नमत नी, अर्थात भोजा का पहला हाथ मुछों पर है तथा दूसरे हाथ में नागौरी तलवार है पर अब यदि तीसरा हाथ भी आ जाए तो भी किसी के सामने नमन नहीं करेगा | इतना कहकर राव भोजाजी लोल ने माँ ब्राह्मणी को याद किया - चितौड़ री धणीयाणी माँ आवे भोजा रे पागडे लड़नु म्हारे पठानों वाली फौज सू । मां ब्राह्मणी का आशीर्वाद पाकर राव भोजाजी लोल दुश्मनी फौज पर भूखे शेर की तरह टूट पड़े व इस युद्ध में राव भोजाजी लोल ने ऐसा रूद्र रूप धारण कर लिया कि पठानी फौज के योद्धाओं को कवच सहित गाजर मूली की तरह काट रहे थे और मात्र सवा घंटे में इन्होंने दुश्मनी फौज के 350 सिपाहियों को मौत के घाट उतार दिया व शेष सैनिक भोजाजी का पराक्रमी रूद्र रूप देखकर रणभूमि से भाग खड़े हुए राव भोजाजी लोल के इस प्रकार के रूद्र रूप का वर्णन सूरदास बारहठ जो उस समय उनके साथ था ,ने अपनी काव्य शैली में कुछ इस प्रकार किया अड पड़े राव भोज पठान सू महा सिंग चूक कट जात शिश कट टूक-टूक फट जात कहिंक फे फराफर हट जात कहींक कायर हजार उद्यन्त शीश पड़ते कपन्त धड़-धड़ खन्ञ्च मचवायें दंत सूरदास बारहठ भी इस युद्ध में गंभीर घायल हो जाते हैं राव भोजाजी लोल उन्हें अपनी घोड़ी लीलण पर ले लेते हैं तथा स्वयं भी घायल अवस्था में होने के बावजूद भी पराक्रमी रण कौशल दिखाते हुए आगे बढ़ते रहते हैं पर इनके साथ में जो 26 भील मीणा योद्धा थे वे सब वीरगति को प्राप्त हो जाते हैं जबकि राव भोजाजी लोल सूरदास बारहठ को साथ लिए जालौर के गढ़ में प्रवेश कर लेते हैं उधर दूसरी तरफ से रागा जी देवड़ा भी अदम्य साहस का परिचय देते हुए लगभग 100 आदमियों को मौत के घाट उतार कर गढ़ में प्रवेश करते हैं इन दोनों को गढ़ में प्रवेश करता देख जालौर शासक मजूद खा पठान अपने कुछ सैनिकों के साथ वहां से भागने लगता है तो घायल अवस्था में होने के बावजूद राव भोजाजी लोल व रागा जी देवड़ा मजुद खा पठान का पीछा करते हैं तो पठानी सैनिक भोजाजी लोल व रागाजी देवडा़ का पीछा करते है व पीछे से वार कर दोनों को घायल कर देते है पर घायलावस्था में होने के बावजूद भोजाजी लोल पीछे से आए पठानी सैनिकों को मौत के घाट उतार देते है व पुनः मजूद खां का पीछा कर उसके साथी पठानी सैनिकों को मौत के घाट उतार कर मजूद खां को पकड़ लेते हैं व उसे बंदी बना लेते हैं तथा पुनः जालौर गढ़ में ले आते हैं और मजूद खा पठान के बंदी बनाने की सूचना तलहटी पर खड़े अखेराज देवड़ा तक पहुंचाई जाती है तब अखेराज देवड़ा जालौर गढ़ में पहुंचकर वहां पर सिरोही राज की पताका फहराते हैं पर इस खुशी के क्षण में वीर सेनापति रागाजी देवड़ा जो दूसरी टुकड़ी का नेतृत्व कर रहे थे अधिक घायल होने के कारण वीरगति को प्राप्त हो जाते हैं जहां अखेराज देवड़ा द्वारा रागाजी देवड़ा को रोणाजी देवड़ा की उपाधि से सम्मानित किया जाता है तथा मजूद खा पठान को बंदी बनाकर अपने साथ सिरोही ले गए जबकि राव भोजाजी लोल वहां से सीधे सूरदास बारहठ के साथ खोडीया महादेव के चरणों में आ गए थे इस युद्ध में सिरोही फौज के 3500 योद्धा वीरगति को प्राप्त हुए थे जिसमें से 650 भील-मीणा योद्धा जो राव भोजाजी लोल की टूकड़ी में शामिल थे वीरगति को प्राप्त हुए थे जो अन्य दो टुकड़ियों के मुकाबले बहुत कम थे दूसरी तरफ पठानी सेना के मरने वाले सैनिकों की संख्या लगभग 5000 से अधिक थी । इस प्रकार राव भोजाजी लोल व रागाजी देवड़ा के अदम्य साहस व पराक्रम के कारण एक दुर्गम व दुष्कर पहाड़ी पर स्थित जालौर गढ़ को जीत लिया था जबकि जीतने के अवसर जालौर गढ़ के अधिक थे पर इन दोनों पराक्रमी योद्धाओं के कारण जालोर को हार का मुंह देखना पड़ा था।

गुजरात बादशाही सेना को परास्त किया सन 1546-47 में जब गुजरात के बादशाह की सेना हफीज खा के नेतृत्व में अपने 20000 सैनिकों के साथ चित्तौड़ पर आक्रमण करने के लिए सिरोही से होकर गुजर रही थी तब राव भोजाजी लोल सिरोही में ही थे जब इस बात की खबर राव भोजाजी लोल को हुई तो अपने अधीनस्थ भील-मीणा योद्धाओं की टुकड़ी को लेकर गोयली गांव के पास हफीज खा का रास्ता रोककर उनसे युद्ध किया जिसमें बादशाही सेना के सेकड़ों सिपाही मौत के घाट उतार दिए गए तथा राव भोजाजी लोल के नेतृत्व में भीलों-मीणों की बहादुर टुकड़ी के पराक्रमी युद्ध कौशल के आगे मुस्लिम सेना की एक न चली और अंततः भोजराजजी के आगे हफीज खां को पराजित होकर उसे वापस गुजरात लौटना पड़ा था ।

खिमतगढ़(गुजरात) में पावली नामक कर बंद करवाया सन 1551 की बात है राव भोजाजी लोल अपनी लीलण नामक घोड़ी पर सवार होकर गुजरात स्थित सोमनाथ महादेव के दर्शन करने हेतु अकेले रवाना होते हैं जब यात्रा के दौरान खिमतगढ़ की सरहद पर पहुंचे तो वहां के पहरेदार ने उन्हें रोक लिया और कहने लगा कि आप कौन हो व कहां जा रहे हो तब राव भोजाजी लोल ने कहा कि मैं मारवाड़ क्षेत्र के मनधर गांव का बारवटिया सिरदार हूँ व राव भोजा लोल मेरा नाम है तथा सोमनाथ महादेव की यात्रा पर जा रहा हूं इस पर पहरेदार ने कहा कि हमारे ठाकुर हीरचंद कोली का नियम है कि जो कोई हमारी सरहद से होकर गुजरता है उसे सात पावली स्वर्ण की कर के रूप में देनी पड़ती है अतः नियमानुसार आपको भी 7 पावली स्वर्ण की कर के रूप में देनी होगी तब राव भोजाजी लोल ने पहरेदार से कहा कि मैं तो स्वयं बारवटिया सिरदार हूँ तथा तानाशाह से ऐसे कर बंद करवाता हूं जाओ जाकर अपने ठाकुर से कह दो कि मारवाड़ क्षेत्र से राव भोजाजी लोल नामक एक बारवटिया सिरदार आया है जो कर देने से मना कर रहा है जब ठाकुर तक यह बात पहुंची तो तानाशाही शासक हीरचंद कोली अपने 184 सिपाहियों की फौज के साथ वहां आ पहुंचा और कहने लगा कि यदि तुम्हें हमारी सरहद से गुजरना है तो सात पावली स्वर्ण कर के रूप में देना होगा या फिर हमसे युद्ध कर जीतना होगा पर राव भोजाजी लोल जब भी किसी देव दर्शनार्थ स्थल को जाते थे उस समय किसी प्रकार का खून-खराबा नहीं करते थे अतः उनके नियमानुसार उन्होंने उस ठाकुर के नहीं मानने पर उसे 7 पावली स्वर्ण के रूप में कर चुका कर उसे चेतावनी भी दी कि अभी तो मैं बाबा सोमनाथ के द्वार को जा रहा हूं इसलिए यह 7 पावली स्वर्ण कर के रूप में दे रहा हूं पर वापस आते वक्त तेरे प्राणों के साथ 14 पावली स्वर्ण वसूल ना करु तो मेरा नाम भोजाजी लोल नहीं । इतना कहकर राव भोजाजी लोल आगे बढ़े वह सोमनाथ पहुंचे तथा बाबा को प्रणाम कर बाबा को साथ देने की प्रार्थना कर वहां से वापसी में यह प्रण लिया कि जब तक खिमतगढ़ नहीं पहुंच जाऊं तब तक पानी नहीं पीऊँगा व रास्ते में कहीं घोड़ी नहीं रोकूंगा ।

