सदस्य वार्ता:Gita

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मोटा पाठअवतार का अर्थ उतरना है। हिन्दू मान्यता के अनुसार जब जब दुष्टों का भार पृथ्वी पर बढ़ता है और धर्म की हानि होती है तब तब पापियों का संहार करके भक्तों की रक्षा करने के लिये भगवान अपने अंशावतारों व पूर्णावतारों से पृथ्वी पर शरीर धारण करते हैं।अवतार यानि अवतरित होना ना कि जन्म लेना ,प्रकट होना जिस प्रकार क्रोध प्रकट होता है वह अवतरित नही होता उसे तो अहंकार जन्म देता है परन्तु अवतार का जन्म नही होता जन्म दो के संयोग से प्राप्त होता है ,जेसे अहंकार और इर्षा का संयोग क्रोध जन्मता है |अवतार केवल सनातन धर्म को अपनी लीला के द्वारा प्रेक्टिकली कर के दिखाता है |जो - जो कर्म अवतार करता है ,उसे अन्य सहायक अवतार नही कर पाते वह उनका बखान प्रचार करने वाले प्रचारक भर होते हैं बाकि रही बात अंश की हर जड़-चेतन भूत प्राणी उसी का अंश मात्र होता है |अवतार लेने के समय भगवान माया को अपने आधीन कर लेते हैं |

                  सनातन धर्म में हिन्दू मुस्लिम सिख इसाई यही चारों धर्म आते हैं और जब भगवान इन धर्मों में जीव को जन्म देते हैं वह हिन्दू ही जन्मता है ,जन्मके बाद वह अपने अपने धर्म के संस्कारों के अनुसार हिन्दू मुसलमान सिख या इसाई बन जाता है जन्म के समय चारों धर्मों की निशानी (लिंग}एक समान एक रूप ही होता हे जिस के आधार पर यह कहा जासकता है कि जीव हिन्दू ही जन्मता हे और जिस दिन हिन्दू नही जन्मे गा वह समय पृथ्वी का आखरी समय होगा
                                                            जिसकी नीव पड चुकी है इन्ही चारों धर्मों के जीव धर्म परिवर्तन कर सनातन धर्म से बाहर खुद ही हो रहे हैं |जो नातो हिन्दू हैं नाही मुसलमान सिख या इसाई वह लोग फक्र के साथ खुद को निरंकारी -राधास्वामी -आर्य -समाजी और भी बहुत कुछ कहते हैं |

मूर्तिपूजा ज्यादातर हिन्दू भगवान की मूर्तियों द्वारा पूजा करते हैं। उनके लिये मूर्ति एक आसान सा साधन है, जिसमें कि एक ही निराकार ईश्वर को किसी भी मनचाहे सुन्दर रूप में देखा जा सकता है। हिन्दू लोग वास्तव में पत्थर और लोहे की पूजा नहीं करते, जैसा कि कुछ लोग समझते हैं। मूर्तियाँ हिन्दुओं के लिये ईश्वर की भक्ति करने के लिये एक साधन मात्र हैं। हिन्दु धर्म मे किसी भी वस्तु की पुजा की जा सकती है।हिन्दू लोग प्राण प्रतिष्ट मूर्तियों क़ी पूजा करते हैं .किन्तु जड़ पदार्थों क़ी भी पूजा करते हैं . हिन्दू धार्मिक ग्रन्थों के अनुसार पूजा क़ी अलग अलग प्धतियां वर्णित हैं .मानसिक पूजा .का भी विधान है .जिसमे मन इतना रम जाता है क़ि उठते -बैठते -सोते जागते ,खाते-पीते,आँखे खोलते -मूंदते.उस ईश्वर की मूर्ति की क्षवी मस्त्शिक में घुमा करती है .मूर्ति पूजा इस लिए भी आवश्यक हो जाती हे कि मानसिक पूजा को सुद्रिड (मजबूत )किया जासके जेसे >यदि किसी व्यक्ति से कहा जावे बॉम्बे तो उसी समय बॉम्बे की क्षवी दिमाग में घूम जाती है .ठीक इसी प्रकार यदि प्रारम्भ में मूर्ति पूजा की जावे तो उस मूर्ति की क्षवी दिमाग में उकर आती है .अतः मूर्ति पूजा का विधान होगया .इतना ही नही लेला मजनू की पूजा को मुला जी की पूजा से बेहतर इसी लिए माना गया कि उस के दिमाग में लैला के अतिरिक्त और कुछ था ही नहीं .हिन्दू सनातन धर्म में इसलिए भी मूर्ति पूजा को महत्व दिया गया है .वह भी देव स्थानों ,तीर्थ स्थानों ,मन्दिरों में .सनातन धर्म तो मन को मन्दिर ही मानता है जहां कोई जीवित मूर्ति .जड़ मूर्ति ना हो उसे पूजने का विधान नही है .ऐसे समय-परिस्थिति में काल्पनिक पूजा का विधान होता है .




