सदस्य वार्ता:Anshu sisodia

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आजा़दी मिली गेरों से,गुलाम हुये अपनो के। आज कहने को तो हम आजाद देश के नागरिक है।लेकिन क्या हम वास्तव में आजाद हुये है। जब हमारा देश बाहरी देशों का गुलाम था उस समय हम सब एक थे,हमारी सोच् एक थी,हमारा मकसद एक था। लेकिन जब हम आजाद हुये तो हम से ये खुशी बरदाश्त नही हुई और हम स्वार्थी हो गये।हमारे अन्दर से भाईचारे की भावना बिल्कुल समाप्त हो गयी। आज जब हम आजाद है। तो हम अपने स्वार्थो को पूरा करने में इस कदर बन्धनो में उलझ गये है कि चाह कर भी मुक्त नही हो पा रहे है। जिसको जितना मिलता जा रहा है। उसकी चाह उतनी ही ज्यादा पाने की होती जाती है।और वह अपने इधर उधर यह नही देख पाता कि उसकी ज्यादा की चाह में बहुत सारे लोगों को कम से भी कम नही मिल पा रहा है। यह बात उन सभी लोगों पर लागू होती है जिनका धन दूसरे देशों में जमा है।और उनके अपने देश में ४०% लोगों को सिर्फ एक वक्त ही भोजन मिलता है वो भी पेट भर कर नही,। आज हमारे देश में इतनी असमानता क्यों है।क्या ऐसी ही कल्पना की थी। हमने स्वतन्त्रता के बाद अपने देश की। क्या एसी आजादी को हमे मनाना चाहिये,या यूँ कहें कि हम गेरों से तो आजाद हुए,लेकिन अपनो से बचकर कहाँ जाये। इस गुलामी का अन्त तो कहीं दूर तक नज़र नही आता है। ( घाव दिया गेरों ने सोचा अपनों को दिखायेंगे,अपनों ने बनाया नासूर अब किसको बतायेंगे,)

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-- ePanditBot  Talk  १६:३६, २ सितंबर २०१० (UTC)