खिमतगढ़ पहुंचकर सरहद पर आते ही सबसे पहले पहरेदार को खड़ा का खड़ा सीधा काटकर अपनी नागोरी शमशीर की प्यास बुझाई व घोड़ी लीलण को आँवल की झाड़ी से बांधकर रात के अंधेरे में हीरचंद कोली के गढ़ में प्रवेश कर गये तब हीरचंद की पत्नी राजलनार बीच में आ गई तो उन्होंने बारवटिया सिरदार का हवाला देकर राजलनार को अपने रास्ते से हटने को कहा तथा अपने पति को जगाने का कहा कि जाकर तेरे पति से कहो कि मारवाड़ क्षेत्र का बारवटिया सिरदार राव भोजाजी लोल अपने वचन के अनुसार हीरचंद कोली के प्राण व 14 पावली स्वर्ण मुद्रा लेने आया है अपने पति के प्राण लेने की बात सुनकर हीरचंद की पत्नी उनके सामने विलाप करने लगी वह अपने पति के प्राणों की भीख मांगने लगी तब राव भोजाजी लोल हीरचंद के शयन कक्ष में प्रवेश कर जाते हैं तथा उसे जगा कर उसे 14 पावली स्वर्ण कर देने का कहते हैं वह नागोरी पर हाथ रख म्यान में से बाहर निकालने को करते हैं तो पुनः राजलनार राव भोजाजी लोल के पैरों में गिरकर रोने लगती है वह अपने आपको धर्म की बहन बताकर एक बहन के सुहाग की भीख मांगती है तथा हीरचंद कोली भी राव भोजाजी लोल के पैरों में गिर कर अपने प्राणों की भीख मांगता है तथा 14 पावली स्वर्ण की बजाय 14 स्वर्ण मोहरे लाकर राव भोजाजी लोल के पैरों में रखकर वचन देता है कि खिमतगढ़ से गुजरने वाले राहगीर से अब किसी भी प्रकार का कर वसूल नहीं करूंगा तब राव भोजाजी लोल उसे प्राण दान दे देते हैं व 14 स्वर्ण  मोहरे लेकर व खिमतगढ़ में सदा के लिए पावली स्वर्ण के रूप में लिया जाने वाला कर बंद करवा कर अपने गृह क्षेत्र खोडिया महादेव की चरणों में आ जाते हैं ।

शरीर में स्वयं प्रज्वलित अग्नि से एकमात्र सती पुरुष के रूप में प्रसिद्ध घटना सन् 1569-70 की है तत्कालीन समय में मां सुंधा की तलहटी में दांतलावास नामक गांव एक बड़ा ठिकाना था जो आज भी इसी नाम से जाना जाता है तथा इस ठिकाने के तत्कालीन ठाकुर राणाजी देवल हुआ करते थे जिनकी पत्नी का नाम चंद्रावती था चंद्रावती ने राव भोजाजी लोल को अपना धर्म भाई बनाया हुआ था जो उस समय खोडिया महादेव की पहाड़ियों में अपने 24 योद्धाओं के साथ रहा करते थे ।

तत्कालीन समय में दांतलावास ठाकुर राणाजी देवल ने जोधपुर रियासत के खिलाफ सिरोही रियासत का साथ दिया था उस समय जोधपुर का शासक राव चंद्रसेन था जबकि सिरोही का शासक राव सुरताण देवड़ा था राव चंद्रसेन ने नाराज होकर दांतलावास ठिकाने पर सवा 21 मण स्वर्ण का जुर्माना लगाया था जिसे वसूल करने हेतु राव चंद्रसेन ने  भीमसेन के नेतृत्व में फौज भेजी थी पर तत्कालीन परिस्थिति में दांतलावास ठाकुर राणाजी देवल उस जुर्माने को अदा करने की स्थिति में नहीं थे बावजूद भीमसेन ने उन्हें जुर्माना चुकाने हेतु बाध्य किया जब वह नहीं माना तो राणाजी देवल ने मालवाड़ा ठाकुर मालमदेवजी व बड़गांव ठाकुर रायदास जी को गवाही देने हेतु आमंत्रित किया था पर भीमसेन जुर्माना वसूलने के अपने फैसले पर अड़ा रहा तब राणाजी देवल की पत्नी चंद्रावती ने अपने धर्म के भाई राव भोजाजी लोल को संदेश भेजा और कहलवाया कि भाई अब तो आपकी बहन चंद्रावती की लाज आपके हाथ हैं  । 

बहन चंद्रावती का संदेश मिलते ही राव भोजाजी लोल ठाकुर राणाजी देवल के गढ़ में पहुंच गए तथा भीमसेन को विश्वास दिलाया कि 11 महीने पूर्ण होने पर राणाजी देवल इस जुर्माने को अदा कर देंगे और यदि 11 महीने की समाप्ति के बाद यह जुर्माना राणाजी देवल नहीं चुकाते हैं तो यह जुर्माना हम तीनों(मालमदेव जी,रायदास जी व राव भोजाजी लोल) चुकाएंगे । तब भीमसेन वापस जोधपुर लौट गया पर जब 11 महीने पूर्ण हो गए तो भीमसेन पुनः अपनी फौज लेकर गढ़ दांतलावास पहुंचा पर फौज को आता देख राणाजी देवल मां सुंधा के पहाड़ों में चले गए थे क्योंकि सवा 21 मण स्वर्ण (जुर्माना) का बंदोबस्त नहीं हो पाया था। राणाजी देवल के इंतजार में भीमसेन की फौज दो दिन तक दांतलावास गढ का घेरा डालें रही पर राणाजी देवल 2 दिन बाद भी गढ़ में नहीं लौटे तो भीमसेन ने अपने सैनिकों को उन तीनों गवाहों को बुलाने भेजा जिसमें राव भोजाजी लोल, रायदास जी व मालमदेव जी शामिल थे । उस समय राव भोजाजी लोल अपनी माता गंगाबाई से मिलने मनधर गए हुए थे जब सैनिक मनधर पहुंचे तो राव भोजाजी लोल दांतलावास में घटित वाकया कोभांप गए | राव भोजाजी लोल ने माँ गंगाबाई को गढ़ दांतलावास जाने का कहकर अपनी घोड़ी लीलण पर सवार हो गढ़ दांतलावास पहुंच गए उस समय दोनों अन्य गवाह रायदास जी व मालमदेव जी भी पहुंच गए थे जब तीनों गवाह वहां पर एकत्रित हुए तो तीनों ने भीमसेन को 1 दिन और राणाजी देवल का इंतजार करने के लिए कहा तो 1 दिन और इंतजार किया उधर मनधर गांव में माता गंगाबाई को चिंता होने लगी कि राव भोजाजी लोल को गए हुए पूरा 1 दिन बीत चुका था पर वापस नहीं आए थे अतः माता गंगाबाई ने मनधर गांव के मेघवाल रोमा जी रांगी के पुत्र समेला जी रांगी जो दांतलावास के जमाई भी थे को भोजाजी लोल के बारे में पता लगाने हेतु दांतलावास भेजा गया जब वे वहां पहुंचे तब तक भीमसेन ने तीनों गवाहों के हथकड़ी लगा दी थी व उन तीनों को राव चंद्रसेन के समक्ष ले जाने की तैयारी में थे तभी समेला राम जी रांगी भी वहां पहुंच जाते हैं तो उनके भी हथकड़ी लगा दी गई जब चारों को जोधपुर ले जाने के लिए रवाना हुए तब राव भोजाजी लोल का स्वाभिमान जाग उठा व मां ब्राह्मणी को याद किया तभी मां ब्राह्मणी के आशीर्वाद से राव भोजाजी लोल व समेलाराम रांगी की हथकड़ियां टूट गई व राव भोजाजी लोल भीमसेन के चंगुल से छूड़ाकर अपनी घोड़ी लीलण पर सवार होकर मनधर के लिए घोड़ी दौड़ा दी पर भीमसेन ने समेला राम रांगी को अपने साथ ले सेना सहित राव भोजाजी लोल का पीछा किया व दांतलावास व राजिकावास गांव की सरहद पर सागी नदी में राव भोजाजी लोल को भीमसेन की सेना ने घेर लिया पर उनके पास में आने की किसी की हिम्मत नहीं हुई । भीमसेन की सेना का यह घेरा तकरीबन एक से डेढ घंटे तक राव भोजाजी लोल के चारों ओर बना रहा पर जब भोजाजी लोल को उस घेरे में से सकुशल बाहर निकलने का मार्ग नहीं दिखा तो उन्होंने भीमसेन की सेना से मुकाबला करने का निर्णय लिया व मां ब्राह्मणी को याद किया - ‘आवे मां भोजा रे पागडे आवे मां भोजा रे डील में म्हारे लडनु है जोधाणा वाली फौज ती’ पर मां ब्राह्मणी ने राव भोजाजी लोल को जोधाणा की फौज पर वार(घाव) करने से मना किया

मत घाले भोजा घाव गादी कीजे जोधाणा राज री पुनः राव भोजाजी लोल ने एक बार फिर माँ ब्राह्मणी से प्रार्थना की माँ हाथ मत ले भोजा रे माथ ती म्हारे लड़नु है जोधाणा फौज ती जब मां ब्राह्मणी ने राम भोजाजी लोल को घाव करने से फिर रोका तो भोजाजी लोल ने अपने स्वयं के बलबूते जोधाणा की फौज से लड़ने का निर्णय लिया व अपनी नागौरी शमशीर की प्यास बुझाने के लिए उन्होंने भीमसेन पर वार किया जिससे सूरदास बारहठ ने अपनी काव्य शैली में कुछ इस तरह वर्णन किया -