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भुत

प्रेत जिन पिशाच का सनातन धर्म से सम्बन्ध? सनातन धर्म में भूतों का विशेष महत्व हे |गीता शास्त्र में भगवान क्ह्तेहे की बहुत प्रेत पिशाच जिन की हम बुरी या भली आत्मा के रूप में कल्पना करते हें ओर समाज में इन का वर्चस्व भी देखा करते हें |वास्तव में वही आत्मा परमात्मा होती हे |परमात्मा का कहना हे की तुम मेरी ओर एक कदम चलो में तुम्हारी ओर चार कदम बडूगा |जब हम उस परमात्मा का चिन्तन खुदा यशु अकाल्पुर्ख या भूत प्रेत जिन पिशाच आदि के रूप में करते हैं तब परमात्मा उसी रूप में चार कदम हमारी ओर बड़ता हे , भगवान कृष्ण ने मिटटी खा कर माता के कहने पर अपना मुह खोल कर दिखाया तब माता को उन के मुह में बह्मांड नजर आया था |माता उन को पहिचान नही सकीं और उन पर किसी बला का साया समझ बैठीं |यदि यह उन को ब्रह्मांड का स्वामी मान लेतीं तो उन को तभी पता चल जाता की कृष्ण उन का पुत्र नही भगवान हेँ |इस के बाद श्री कृष्ण की लीलाएं किसी भूत प्रेत से कम नही थीं |हमारे शस्त्रों ने तो यहाँ तक कहा हे कि जेसा स्वरूप हम अपने मष्तिष्क में बनाते हेँ भगवान उसी रूप के हो जाते हैं |सागर का जल सागर नदी का जल नदी गिलास कटोरी का जल वैसा ही रूप धारण कर लेता हे भगवान भी जिस रूप में खोजे जाते है उसी रूप के होकर वैसे ही कर्म करने लगते हैं |अर्जुन भी भगवान का विराट रूप देख कर भयभीत हो उनसे शांत स्वरूप में दर्शन देने का आग्रह करते हैं |अतः प्रमाणित होता हे कि सदा शांत स्वरूप ही पूजने के योग्य होता हे |क्रोधित स्वरूपों की कल्पना मात्र क्रोध उत्पन कर उत्पात उत्पन करती हें |क्या यह खोज का वेज्ञानिक विषय नही हो सकता ?या ओझा तांत्रिकों का विषय अथवा दिमाग के डाक्टरों की कमाई का विषय मात्र इस लिए हो गया की सनातन धर्म को हम भूल गये हैं ?सनातन के मूल सिधान्तों का अनुसरण न करने से भूत प्रेत जिन के चक्र में दुखी होना स्वभाविक ही है |यदि हम देवता ही मान कर चलें तो भी देवता लोग किसी को नुक्सान नहीं पहुंचाते

   (सनातन धर्म बेशक पुराना है पर प्रयोग नया है 
                                      हर इन्सान की रक्षक गीता ,
                                                    आज कल होड़ लगी हुई हे की किस का धर्म बडा हे कोनसा धर्म सचा हे मेरा तेरा या उसका ?
                   गीता शास्त्र ने तो साफ़-साफ़ कहा हे की यदि तुझे लगे कि दुसरे का धर्म तुझ से अछा हे तो भी अपने जन्म वाले धर्म को कभी भी ना त्यागना ,अपने स्वधर्म को ना त्यागना उसी स्वधर्म के कर्म को करता जा तू मोक्ष को प्राप्त हो जाए गा |
                             प्रभु कि इस आज्ञा के बाद छोटे-बडे का प्रश्न ही नही उठता ,फिरभी सनातन धर्म के चारों अंग हिन्दू मुस्लिम सिख इसाई अपने-अपने धर्म को बडा चड़ा कर एक दुसरे का अपमान करने पर तुले हुए हैं |
                      हिन्दू मुस्लिम सिख इसाई आपसमे भाई-भाई क्यों कि यह चारों ही सनातन धर्म के अंग हें |इन चारों धर्मों को निर्देश देने वाला एक वही सनातन पुरुष परमात्मा ही हे |ऐसा इस लिए भी कह सकते हें कि इन चारों धर्मों को उस परमात्मा ने एक जेसी ही आज्ञा दे रखी ही |जिसमे प्रमुख आगया तो यही हे कि मुझे अर्थात ईश्वर के अतिरिक्त और किसी को सताधारी मत माना |

सदा मुझमे ध्यान लगाना ,निदा चोरी -चकारी ,व्यभिचारी , अपराध(पाप कर्म)से बचना पडोसी से बना कर रखना ,ध्यान रखना तेरे आस-पास रहने वाला कोई भूखा ना रह जाए दुखिये कि यथा योग्य मदद करना

                       हाँ कभी कोई भेष ऐसा मत बनाना कि तेरी पहिचान हो कि तू अमुक समुदाय से हे एक दम सरल सादा भेष हो तेरा कोई विशेष भेष धारण करने कि कोई जरूरत नही |
            आज चारों धर्म चाहे हिन्दू हो या मुसलमान सिख हो या इसाई उस ईश्वर कि इन आज्ञाओं का पालन करने में हीच-किचाता हे |जो इन या ऐसी ही और प्रभु आज्ञाओं का पालन करताहे वही फकीर कहलाता है |फकीर इन चारों धर्मों में आज भी पाया जाता हे |
                      फकीर ही परमात्मा कि आँख का तारा होता है |बाकी मुझे तो कोई भी धर्म जिस का पतन ना हो रहा हो नजर नही आरहा |आइये अब लोट चलें अपने उसी पुराने सनातन धर्म कि ओर उसके बनाये नियमों कि ओर अभी भी वक्त हे सुबहा के भूले को भुला नही कहते |

सनातन पुरुष का गुण-गान हो अपने अपने धर्मानुसार परमात्मा की पूजा हो घंटी घडियाल बजाने नमाज पड़ने गुरबानी पड़ने ओर प्रार्थनाओं का असर तभी दिखाई देगा जब सनातन धर्म में रहते हुए सनातन नियमों का पालन होगा \ नही तो विचार करलो चारों धर्मों ने विश्व शान्ति के लिए पाठ पूजा की परन्तु हर प्रयास असफल रहा |सनातन वृक्ष की जड़ को सींचने की जरूरत हे आज सनातन वृक्ष पुन्हा हरा-भरा हो जाए गा |प्रयास तो कर के देखो अंधे की आँख गीता ,

               बदलते जमाने ने बदल दिए 
                            दिन त्यौहार 
                 विरोध करने वाला खाता मार