भोजा थारी धड़क सू जोधोणो  धरराएं ।
मुठ मरोड़ी मुछ री भीमसेन घबराएं ।।

जब राव भोजाजी लोल ने भीमसेन पर अपनी नागोरी से वार किया तब मां ब्राह्मणी ने पास में खड़े हजारों साल पुराने बरगद (वटवृक्ष) के पेड़ को बीच में ला दिया पर राव भोजाजी लोल के भुजाओं में इतना बल था कि उन्होंने अपने एक ही वार में उस वटवृक्ष को काट दिया पर भीमसेन बस गया भोजाजी लोल के इस रोद्र रूप को देखकर मां ब्राह्मणी ने राव भोजाजी लोल के शरीर में प्रवेश किया तथा राव भोजाजी लोल के शरीर का तप इतना बढ़ गया कि उनके शरीर में स्वयं अग्नि प्रज्वलित हो गई तभी उन्होंने जोधाणा राज राव चंद्रसेन को श्राप दिया और भीमसेन से कहा कि तेरे राजा की राजगद्दी नहीं रहेगी व दांतलावास को श्राप दिया कि दांतलावास ठाकुर के विश्वासघात के कारण दांतलावास ठाकुर की वंश वृद्धि नहीं होगी व लोल वंशीय राव व रांगी वंशीय मेघवाल दांतलावास गांव की आखडी रखेंगे अर्थात दांतलावास गांव के अन्न - जल व किसी भी प्रकार की वस्तु का उपयोग नहीं करेंगे |जब राव भोजाजी लोल के शरीर में अग्नि दिखी तो समेला राम रांगी विलाप करने लगा कि भोजाजी मुझे अकेला छोड़कर मत जाओ तब समेला राम रांगी के शरीर में भी अग्नि प्रज्वलित हो गई जब राव भोजाजी लोल की घोड़ी लीलण पास में 1 दिन पहले लालाराम चौधरी के द्वारा बाड़ करने के लिए काट कर रखी गई बबूल की गीली झाड़ियों के ढेर में कूद पड़ी तो वे गीली(हरी) बबूल की झाड़ियों का ढेर भी धू-धू कर जलने लगा व उस समय पास में घास चर रही एक गाय व उसका बछड़ा भी पवित्र अग्नि में दौड़ कर कूद पड़े (सती दिवस भाद्रपद शुक्ल अष्टमी विक्रम संवत 1627 या सन् 1570) इनके श्राप के परिणाम स्वरूप राव चंद्रसेन को 1571-72 में अपनी राज गद्दी छोड़नी पड़ी थी जो मृत्यु तक (1581) जंगलों में ही रहे पर अपना राज हासिल नहीं कर पाए थे जबकि दूसरी तरफ दांतलावास ठाकुर की वंश वृद्धि नहीं हुई तथा आज भी लोल वंशीय राव परिवार व रांगी वंशीय मेघवाल परिवार दांतलावास गांव का तिनका तक नहीं उठाते हैं व हर प्रकार के उपयोग की आखडी रखे हुए हैं इस प्रकार एक महान योद्धा व जीवनभर अजय रहने वाले शूरवीर राव भोजाजी लोल मां ब्राह्मणी के आँचल में स्वयं प्रज्वलित पवित्र अग्नि की गोद में समाकर इतिहास के पन्नों में अमर हो गए । भीमसेन को दांतलावास से बिना जुर्माना वसूल किए खाली हाथ लौटना पड़ा था पर राव भोजाजी लोल के हाथों की शोभा नागोरी तलवार भीमसेन अपने साथ ले गया था | इस प्रकार पूरे भारतवर्ष में शायद पुरुष सती का यह प्रथम उदाहरण होगा जिनके शरीर में अपने आप अग्नि प्रज्वलित हुई हो जो स्वाभिमान की लड़ाई लड़ते हुए स्वतः शरीर में प्रज्वलित अग्नि की गोद में अमर हो गए। राव भोजाजी लोल का सतीत्व प्राप्त स्थल दरबार आज भी दांतलावास व राजीकावास गांव की सरहद पर स्थित बहने वाली सागी नदी में स्थित हैं जहां पर हर मास की शुक्ल अष्टमी के दिन भक्तों की भीड़ अपना शीश नमाने जाती हैं तथा दाता के दरबार में सच्चे मन से की गई हर मनोकामना पूरी होती हैं इनके दरबार पर आया हुआ भक्त कभी निराश होकर नहीं जाता है दाता हर सच्चे मन से आए हुए भक्तों की इच्छा पूरी करते हैं मनधर गांव में भी इनका देवरा बना हुआ है जहां पर हर मास की आठ्म (अष्टमी शुक्ल पक्ष) व दशमी शुक्ल पक्ष को मेला लगता है व दुःखी व पीड़ित लोगों की सच्चे मन से की गई हर मनोकामना पूरी होती है।

वचन भोम हित जुझीयों,कणवंती करणोत । गूंजे गौरव गीतड़ा, जागी कण-कण जोत ॥ (सूरदास बारहठ)


राव भोजाजी लोल के बखान में लिखे गए दोहे जो उनके साथ में रहने वाले क्षत्रिय कवि सूरदास बारहठ द्वारा रचित हैं । वचन भोम हित जुझीयों,कणवंती करणोत । गूंजे गौरव गीतडा , जागी कण-कण जोत ।।

रुद्र रूप रण रीढ़ में, सब शूरा सिरमौर । गंगाबाई सिमरीयों, थने रंग हो भोजा लोल ।।

शस्त्र बहे सुता रहे, रहती रण में राज । रात दिवस बांकी रहे, थने रंग हो नागौरी तलवार ।।

उजड़ चाले उतावली , दिन देखे नीं रात । रहती भोजा रे साथ में, थने रंग हो लीलण रंग ।।

भोजा थारी धड़क सू, जोधोणो धरराएँ । मुठ मरोड़ी मुछ री, भीमसेन घबराएं ।।

काऊ करू भोजा थारा वखाण सूर्य सो तेज प्रकाश लीलण उभी ठरका करे मुठ नागौरी तलवार ।।

सूरा अमल गालता,पटियाली जाजम ढाल । पहलो हथलेवो सेवाड़ा धणी ने,दूजो हथलेवो आप ।।


संकलन कर्ता - राव छैल सिंह लोल

राव भोजराजसिंह जी लोल का इतिहास[संपादित करें]

राव भोजराजसिंह (भोजाजी) लोल का इतिहास (1517-1570) ईस्वी सन् जन्म - माघ शुक्ल अष्टमी वि. सं. 1574 सती दिवस - भाद्रपद शुक्ल अष्टमी वि. सं.1627

‘’मारवाड़ के एकमात्र बारवटिया सिरदार व पुरुष सती के रूप में प्रसिद्ध’’ बाण तू ही ब्राह्मणी,माँ बायण सू विख्यात । सूर संत सुमरे सदा, भोजो लोल है मात ॥

मारवाड़ के एकमात्र ‘’बारवटिया सिरदार’’ शिव भक्त,महान योद्धा,पुरुष सती,अजय योद्धा व सिरोही फौज के आपातकालीन सेनापति (एकवलिया की पदवी से सुशोभित जो सौ शूरवीरों के बराबर होता था उसे एकवलिया की पदवी मिलती थी) के रूप में प्रसिद्ध राव भोजाजी(भोजराज सिंह) लोल मनधर गाँव(तहसील - जसवंतपुरा, जिला - जालोर, राजस्थान) के निवासी थे इनका जन्म माघ शुक्ल अष्टमी (आठम) विक्रम संवत 1574 (सन् 1517) को इनके ननिहाल के गाँव बूटड़ी में इनके नानोसा अखाजी बूटरेचा के घर हुआ था इनके पिता का नाम रायमलजी लोल व माता का नाम गंगा बाई था । इनके के पिताजी रायमलजी लोल ने दो शादियाँ की थी – प्रथम कोल्हापुर(हाल कोरटा,पाली) निवासी वीरमजी चौहान के यहाँ लीलाबाई के साथ जिनसे कोई संतान नहीं थी व दूसरी शादी – बूटड़ी निवासी अखाजी बूटरेचा की पुत्री गंगाबाई के साथ जिनके दो संतान हुई बड़े राव रणछोड़जी लोल व छोटे राव भोजाजी लोल । राव रायमलजी लोल के बड़े भाई जयमलजी लोल थे जिनके वंशज आज मनधर गाँव मे लोल वंशीय राव परिवार के नाम से जाने जाते है । राव भोजाजी लोल बचपन से ही बड़े शूरवीर,जुझारू व परोपकारी स्वभाव के धनी थे एवं कुल देवता पातालेश्वर महादेव, सेवाड़ा(रानीवाडा) व चितोड़ की धणीयाणी माँ ब्राह्मणी के परम भक्त थे । बाल्यकाल में राव भोजाजी लोल शिकार के बड़े शौकिन थे जिसे वे ड़ोरा पर्वत की पहाड़ियों में अपने साथियों के साथ तीर-कमान से अपने पिताजी की घोड़ी ‘रेवती’ पर सवार होकर सूअरों का शिकार किया करते थे तीर–कमान के अलावा वे तलवारबाजी में बड़े पारंगत थे तलवार बाजी में बड़े बड़े योद्धा भी उनसे मात खा जाते थे ।

विवाह (केवल फेरे हुए थे गौना(मुकलावा) नहीं हुआ)

राव भोजाजी लोल के परोपकारी स्वभाव,शूरवीरतापूर्ण कार्य व आध्यात्मिक प्रकृति के कारण इनकी प्रसिद्धि बढ़ने लगी व इनके बहादुरी के किस्से जब घरवालों तक पहुंचे तो घरवालों ने इनके सांसारिक जीवन पर खतरा मंडराते देख इनका विवाह करने का निर्णय ले लिया । पिता रायमलजी लोल ने इनकी सगाई गांव बगसड़ी(चितलवाना) निवासी लाखाजी जलसर की पुत्री गीताबाई के साथ कर दी तथा बाल्यावस्था में ही मात्र 13 वर्ष की उम्र मे ही राव भोजाजी लोल की शादी गीताबाई के साथ करवा दी गई पर इस शादी मे केवल फेरे हुए थे क्योकि छोटी उम्र के कारण गौना(मुकलावा) नहीं करवाया था । इनके जीवन पर विवाह का कोई प्रभाव नहीं हुआ और बढ़ती उम्र के साथ उनकी शूरवीरता व परोपकारिता का स्वभाव परवान चढ़ने लगा व अपने जनकल्याणकारी कार्यों के लिए पहचाने जाने लगे व इनकी शूरवीरता के सामने तानाशाही शासक व सामंत वर्ग में खौफ व डर फ़ेल गया था क्योकि भोजराजसिंहजी लोल निर्बल व कमजोर वर्ग की सहायता व मदद के लिए अन्यायकारी व अत्याचारी शक्तियों के खिलाफ आवाज उठाते थे । इनका मन परोपकारी होने के कारण जनकल्याण कार्यों में इतना रम गया था की जब इनकी उम्र 18 वर्ष को पार कर गई तो घर व ससुराल में इनके गौने(मुकलावा) की बात होने लगी तो इन्होने घरवालों से साफ मना कर दिया कि मेरे संघर्षपूर्ण आध्यात्मिक जीवन में अबला नारी को शामिल मत करो पर घरवाले नहीं माने तो इन्होने गौना करवाने से पहले ही 18 वर्ष कि उम्र में गृह-त्याग कर दिया व खोडिया महादेव(खोड़ेश्वर) के पहाड़ों में चले गए व ‘’बारवटिया सिरदार’’ की उपाधि धारण कर ली पर माता गंगाबाई का आशीर्वाद लेने महिने में एक-दो बार अपने पैतृक गाँव मनधर आया करते थे या कभी बाहर प्रवास पर जाते थे तो माँ गंगाबाई का आशीर्वाद लेने गाँव मनधर जरूर आते थे | जब इनके गृह-त्याग की बात इनके ससुराल तक पहूँची व गीताबाई(पत्नी) को इस बात की जानकारी मिली तो गीताबाई ने एक बार मिलने आने की बात का संदेश भेजा । साहेब एक वार मलवा आवों, गीताबाई करे पुकार ‘’तज चंदवाणी चाल, हवी लोलवाणी हवे म्हारा भव-भव ना भरतार,माथों मत धुणो लोलेसा’’ ‘’मन ती मोनिया म्हारा भव-भव ना भरतार बीजे परणु तो लागू थोरी दिकरी’’ पर जब गीताबाई के संदेश को इन्होने ‘’बारवटिया सिरदार’’ का हवाला देकर मिलने से मना कर दिया था ‘’गीता मत कर पुकार, किजू मू बारवटिया सिरदार’’(क्योकि ‘’बारवटिया सिरदार’’ माँ-बहन को छोड़कर सम्पूर्ण नारी जाति का त्याग कर देते थे) । जब उनकी पत्नी गीताबाई को यह संदेश मिला कि उन्होंने मिलने से मना कर दिया है क्योंकि वे बारवटिया सिरदार बन गए हैं तो गीताबाई ने पुनः संदेश भेजा और उस संदेश में यह बात कही कि यदि आप एक बार मिलने नहीं आए तो मैं आत्मदाह कर लूंगी | जब उन्हे आत्मदाह करने का संदेश मिला तो उन्हें बड़ा दुख हुआ क्योंकि वे एक सच्चे शूरवीर थे तथा एक शूरवीर की वजह से नारी का आत्मदाह होना वे घोर अन्याय मानते थे क्योंकि वे स्वयं अन्याय व अत्याचार के विरोधी थे तो वे एक अन्याय का कारण खुद कैसे बन सकते थे अतः एक नारी के प्राण बचाने की खातिर वे अपने ससुर लाखाजी जलसर के घर अर्थात अपने ससुराल बगसड़ी जाते हैं तथा अपनी पत्नी गीताबाई से केवल नेत्र मिलन अर्थात केवल आंखों से बात हुई जिस पर गीताबाई ने कहां था – नेण मदारस नेण रस, नेण सू नेण मिलत । अजाणा सू प्रितडी, नेण सू नेण करत ॥

उनका रूप भी बड़ा शूरवीरो वाला था लंबा कद, बड़ी-बड़ी मूछें, बड़ी ललाट, हष्ट-पुष्ट शरीर जिसे देखकर उनकी पत्नी गीताबाई ने अपनी सहेलियों से अपने पति के रूप का कुछ इस अंदाज में वर्णन किया था ‘वाहे फड़के मुछडीयो रैयण झबूके दंत, अरे जोयलो पटोलावालियों म्हारो लोबड़ीयानो कंत’ इस प्रकार भोजराज सिंह जी लोल ने अपनी बारवटिया सिरदार की उपाधि का मान रखते हुए व अपनी पत्नी से केवल नेत्र मिलन की भेंट कर वापस अपने गांव मनधर लौट आए उधर उनकी पत्नी गीता बाई ने भी क्षत्राणी का धर्म निभाते हुए आजीवन अन्न का त्याग कर दिया था व शेष जीवन ब्रह्मचर्य व्रत का पालन करते हुए पातालेश्वर महादेव की भक्ति की थी व अपना जीवन पति के नाम समर्पित कर दिया था वह एक क्षत्राणी के रूप में अमर हो गई बारवटिया सिरदार

            उन्होने 18 वर्ष की उम्र में घर छोड़ दिया था तथा खोड़िया महादेव के पहाड़ों में खोड़िया महादेव यानी खोड़ेश्वर के चरणो में रहकर दिन दुःखी लोगों की, तानाशाही शासक,सामंत वर्ग से रक्षा करने लगे तथा अपना जीवन जनकल्याणकारी कार्यों में समर्पित कर दिया व गृह त्याग कर बारवटिया सिरदार की उपाधि धारण कर ली थी जो व्यक्ति जन कल्याण हेतु गृह त्याग कर अपनी मां व बहन के अतिरिक्त अन्य नारी या स्त्री का पूर्णतया त्याग कर देता था व ब्रह्मचर्य व्रत का पालन करते हुए अपना जीवन व्यतीत करता था बारवटिया सिरदार कहलाता था जो अपने मन का मालिक हुआ करता था भोजराजसिंह जी लोल मारवाड़ क्षेत्र से एकमात्र ऐसे बारवटिया सिरदार थे कि उनके बाद किसी ने भी संपूर्ण मारवाड़ क्षेत्र से आज तक बारवटिया सिरदार की उपाधि धारण नहीं की । तत्कालीन समय में मेवाड़ क्षेत्र से एकमात्र बारवटिया सिरदार कल्ला जी राठौड़ थे जो मेवाड़ सेना के महान सेनापति जयमल मेड़तिया के भतीजे थे कल्ला जी राठौड़ मूलतः मारवाड़ के मेड़ता क्षेत्र से थे पर उन्होंने मारवाड़ से परित्याग कर मेवाड़ सेना से जुड़ गए थे इसलिए वे मेवाड़ के बारवटिया सिरदार के रूप में जाने जाते थे जो भोजराज सिंह जी लोल से उम्र में 25 वर्ष छोटे थे तथा अल्प आयु में ही मुगलों से युद्ध करते हुए अपने काका जयमल मेड़तिया को अपने कंधों पर बिठाकर युद्ध करते हुए वीरगति को प्राप्त हुए थे इस प्रकार मारवाड़ से राव भोजाजी लोल व मेवाड़ से कल्ला जी राठौड़ मात्र दो समूचे राजस्थान में इतिहास प्रसिद्ध बारवटिया सिरदार हुए हैं 

24 योद्धाओं का भोजा जी से जुड़ना

            राव भोजाजी लोल की शूरवीरता की ख्याति चारों और फैलने लगी व इनकी ख्याति गुजरात तक पहुंच गई जो बारवटिया सिरदार शब्द मुलत गुजराती शब्द हैं जिसका शाब्दिक अर्थ होता है घर का त्याग करना इस प्रकार जब राव भोजाजी लोल की प्रसिद्धि गुजरात तक पहुंची तो  इनके शूरवीरतापूर्ण स्वभाव से प्रभावित होकर गुजरात के मेहसाणा नामक गांव से जो आज एक बड़ा नगर हैं 13 योद्धा जो राव जाति(ब्रहम भट्ट) से थे इनके साथ जुड़ गए जिसमें एक सूरदास बारहठ नामक योद्धा भी था जो एक कवि भी था इधर 11 योद्धाओं की एक टुकड़ी लोहियाणागढ़ के राजपूत योद्धा भी इन से जुड़ गए इस प्रकार राव भोजाजी लोल के साथ हमेशा इन 24 बहादुर योद्धाओं की एक टुकड़ी रहती थी जो खोडिया महादेव व जागनाथ महादेव लोहियाणागढ़ की पहाड़ियों में स्थित है के चरणों में निवासरत रहते थे पर राव भोजा जी लोल अपनी माता गंगाबाई से मिलने अपने गांव मनधर अकेले आते थे राव भोजाजी लोल ने बारवटिया सिरदार बनने के बाद अपनी सवारी हेतु लीलण नाम की घोड़ी कोल्हापुर(हाल कोरटा, पाली) देवडो के यहां से लूट कर लाई थी जो बड़ी स्वामी भक्त व वफादार थी इनके हाथों में मुठ की शोभा नागौरी तलवार के साथ होती थी जो 8  फिट लंबी थी