मनकी शान्ति गीता ,

                                  करवा चोथ की सभी को बिधाई बहुत ही कठिन व्रत होता हे अन जल कुछ भी ना ग्रहण कर सुहागिने पीटीआई की लम्बी आयु की कामना करतीं हैं |बेचारे पति देव का हाल तो देखो पत्नी पानी तक नही पीती पर व्रत के नाम पर पति देव के हजारों खर्च हो जाते हें |
                            एक पत्नी ने करवा चोथ का व्रत रखा रातको व्रत खोलना था पति से पत्नी ने कहा  रातको खाने के लिए कुछ मिठाइयां और केले लेते आना पत्नी व्रता बाजार से सारा सामान ले आया रात को चाँद निकला ,व्रत तोड़ने की तयारी हुई |पत्नी ने डट कर सारे दिन की भूख मिटाई |
        थोडी देर के बाद पत्नी के पेट  में जोरों की दर्द होनी शुरू हो गयी पति परेशान सारे घरेलू उपचार कर लिए दर्द नही रुका पति पडोसी के घर से पेट दर्द की टिकिया ले आया |पानी गर्म कर पत्नी से बोला लो यह टिकिया खालो पेट दर्द रुक जावे गा |
          पत्नी ने पति को डांट लगाते हुए कहा अगर पेट में टिकिया की जगहा बची होती तो क्या में एक केला और ना खा लेती
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वर्ण अनुसार स्वभाविक कर्म हर इन्सान की रक्षक गीता सात्विक गुण की प्रधानता ब्राह्मणों में हे जिनकी वंशावली की परम्परा परम शुद्ध हे ,जिनके पूर्व जन्म के कर्म भी शुद्ध हें ऐसे ब्राह्मणों के लिए ही शम-दमआ दी गुण स्वाभाविक होते हें यदि किसी में कोई गुण कम हो तो या हो ही नही तो भी ब्राह्मण के लिए इनको प्राप्त करने में किसी प्रकार का कष्ट नही होता वह स्वभाविक तोर पर प्रकट होने लगते हें चारों वर्णों की रचना उन के स्वाभाविक गुणों के अनुसार ही की गई प्रतीत होती हे गुणों के अनुसार उस -उस वर्ण उनके स्वाभाविक कर्म स्वभाविक रूप में प्रकट हो जाते हें और दुसरे कर्म गोन हो जाते हें जेसे किसी भी मन्दिर में या धार्मिक सत्संगों में हर प्रकार के वर्णों को उनके कर्मों के अनुसार पहिचाना जा सकता हे जेसे इस प्रकार की जगह पर ब्राह्मण प्र्मत्माके तत्व का अनुभव करना चाहेगा शास्त्रों का अध्ययन -अध्यापन स्वाभाविक रूप में करना चाहता हे और किसी के साथ अन्याय होता देख जिस का खून खोळ उठता हे वह क्षत्रिय होता हे यदि ऐसी जगह कोई वेश्य हो गा तो वह अपने जीवन में कितनी भी डंडी मरता रहाहो ,यहाँ सचा व्योपार ही करना चाहता हे तथा शुद्र वर्ण का मनुष्य सब से अधिक सेवा भावना वाला दिखाई देता हे (यदि आप के आस-पास आप ने कभी इस प्रकार का कोई शोध कार्य किया हो तो अपने -अपने अनुभव को टिपणी द्बारा सांझा अवश्य करें -----------------------------आप का आभारी रहुगा ---------धन्यवाद )