मां ब्राह्मणी का आशीर्वाद प्राप्त हुआ

राव भोजा जी लोल कुलदेवी मां ब्राम्हणी के परम भक्त थे उनकी अनन्य भक्ति व परोपकारीता से प्रसन्न हो मां ब्राह्मणी का आशीर्वाद व साक्षात्कार इन्हें 24 वर्ष की आयु में हुआ था तथा मां ब्राह्मणी से साक्षात्कार होने के बाद इन्होंने शिकार करने के अपने शौक को छोड़ दिया था वह पूरी तरह से आध्यात्मिक हो गए थे

मेवाड़ प्रशासक बनवीर की फौज को लूटना 1537 (ईस्वी सन्) एक बार राव भोजा जी लोल अपने 24 बीरवर योद्धाओं के साथ मां ब्राह्मणी के दर्शन कर चितौड़ से वापस लौट रहे थे जब वे आसींद के जंगल में पहुंचे तो रात के अंधेरे में उन्हें मशाले जलती हुई दिखाई दी तो उन्होंने पास जाकर देखना जायज समझा कि कहीं कोई अनैतिक या अन्यायपूर्ण कार्य तो नहीं हो रहा या कोई अनहोनी घटना तो नहीं घटी जब वे जलती हुई मशालो के पास पहुंचे तो देखा कि एक सेना सैकड़ों तंबुओं में अपना पड़ाव डाले हुए थी जब प्रथम तंबू के बाहर खड़े सैनिकों से भोजाजी लोल ने पूछा कि इन तंबुओं में विश्राम कर रही फ़ौज किस शासक की है चूंकि समस्त फौज उस समय मदिरा के नशे में मस्त थी तो बनवीर के सैनिकों ने अकड़ कर जवाब दिया कि यह फौज तो मेवाड़ के प्रशासक बनवीर की है बनवीर का नाम सुनते ही राव भोजाजी लोल का खून खोल उठा क्योंकि बनवीर की तानाशाही के चर्चे उस समय आमतौर पर व्याप्त थे इस बात से राव भोजाजी लोल भलीभांति परिचित थे तथा राव भोजाजी लोल ने सूरदास बारहठ से भी सलाह मशविरा किया तो सूरदास बारहठ ने कुछ इस तरह जवाब दिया ‘सूरदास बारहठ अर्ज करें भोजा लुटे रे बनवीर रे वाली फौज ‘ सूरदास बारहठ की सलाह पर राव भोजाजी लोल ने बनवीर के सैनिकों से उनके शस्त्रागार वाले तंबू के बारे में पूछा तो सैनिक उन्हें आम राहगीर समझकर उसे तंबू की ओर इशारा कर दिया जिसमें शस्त्र रखे हुए थे इशारा मिलते ही राव भोजाजी लोल ने अपने 24 योद्धाओं के साथ उस तंबू पर हमला बोल दिया उस तंबू में 20 सैनिक शस्त्रों की सुरक्षा में थे तंबू पर अचानक हुए इस हमले से बनवीर के सैनिक समझ भी नहीं सके कि क्या हुआ इसलिए वे इस हमले में घायल होकर दूसरे तंबू की ओर भागे जब तक बनवीर की पूरी फौज संभलती तब तक राव भोजाजी लोल की टुकड़ी बनवीर की फौज के आरक्षित शस्त्रों को लूट कर आगे बढ़ गई गोगुंदा में राजदान चारण के गायों को अफगानी फौजी से छुड़ाया बात सन् 1541 की जब राव भोजाजी लोल अपने 24 योद्धाओं के साथ मां ब्राह्मणी के दर्शन कर चित्तौड़ से लौट रहे थे तब वे गोगुंदा नामक गांव में से होकर गुजर रहे थे उसी दिन उस गांव के राजदान नामक चारण की गायों को अफगानी फौज की 60 आदमियों की टुकड़ी ने लूट ली थी तब राजदान चारण की नजर वहां से गुजर रही राव भोजाजी लोल की टुकड़ी पर पड़ी तो टुकडी के आगे चल रहे राव भोजाजी लोल की मूछों का ताव देखकर राजदान चारण ने सोचा जरूर कोई शूरवीर है अतः राव भोजाजी लोल की घोड़ी लीलण के आगे आकर विनती करने लगा ‘रेवत रोको थे शूरा आपरा अर्ज करे हैं थाने चारण राजदान किसा गढ़ो रा कीजो राजवी किसा नामा सू थारी ओलखाण पाछी ल्यावों थे म्हारी गावडली ज्यानें ने लूटी है फौज अफगान मारवाड़ रो कीजू बारवटियो सिरदार भोजा लोल नामा सू म्हारी ओलखाण मत कर चारण थू यूं पुकार जावू मैं गौ माता रे वार अर लडू मू फौज अफगान । राजदान चारण के मुख से गौ माता के लूटने की बात सुनते ही राव भोजाजी लोल का खून खोल उठा वह अपने 24 शूरवीर योद्धाओं के साथ अफगानी फौज का पीछा किया तो रास्ते में स्थित राणेराव तालाब की पाल पर स्थित सती माता ‘राठौड़ रानी’ को नमन कर साथ देने का आशीर्वाद प्राप्त कर आगे बढ़े व गायों को ले जा रही अफगानी फौज पर भूखे शेर की भांति टूट पड़े तो इनके पराक्रम के आगे अफगानी फौज भागने लगी फिर भी भागती हुई अफगानी फौज के 2 सैनिकों को मौत के घाट उतार दिया जबकि अन्य 58 अफगानी सैनिक गायों को छोड़कर भाग गए व इस प्रकार राव भोजाजी लोल ने अफगानी फौज से गायों की रक्षा की । सिरोही शाही फौज का सेनापति बनने का निमंत्रण मिला जब राव भोजाजी लोल की शूरवीरता व बहादुरी पूर्ण कार्यो की बातें सिरोही के तत्कालीन शासक अखेराज देवड़ा तक पहूँची तो उन्होने राव भोजाजी लोल को सिरोही की शाही फौज मे सेनापति बनने का निमंत्रण भेजा तो राव भोजाजी लोल ने अखेराज देवड़ा का निमंत्रण सहर्ष स्वीकार कर लिया जो इस शर्त पर की बारवटिया सिरदार होने के कारण केवल आपातकालीन युद्ध स्थिति उत्पन्न होने पर युद्ध का नैतृत्व करने हेतु सेनापति बनना स्वीकार किया (1542ई.) जो राव भोजाजी लोल की इच्छा पर निर्भर था । इस प्रकार सन् 1542 मे आप सिरोही की शाही फौज से जुड़ गये तथा सन् 1570 तक सिरोही की शाही फौज से जुड़े रहे (राव सुरताण देवड़ा के शासनकाल तक ) कई मौके पर सिरोही फौज मे उनकी शूरवीरता,पराक्रमी कार्य व युद्ध कौशल को देखकर सिरोही शासक अखेराज देवड़ा ने उन्हे एकवलिया की उपाधि से नवाजा था एकवलिया अर्थात् जो सौ शूरवीरों के समान या बराबर बल वाला योद्धा जिसे काठियावाड गुजरात मे एका व मारवाड़ क्षेत्र मे विशेषकर सिरोही रियासत मे उसे एकवलिया के नाम से जाना जाता था अजेय योद्धा - राव भोजाजी लोल अपने सम्पूर्ण जीवन काल मे एक अजेय योद्धा के रूप मे प्रसिद्ध रहे और सिरोही फौज से जुडने के बाद (1542-1570) राव भोजाजी लोल ने सिरोही फौज की और से जिस किसी भी युद्ध मे भाग लिया व उसका नैतृत्व किया वह युद्ध सिरोही फौज कभी नही हारी | सिरोही फौज के नेतृत्व करने के अलावा एक बारवटिया सिरदार के रूप मे इन्होने जिन जिन तानाशाहों के खिलाफ आवाज उठाई वहाँ पर हमेशा इनकी जीत रही इसलिए राव भोजाजी लोल एक अजेय योद्धा के रूप मे प्रसिद्ध है | जालौर शासक मजूद खान पठान को बंदी बनाया (1544) बात सन् 1544 की है जब राव भोजाजी लोल सिरोही की फौज से जुड़ चुके थे व अपने पराक्रम व शूरवीरता के कारण अखेराज जी देवड़ा के द्वारा एकवलिया की पदवी से नवाजे जा चुके थे पर सिरोही रियासत की फौज मे उन्हे सेनापति का ओहदा प्राप्त था जो युद्धकालीन स्थिति मे उन्हे निमंत्रण भेजा जाता था जो उनकी इच्छा पर निर्भर था उन्हे बाध्य नही किया जा सकता था क्योकि वे मारवाड़ के एकमात्र बारवटिया सिरदार की उपाधि को धारण किए हुये थे सिरोही के तत्कालीन शासक (अक्षयराज) अखेराज देवड़ा थे जबकि जालोर गढ़ पर मुस्लिम शासक मजूद खान पठान राज कर रहा था | अखेराज देवड़ा ने जालोर गढ़ से मुस्लिम राज खत्म कर वहाँ पर सिरोही गढ़ की पताका फहराने की योजना बनाई तथा इस युद्ध मे सेनापति की ज़िम्मेदारी देने हेतु राव भोजाजी लोल को निमंत्रण भेजा गया जब सिरोही का निमंत्रण राव भोजाजी लोल को मिला तो वे अपने सबसे भरोसेमंद योद्धा व कवि सूरदास बारहठ के साथ सिरोही के लिए अपनी लीलण पर सवार होकर पहुंचे व अखेराज देवड़ा के दरबार मे उपस्थित हुए खम्मा घणी म्हारा देवड़ा रा राय ने राव भोजो लोल थाने अर्ज करे पधारो म्हारा एकवलिया सिरदार पधारो म्हारा मारवाड़ रा बारवटिया सिरदार तेड़ाया थाने सिरोही गढ़ रे काज जावणु घेरवा थाने जालोर गढ़ राज हाकजो थे रोणो मीणों नी फौज राखजो थे सिरोही गढ़ री लाज इस युद्ध मे सिरोही की ओर से 8000 सिपाही शामिल थे जिन्होने 2000 – 2000 की चार टुकड़िया मे बाँट दिया था जालोर गढ़ पर तीन दिशाओ से हमला करने की योजना बनाई जबकि चौथी टुकड़ी अखेराज देवड़ा के साथ आरक्षित रखी गई जो जालोर गढ़ की तलहटी पर मौजूद थी । राव भोजाजी लोल को 2000 भील – मीणों की बहादुर फौज का नेतृत्व करने की ज़िम्मेदारी सौपीं गई जो कठिन से कठिन स्थितियो मे भी जीत हासिल करणे मे पारंगत थी तथा राव भोजाजी लोल को जालोर गढ़ पर पश्चिम दिशा से हमला करने की ज़िम्मेदारी सौपीं गई जो सबसे दुर्गम व दुष्कर रास्ता था पर राव भोजाजी लोल ऐसे दुर्गम व दुष्कर रास्तों व मंजिलों को फतह करने में पारंगत थे एक अन्य टुकड़ी का नेतृत्व खानवा के रागाजी देवड़ा कर रहे थे जो वीर व पराक्रमी थे जालौर की पठानी सेना किले में ऊपर थी वह पहाड़ों में छिपकर हमले करने में पारंगत थी इसलिए इस युद्ध में जालौर की स्थिति मजबूत लग रही थी पर सिरोही की फौज प्रतिकूल स्थिति में होने के बावजूद अपने राजपूती जोश व जज्बे के साथ लड़ते हुए आगे बढ़ रही थी राव भोजराज सिंह लोल व सूरदास बारहठ शूरवीरता व पराक्रम के साथ लड़ते हुए आगे बढ़ रहे थे पर रास्ता दुर्गम होने के कारण राव भोजाजी लोल की टुकड़ी के सैनिक काफी पीछे रह गए जबकि राव भोजाजी लोल व सूरदास बारहठ 26 भील-मीणा योद्धाओं के साथ आगे बढ़ रहे थे टुकड़ी के बाकी सभी सैनिकों के पीछे रह जाने के कारण राव भोजाजी लोल व सूरदास बारहठ अपने 26 भील-मीणा योद्धाओं के साथ 500 पठानी सैनिकों से घिर जाते हैं तथा पठानी सेनानायक अपनी मजबूत स्थिति को देखकर राव भोजाजी लोल से हथियार डालकर समर्पण करने के लिए कहता है तो राव भोजाजी लोल के द्वारा दिए गए जवाब को सूरदास बारहठ ने अपनी काव्य शैली में इस तरह कहा ~ पहलो हाथ मुछे ,बीजो तलवारे तवाव हवे हद जो त्रिजों हाथ, तो पण नर धणियों ने नमत नी, अर्थात भोजा का पहला हाथ मुछों पर है तथा दूसरे हाथ में नागौरी तलवार है पर अब यदि तीसरा हाथ भी आ जाए तो भी किसी के सामने नमन नहीं करेगा | इतना कहकर राव भोजाजी लोल ने माँ ब्राह्मणी को याद किया - चितौड़ री धणीयाणी माँ आवे भोजा रे पागडे लड़नु म्हारे पठानों वाली फौज सू । मां ब्राह्मणी का आशीर्वाद पाकर राव भोजाजी लोल दुश्मनी फौज पर भूखे शेर की तरह टूट पड़े व इस युद्ध में राव भोजाजी लोल ने ऐसा रूद्र रूप धारण कर लिया कि पठानी फौज के योद्धाओं को कवच सहित गाजर मूली की तरह काट रहे थे और मात्र सवा घंटे में इन्होंने दुश्मनी फौज के 350 सिपाहियों को मौत के घाट उतार दिया व शेष सैनिक भोजाजी का पराक्रमी रूद्र रूप देखकर रणभूमि से भाग खड़े हुए राव भोजाजी लोल के इस प्रकार के रूद्र रूप का वर्णन सूरदास बारहठ जो उस समय उनके साथ था ,ने अपनी काव्य शैली में कुछ इस प्रकार किया अड पड़े राव भोज पठान सू महा सिंग चूक कट जात शिश कट टूक-टूक फट जात कहिंक फे फराफर हट जात कहींक कायर हजार उद्यन्त शीश पड़ते कपन्त धड़-धड़ खन्ञ्च मचवायें दंत सूरदास बारहठ भी इस युद्ध में गंभीर घायल हो जाते हैं राव भोजाजी लोल उन्हें अपनी घोड़ी लीलण पर ले लेते हैं तथा स्वयं भी घायल अवस्था में होने के बावजूद भी पराक्रमी रण कौशल दिखाते हुए आगे बढ़ते रहते हैं पर इनके साथ में जो 26 भील मीणा योद्धा थे वे सब वीरगति को प्राप्त हो जाते हैं जबकि राव भोजाजी लोल सूरदास बारहठ को साथ लिए जालौर के गढ़ में प्रवेश कर लेते हैं उधर दूसरी तरफ से रागा जी देवड़ा भी अदम्य साहस का परिचय देते हुए लगभग 100 आदमियों को मौत के घाट उतार कर गढ़ में प्रवेश करते हैं इन दोनों को गढ़ में प्रवेश करता देख जालौर शासक मजूद खा पठान अपने कुछ सैनिकों के साथ वहां से भागने लगता है तो घायल अवस्था में होने के बावजूद राव भोजाजी लोल व रागा जी देवड़ा मजुद खा पठान का पीछा करते हैं तो पठानी सैनिक भोजाजी लोल व रागाजी देवडा़ का पीछा करते है व पीछे से वार कर दोनों को घायल कर देते है पर घायलावस्था में होने के बावजूद भोजाजी लोल पीछे से आए पठानी सैनिकों को मौत के घाट उतार देते है व पुनः मजूद खां का पीछा कर उसके साथी पठानी सैनिकों को मौत के घाट उतार कर मजूद खां को पकड़ लेते हैं व उसे बंदी बना लेते हैं तथा पुनः जालौर गढ़ में ले आते हैं और मजूद खा पठान के बंदी बनाने की सूचना तलहटी पर खड़े अखेराज देवड़ा तक पहुंचाई जाती है तब अखेराज देवड़ा जालौर गढ़ में पहुंचकर वहां पर सिरोही राज की पताका फहराते हैं पर इस खुशी के क्षण में वीर सेनापति रागाजी देवड़ा जो दूसरी टुकड़ी का नेतृत्व कर रहे थे अधिक घायल होने के कारण वीरगति को प्राप्त हो जाते हैं जहां अखेराज देवड़ा द्वारा रागाजी देवड़ा को रोणाजी देवड़ा की उपाधि से सम्मानित किया जाता है तथा मजूद खा पठान को बंदी बनाकर अपने साथ सिरोही ले गए जबकि राव भोजाजी लोल वहां से सीधे सूरदास बारहठ के साथ खोडीया महादेव के चरणों में आ गए थे इस युद्ध में सिरोही फौज के 3500 योद्धा वीरगति को प्राप्त हुए थे जिसमें से 650 भील-मीणा योद्धा जो राव भोजाजी लोल की टूकड़ी में शामिल थे वीरगति को प्राप्त हुए थे जो अन्य दो टुकड़ियों के मुकाबले बहुत कम थे दूसरी तरफ पठानी सेना के मरने वाले सैनिकों की संख्या लगभग 5000 से अधिक थी । इस प्रकार राव भोजाजी लोल व रागाजी देवड़ा के अदम्य साहस व पराक्रम के कारण एक दुर्गम व दुष्कर पहाड़ी पर स्थित जालौर गढ़ को जीत लिया था जबकि जीतने के अवसर जालौर गढ़ के अधिक थे पर इन दोनों पराक्रमी योद्धाओं के कारण जालोर को हार का मुंह देखना पड़ा था।