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अपने धर्म को देखो यदि मनुष्य अपने ब्राह्मण -क्षत्रिय -वेश्य -और शुद्र के धर्म ,जिस धर्म में भगवान ने मनुष्य का जन्म रूपी पोधा लगा दिया हे के कर्मों कोही यदि कर ले तो इस से बडा और कोई धर्म युक्त युद्घ हो ही नही सकता और न ही कोई और दूसरा कल्याण को देने वाला कर्तव्य ही उस के लिए शेष रह जाता हे हे -पार्थ अपने आप परमात्मा द्वारा प्राप्त इस धर्म चाहे वो हिंदू का हो मुलिम सिख या इसाई का हो चाहे ब्राह्मण हो या क्षत्रिय हो -वेश्य हो या शुद्र ही क्यो न हो इस प्रकार जो प्रभु इछा से प्राप्त धर्म ही स्वर्ग दिलाने वाला होता हे ,इस प्रकार के युद्घ को भाग्यवानलोग ही प्राप्त करते हें जो लोग धर्म युक्त युद्घ को नही करते वह उस इश्वर के घर स्वधर्म और कीर्ति दोनों कोही खो कर पाप को ही प्राप्त हुआ करता हे तथा लोगों द्वारा बहुत काल तक रहने वाली अपकीर्ति आ भी कथन करते हें और माननीय पुरुषों के लिए अपकीर्ति मरण से भी बड़कर होती हे (यहाँ आप सभी के सहयोग की हम सभी को आवश्यकता हे अतः आप की प्रति-क्रिया की जरूरत हे -------क्या ऐसे महा -परुष आप या आप के आसपास नही हें ? जो अपने उस धर्म को त्याग कर किसी दुसरे के स्वाभाविक -कर्म को अपना चुके हे ?उन को अपने धर्म के लोगों से अपमानित नही होना पड़ता?मेरे एक मित्र का जन्म शुद्र वर्ण में हुआ हे उसके कई रिश्ते दार ऊची-ऊँची प्रसासनिक सेवाओं में अधिकारी के रूप में कार्यरत हें परन्तु अब वह लोग अपने कुल के लोगों से बात करना या उन के दुःख सुख में में साथ देना अपनी तोहीन क्यों समझते हें ? क्या उनको इसी प्रकार की शिक्षा कभी दी गई थी? या उच्च शिक्षा में उन्हों ने ऐसी शिक्षा प्राप्त की थी? जवाब होगा नही फ़िर क्या यह साबित नही होता की हमारी शिक्षा प्रणाली अन्पड-मूर्खों को उच्च पदों पर आसीन कर रही हे?) ऐसे लोगों के रिश्ते दार इनको अपने कुल धर्म -जाती धर्म के धर्म युद्घ से हटा हुआ क्युओं नही मानेगे ? वेरी लोग भी क्या ऐसों के सामर्थ की निंदा करते हुए न करने योग्य बातें नही करते ? फ़िर इससे अधिक दुःख और क्या हो सकता हे ? इसी बात को भगवान अर्जुन को भी कह रहे हें या तो तू इस युद्घ में मारा जा कर स्वर्ग को प्राप्त हो गा या संग्राम जित कर पृथ्वी का राज्य भोगे गा जये-पराजय ,लाभ -हानि ,सुख-दुःख को समान जान कर ,उसके बाद अपने कर्म रूपी युद्घ के लिए तयार होजा इस प्रकार के युद्घ को करने से तुझे पाप भी नही लगे गा