गुजरात बादशाही सेना को परास्त किया सन 1546-47 में जब गुजरात के बादशाह की सेना हफीज खा के नेतृत्व में अपने 20000 सैनिकों के साथ चित्तौड़ पर आक्रमण करने के लिए सिरोही से होकर गुजर रही थी तब राव भोजाजी लोल सिरोही में ही थे जब इस बात की खबर राव भोजाजी लोल को हुई तो अपने अधीनस्थ भील-मीणा योद्धाओं की टुकड़ी को लेकर गोयली गांव के पास हफीज खा का रास्ता रोककर उनसे युद्ध किया जिसमें बादशाही सेना के सेकड़ों सिपाही मौत के घाट उतार दिए गए तथा राव भोजाजी लोल के नेतृत्व में भीलों-मीणों की बहादुर टुकड़ी के पराक्रमी युद्ध कौशल के आगे मुस्लिम सेना की एक न चली और अंततः भोजराजजी के आगे हफीज खां को पराजित होकर उसे वापस गुजरात लौटना पड़ा था ।

खिमतगढ़(गुजरात) में पावली नामक कर बंद करवाया सन 1551 की बात है राव भोजाजी लोल अपनी लीलण नामक घोड़ी पर सवार होकर गुजरात स्थित सोमनाथ महादेव के दर्शन करने हेतु अकेले रवाना होते हैं जब यात्रा के दौरान खिमतगढ़ की सरहद पर पहुंचे तो वहां के पहरेदार ने उन्हें रोक लिया और कहने लगा कि आप कौन हो व कहां जा रहे हो तब राव भोजाजी लोल ने कहा कि मैं मारवाड़ क्षेत्र के मनधर गांव का बारवटिया सिरदार हूँ व राव भोजा लोल मेरा नाम है तथा सोमनाथ महादेव की यात्रा पर जा रहा हूं इस पर पहरेदार ने कहा कि हमारे ठाकुर हीरचंद कोली का नियम है कि जो कोई हमारी सरहद से होकर गुजरता है उसे सात पावली स्वर्ण की कर के रूप में देनी पड़ती है अतः नियमानुसार आपको भी 7 पावली स्वर्ण की कर के रूप में देनी होगी तब राव भोजाजी लोल ने पहरेदार से कहा कि मैं तो स्वयं बारवटिया सिरदार हूँ तथा तानाशाह से ऐसे कर बंद करवाता हूं जाओ जाकर अपने ठाकुर से कह दो कि मारवाड़ क्षेत्र से राव भोजाजी लोल नामक एक बारवटिया सिरदार आया है जो कर देने से मना कर रहा है जब ठाकुर तक यह बात पहुंची तो तानाशाही शासक हीरचंद कोली अपने 184 सिपाहियों की फौज के साथ वहां आ पहुंचा और कहने लगा कि यदि तुम्हें हमारी सरहद से गुजरना है तो सात पावली स्वर्ण कर के रूप में देना होगा या फिर हमसे युद्ध कर जीतना होगा पर राव भोजाजी लोल जब भी किसी देव दर्शनार्थ स्थल को जाते थे उस समय किसी प्रकार का खून-खराबा नहीं करते थे अतः उनके नियमानुसार उन्होंने उस ठाकुर के नहीं मानने पर उसे 7 पावली स्वर्ण के रूप में कर चुका कर उसे चेतावनी भी दी कि अभी तो मैं बाबा सोमनाथ के द्वार को जा रहा हूं इसलिए यह 7 पावली स्वर्ण कर के रूप में दे रहा हूं पर वापस आते वक्त तेरे प्राणों के साथ 14 पावली स्वर्ण वसूल ना करु तो मेरा नाम भोजाजी लोल नहीं । इतना कहकर राव भोजाजी लोल आगे बढ़े वह सोमनाथ पहुंचे तथा बाबा को प्रणाम कर बाबा को साथ देने की प्रार्थना कर वहां से वापसी में यह प्रण लिया कि जब तक खिमतगढ़ नहीं पहुंच जाऊं तब तक पानी नहीं पीऊँगा व रास्ते में कहीं घोड़ी नहीं रोकूंगा ।

खिमतगढ़ पहुंचकर सरहद पर आते ही सबसे पहले पहरेदार को खड़ा का खड़ा सीधा काटकर अपनी नागोरी शमशीर की प्यास बुझाई व घोड़ी लीलण को आँवल की झाड़ी से बांधकर रात के अंधेरे में हीरचंद कोली के गढ़ में प्रवेश कर गये तब हीरचंद की पत्नी राजलनार बीच में आ गई तो उन्होंने बारवटिया सिरदार का हवाला देकर राजलनार को अपने रास्ते से हटने को कहा तथा अपने पति को जगाने का कहा कि जाकर तेरे पति से कहो कि मारवाड़ क्षेत्र का बारवटिया सिरदार राव भोजाजी लोल अपने वचन के अनुसार हीरचंद कोली के प्राण व 14 पावली स्वर्ण मुद्रा लेने आया है अपने पति के प्राण लेने की बात सुनकर हीरचंद की पत्नी उनके सामने विलाप करने लगी वह अपने पति के प्राणों की भीख मांगने लगी तब राव भोजाजी लोल हीरचंद के शयन कक्ष में प्रवेश कर जाते हैं तथा उसे जगा कर उसे 14 पावली स्वर्ण कर देने का कहते हैं वह नागोरी पर हाथ रख म्यान में से बाहर निकालने को करते हैं तो पुनः राजलनार राव भोजाजी लोल के पैरों में गिरकर रोने लगती है वह अपने आपको धर्म की बहन बताकर एक बहन के सुहाग की भीख मांगती है तथा हीरचंद कोली भी राव भोजाजी लोल के पैरों में गिर कर अपने प्राणों की भीख मांगता है तथा 14 पावली स्वर्ण की बजाय 14 स्वर्ण मोहरे लाकर राव भोजाजी लोल के पैरों में रखकर वचन देता है कि खिमतगढ़ से गुजरने वाले राहगीर से अब किसी भी प्रकार का कर वसूल नहीं करूंगा तब राव भोजाजी लोल उसे प्राण दान दे देते हैं व 14 स्वर्ण  मोहरे लेकर व खिमतगढ़ में सदा के लिए पावली स्वर्ण के रूप में लिया जाने वाला कर बंद करवा कर अपने गृह क्षेत्र खोडिया महादेव की चरणों में आ जाते हैं ।

शरीर में स्वयं प्रज्वलित अग्नि से एकमात्र सती पुरुष के रूप में प्रसिद्ध घटना सन् 1569-70 की है तत्कालीन समय में मां सुंधा की तलहटी में दांतलावास नामक गांव एक बड़ा ठिकाना था जो आज भी इसी नाम से जाना जाता है तथा इस ठिकाने के तत्कालीन ठाकुर राणाजी देवल हुआ करते थे जिनकी पत्नी का नाम चंद्रावती था चंद्रावती ने राव भोजाजी लोल को अपना धर्म भाई बनाया हुआ था जो उस समय खोडिया महादेव की पहाड़ियों में अपने 24 योद्धाओं के साथ रहा करते थे ।

तत्कालीन समय में दांतलावास ठाकुर राणाजी देवल ने जोधपुर रियासत के खिलाफ सिरोही रियासत का साथ दिया था उस समय जोधपुर का शासक राव चंद्रसेन था जबकि सिरोही का शासक राव सुरताण देवड़ा था राव चंद्रसेन ने नाराज होकर दांतलावास ठिकाने पर सवा 21 मण स्वर्ण का जुर्माना लगाया था जिसे वसूल करने हेतु राव चंद्रसेन ने  भीमसेन के नेतृत्व में फौज भेजी थी पर तत्कालीन परिस्थिति में दांतलावास ठाकुर राणाजी देवल उस जुर्माने को अदा करने की स्थिति में नहीं थे बावजूद भीमसेन ने उन्हें जुर्माना चुकाने हेतु बाध्य किया जब वह नहीं माना तो राणाजी देवल ने मालवाड़ा ठाकुर मालमदेवजी व बड़गांव ठाकुर रायदास जी को गवाही देने हेतु आमंत्रित किया था पर भीमसेन जुर्माना वसूलने के अपने फैसले पर अड़ा रहा तब राणाजी देवल की पत्नी चंद्रावती ने अपने धर्म के भाई राव भोजाजी लोल को संदेश भेजा और कहलवाया कि भाई अब तो आपकी बहन चंद्रावती की लाज आपके हाथ हैं  । 

बहन चंद्रावती का संदेश मिलते ही राव भोजाजी लोल ठाकुर राणाजी देवल के गढ़ में पहुंच गए तथा भीमसेन को विश्वास दिलाया कि 11 महीने पूर्ण होने पर राणाजी देवल इस जुर्माने को अदा कर देंगे और यदि 11 महीने की समाप्ति के बाद यह जुर्माना राणाजी देवल नहीं चुकाते हैं तो यह जुर्माना हम तीनों(मालमदेव जी,रायदास जी व राव भोजाजी लोल) चुकाएंगे । तब भीमसेन वापस जोधपुर लौट गया पर जब 11 महीने पूर्ण हो गए तो भीमसेन पुनः अपनी फौज लेकर गढ़ दांतलावास पहुंचा पर फौज को आता देख राणाजी देवल मां सुंधा के पहाड़ों में चले गए थे क्योंकि सवा 21 मण स्वर्ण (जुर्माना) का बंदोबस्त नहीं हो पाया था। राणाजी देवल के इंतजार में भीमसेन की फौज दो दिन तक दांतलावास गढ का घेरा डालें रही पर राणाजी देवल 2 दिन बाद भी गढ़ में नहीं लौटे तो भीमसेन ने अपने सैनिकों को उन तीनों गवाहों को बुलाने भेजा जिसमें राव भोजाजी लोल, रायदास जी व मालमदेव जी शामिल थे । उस समय राव भोजाजी लोल अपनी माता गंगाबाई से मिलने मनधर गए हुए थे जब सैनिक मनधर पहुंचे तो राव भोजाजी लोल दांतलावास में घटित वाकया कोभांप गए | राव भोजाजी लोल ने माँ गंगाबाई को गढ़ दांतलावास जाने का कहकर अपनी घोड़ी लीलण पर सवार हो गढ़ दांतलावास पहुंच गए उस समय दोनों अन्य गवाह रायदास जी व मालमदेव जी भी पहुंच गए थे जब तीनों गवाह वहां पर एकत्रित हुए तो तीनों ने भीमसेन को 1 दिन और राणाजी देवल का इंतजार करने के लिए कहा तो 1 दिन और इंतजार किया उधर मनधर गांव में माता गंगाबाई को चिंता होने लगी कि राव भोजाजी लोल को गए हुए पूरा 1 दिन बीत चुका था पर वापस नहीं आए थे अतः माता गंगाबाई ने मनधर गांव के मेघवाल रोमा जी रांगी के पुत्र समेला जी रांगी जो दांतलावास के जमाई भी थे को भोजाजी लोल के बारे में पता लगाने हेतु दांतलावास भेजा गया जब वे वहां पहुंचे तब तक भीमसेन ने तीनों गवाहों के हथकड़ी लगा दी थी व उन तीनों को राव चंद्रसेन के समक्ष ले जाने की तैयारी में थे तभी समेला राम जी रांगी भी वहां पहुंच जाते हैं तो उनके भी हथकड़ी लगा दी गई जब चारों को जोधपुर ले जाने के लिए रवाना हुए तब राव भोजाजी लोल का स्वाभिमान जाग उठा व मां ब्राह्मणी को याद किया तभी मां ब्राह्मणी के आशीर्वाद से राव भोजाजी लोल व समेलाराम रांगी की हथकड़ियां टूट गई व राव भोजाजी लोल भीमसेन के चंगुल से छूड़ाकर अपनी घोड़ी लीलण पर सवार होकर मनधर के लिए घोड़ी दौड़ा दी पर भीमसेन ने समेला राम रांगी को अपने साथ ले सेना सहित राव भोजाजी लोल का पीछा किया व दांतलावास व राजिकावास गांव की सरहद पर सागी नदी में राव भोजाजी लोल को भीमसेन की सेना ने घेर लिया पर उनके पास में आने की किसी की हिम्मत नहीं हुई । भीमसेन की सेना का यह घेरा तकरीबन एक से डेढ घंटे तक राव भोजाजी लोल के चारों ओर बना रहा पर जब भोजाजी लोल को उस घेरे में से सकुशल बाहर निकलने का मार्ग नहीं दिखा तो उन्होंने भीमसेन की सेना से मुकाबला करने का निर्णय लिया व मां ब्राह्मणी को याद किया - ‘आवे मां भोजा रे पागडे आवे मां भोजा रे डील में म्हारे लडनु है जोधाणा वाली फौज ती’ पर मां ब्राह्मणी ने राव भोजाजी लोल को जोधाणा की फौज पर वार(घाव) करने से मना किया

मत घाले भोजा घाव गादी कीजे जोधाणा राज री पुनः राव भोजाजी लोल ने एक बार फिर माँ ब्राह्मणी से प्रार्थना की माँ हाथ मत ले भोजा रे माथ ती म्हारे लड़नु है जोधाणा फौज ती जब मां ब्राह्मणी ने राम भोजाजी लोल को घाव करने से फिर रोका तो भोजाजी लोल ने अपने स्वयं के बलबूते जोधाणा की फौज से लड़ने का निर्णय लिया व अपनी नागौरी शमशीर की प्यास बुझाने के लिए उन्होंने भीमसेन पर वार किया जिससे सूरदास बारहठ ने अपनी काव्य शैली में कुछ इस तरह वर्णन किया -

भोजा थारी धड़क सू जोधोणो  धरराएं ।
मुठ मरोड़ी मुछ री भीमसेन घबराएं ।।

जब राव भोजाजी लोल ने भीमसेन पर अपनी नागोरी से वार किया तब मां ब्राह्मणी ने पास में खड़े हजारों साल पुराने बरगद (वटवृक्ष) के पेड़ को बीच में ला दिया पर राव भोजाजी लोल के भुजाओं में इतना बल था कि उन्होंने अपने एक ही वार में उस वटवृक्ष को काट दिया पर भीमसेन बस गया भोजाजी लोल के इस रोद्र रूप को देखकर मां ब्राह्मणी ने राव भोजाजी लोल के शरीर में प्रवेश किया तथा राव भोजाजी लोल के शरीर का तप इतना बढ़ गया कि उनके शरीर में स्वयं अग्नि प्रज्वलित हो गई तभी उन्होंने जोधाणा राज राव चंद्रसेन को श्राप दिया और भीमसेन से कहा कि तेरे राजा की राजगद्दी नहीं रहेगी व दांतलावास को श्राप दिया कि दांतलावास ठाकुर के विश्वासघात के कारण दांतलावास ठाकुर की वंश वृद्धि नहीं होगी व लोल वंशीय राव व रांगी वंशीय मेघवाल दांतलावास गांव की आखडी रखेंगे अर्थात दांतलावास गांव के अन्न - जल व किसी भी प्रकार की वस्तु का उपयोग नहीं करेंगे |जब राव भोजाजी लोल के शरीर में अग्नि दिखी तो समेला राम रांगी विलाप करने लगा कि भोजाजी मुझे अकेला छोड़कर मत जाओ तब समेला राम रांगी के शरीर में भी अग्नि प्रज्वलित हो गई जब राव भोजाजी लोल की घोड़ी लीलण पास में 1 दिन पहले लालाराम चौधरी के द्वारा बाड़ करने के लिए काट कर रखी गई बबूल की गीली झाड़ियों के ढेर में कूद पड़ी तो वे गीली(हरी) बबूल की झाड़ियों का ढेर भी धू-धू कर जलने लगा व उस समय पास में घास चर रही एक गाय व उसका बछड़ा भी पवित्र अग्नि में दौड़ कर कूद पड़े (सती दिवस भाद्रपद शुक्ल अष्टमी विक्रम संवत 1627 या सन् 1570) इनके श्राप के परिणाम स्वरूप राव चंद्रसेन को 1571-72 में अपनी राज गद्दी छोड़नी पड़ी थी जो मृत्यु तक (1581) जंगलों में ही रहे पर अपना राज हासिल नहीं कर पाए थे जबकि दूसरी तरफ दांतलावास ठाकुर की वंश वृद्धि नहीं हुई तथा आज भी लोल वंशीय राव परिवार व रांगी वंशीय मेघवाल परिवार दांतलावास गांव का तिनका तक नहीं उठाते हैं व हर प्रकार के उपयोग की आखडी रखे हुए हैं इस प्रकार एक महान योद्धा व जीवनभर अजय रहने वाले शूरवीर राव भोजाजी लोल मां ब्राह्मणी के आँचल में स्वयं प्रज्वलित पवित्र अग्नि की गोद में समाकर इतिहास के पन्नों में अमर हो गए । भीमसेन को दांतलावास से बिना जुर्माना वसूल किए खाली हाथ लौटना पड़ा था पर राव भोजाजी लोल के हाथों की शोभा नागोरी तलवार भीमसेन अपने साथ ले गया था | इस प्रकार पूरे भारतवर्ष में शायद पुरुष सती का यह प्रथम उदाहरण होगा जिनके शरीर में अपने आप अग्नि प्रज्वलित हुई हो जो स्वाभिमान की लड़ाई लड़ते हुए स्वतः शरीर में प्रज्वलित अग्नि की गोद में अमर हो गए। राव भोजाजी लोल का सतीत्व प्राप्त स्थल दरबार आज भी दांतलावास व राजीकावास गांव की सरहद पर स्थित बहने वाली सागी नदी में स्थित हैं जहां पर हर मास की शुक्ल अष्टमी के दिन भक्तों की भीड़ अपना शीश नमाने जाती हैं तथा दाता के दरबार में सच्चे मन से की गई हर मनोकामना पूरी होती हैं इनके दरबार पर आया हुआ भक्त कभी निराश होकर नहीं जाता है दाता हर सच्चे मन से आए हुए भक्तों की इच्छा पूरी करते हैं मनधर गांव में भी इनका देवरा बना हुआ है जहां पर हर मास की आठ्म (अष्टमी शुक्ल पक्ष) व दशमी शुक्ल पक्ष को मेला लगता है व दुःखी व पीड़ित लोगों की सच्चे मन से की गई हर मनोकामना पूरी होती है।

वचन भोम हित जुझीयों,कणवंती करणोत । गूंजे गौरव गीतड़ा, जागी कण-कण जोत ॥ (सूरदास बारहठ)


राव भोजाजी लोल के बखान में लिखे गए दोहे जो उनके साथ में रहने वाले क्षत्रिय कवि सूरदास बारहठ द्वारा रचित हैं । वचन भोम हित जुझीयों,कणवंती करणोत । गूंजे गौरव गीतडा , जागी कण-कण जोत ।।

रुद्र रूप रण रीढ़ में, सब शूरा सिरमौर । गंगाबाई सिमरीयों, थने रंग हो भोजा लोल ।।

शस्त्र बहे सुता रहे, रहती रण में राज । रात दिवस बांकी रहे, थने रंग हो नागौरी तलवार ।।

उजड़ चाले उतावली , दिन देखे नीं रात । रहती भोजा रे साथ में, थने रंग हो लीलण रंग ।।

भोजा थारी धड़क सू, जोधोणो धरराएँ । मुठ मरोड़ी मुछ री, भीमसेन घबराएं ।।

काऊ करू भोजा थारा वखाण सूर्य सो तेज प्रकाश लीलण उभी ठरका करे मुठ नागौरी तलवार ।।

सूरा अमल गालता,पटियाली जाजम ढाल । पहलो हथलेवो सेवाड़ा धणी ने,दूजो हथलेवो आप ।।


संकलन कर्ता - राव छैल सिंह लोल RAO BHOJAJI LOL (वार्ता) 15:30, 13 सितंबर 2019 (UTC)उत्तर दें