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तत्व ------ज्ञान झूठ के पांव नही होते सत्य की कोई काट नही होती एक झूठ को सचा साबित करने के लिए छतीस -प्रकार के झूठों का सहारा लेना पड़ता हे सत्य को साबित करने के लिए किसी प्रपंच की जरूरत नही होती इसी प्रकर या सिधांत का अनुसरण तत्व ज्ञानी पुरुषों द्वारा किया जाता हे --------------------------------------------------{१}...........नाश रहित , जिस का किसी भी कल में नाश नही होता --------जिस के द्वारा यह सम्पूर्ण संसार दिखाई देता हे इस अविनाशी का विनाश करने में कोई भी समर्थ नही हे ........जेसे इस शरीर में रहने वाली आत्मा का नाश नही होता परन्तु चोरासी लाख योनियों का नाश हो ता देखने वाली यह आत्मा अविनाशी हे इसका कभी भी नाश नही होता हे और इन्ही सभी योनियों में सब से श्रेष्ठ मनुष्य योनी को कहा गया हे मनुष्य योनी का भी नाश होना निश्चित हे परन्तु मोक्ष इसी योनी द्वारा ही प्राप्त होना परमात्मा ने तय किया हे ?यहाँ बहुतबडी शंका उत्पन होती हे ,मोक्ष यदि मनुष्य योनी की प्राप्ति से ही होना हे तो इस योनी का सदुपयोग होना चाहिए न की युद्घ --क्योंकि यह भी सुनने में आता हे की ---बहुत ही अच्छे कर्म करने वाले को ही मनुष्य योनी प्राप्त होती हे ----फ़िर युद्घ रूपी कर्म द्वारा कई श्रेष्ठ कर्मो को कर के आए इन मनुष्यों को मार डालना कोनसीबुदि मानी हे ?यहाँ भगवान फ़िर आर्जुन को युद्घ करने कई ही सलाह क्यों दे रहे हें?....................................................अब्त्त्व ज्ञानियों ने इस तत्व कई खोग कई तो पाया कई वस्ती में भगवान द्वारा बताई गयी चोरासी लाख योनियाँ भी हें ---आपभी आनुभव करें अलग -अलग मनुष्यों को पड़ेंकुछ मनुष्यों का स्वभाव शालीनता लिए रहता हे ,वह बडी ही भद्र भाषा का प्रयोग करते हें क्यों कई मनुष्य-कई योनी से आए होते हे वह नित्य इसी प्रकार रहते हों कहना उचित नही होगा कभी न कभी अभद्रता पर वो भी उतरकर अपनी दूसरी योनी को भी प्रकट कर देते हें कारण नाश वान होना ही समझ में आता हे अन्य अध्ययनों में कुछ को क्रूर - हिंसक -निंदा के समर्थक -अहंक -कार से युक्त भी पाया जाता हे ---सभी में सदा इनको इकट्ठा नही देखा गया -एक के बाद दुसरे का परिवर्तन होताही हे कारण वही नाश -वांता इस लिए भी हे भरत वंशियों इस भवसागर रूपी महाभारत में तं उठो और इन से युद्घ करो जो इस आत्मा को मरने वाला समझ ता हे और इस को मरा मानता हे ,वह दोनों ही नही जानते क्यों कि यह आत्मा वास्तव में न तो किसी को मारती ही हे न किसी के द्वारा मरी ही जाती हे यह अभी ही नही जन्मती अर्थात अजन्मा हे नित्य हे, सनातन और पुरातन हे शरीर के मरे जाने पर भी यह नही मरती जो इतनी सी बात समझ जाता हे कि आत्मा नाश रहित ,नित्य,अजन्मा,अव्यय हे वो मनुष्य केसे किस को मरवाता हे और केसे किसी को मरता हे ?आत्मा पुराने शरीर को त्याग कर दूसरा शरीर धारण कर लेती हे आत्मा को शस्त्र नही काट सकता- आग जला और जल गला नही सकती वायु सुखा नही सकती क्यों कि यह आत्मा नित्य,सर्वव्यापी ,अचल,स्थिर रहने वाली और सनातन हे <अद्याय २/२४ तक

आत्मा ----- राम देह एक मन्दिर , जिस में आत्मा की मूर्ति । हृदय इस का स्थान हे , जिस में यह रहती । आत्मा न कभी मरती , ऐसा जाता हे कहा नित घुट-घुट कर मरती आत्मा को , आप ने देखा होगा फ़िर भी यह मरती नही , न कोई इसे मार सका न अग्नि जला सकी , न जल इसे गला ही सका एक देह को छोड़ , दूसरी में प्रवेश कर जाती यही आत्मा ,परमात्मा का अंश कहलाती जेसे तरल के रूप कई , जल पट्रोल मदिरा और दवाई सभी तरल ही कहलाते हें , इसी तरह आत्मा ही परमात्मा कहे जाते हें फ़िर भी लोग ,आश्चर्य से इसे देखते कोई भूतकहता इसे , कोई चुडेल या प्रेत भगवान कहते अर्जुन से , आत्मा परमात्मा का हे यही भेद ..................................................................................