सदस्य वार्ता:Amarindia1

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बिस्मिल की आत्मकथा[संपादित करें]

संक्षिप्त विवरण[ विवरण ] 1. अगस्त मास सन्1925 की बात है । 11 अगस्त के एक अंगरेजी दैनिक पत्र में, 9 अगस्त सन्1925 की रात को लखनऊ के आगे काकोरी स्टेशन के पास चलती रेल में डाका पड़ने और उसमें से सरकारी खजाने के लूटने की खबर मोटे शीर्षकों में छपी थी। इस घटना से प्रान्त भर में बड़ी सनसनी फैल गई। पुलिस बड़ी तत्परता से इस घटना का अनुसन्धान कर ही थी। सम्भवतः डेढ़ महीने तक पुलिस पता लगाती रही। अन्त में 26 सितम्बर के लगभग एकाएक पुलिस ने गिरफतारियां और तलाशियां शुरू कर दीं। कानपुर, आगरा, इलाहाबाद, लखनउ, बनारस,शाहजहांपुर आदि शहरों में तलाशियां तथा गिरफतारियां हुईं। न्याय तथा शान्ति-स्थापना के नाम पर अमीर, गरीब सभी के घर छाने गये। हर जगह पुलिस का आतंक था। गिरफतार हुए व्यक्तियों में अधिकता उन्हीं देशवासियों की थी, जो कि कांग्रेस के कार्यकर्ता थे अथवा जो अन्य किसी कारा से जनता के श्रद्धापात्र थे। गिरफतारियों के समय प्रायः सर्वत्र पुलिस की धंधागर्दी देख पड़ती थी। आश्विन का महीना था और दुर्गा-पूजा के दिन थे। जिस समय देशवासी विजयादशमी और दुर्गापूजा बड़े समारोह से मना रहे थे, श्रीमती पुलिस महारानी भी कुख्याति का सन्चय कर रही थीं। पूजा और मेले के दिन लाग अपने परिवारवालों, मित्रों और हितेच्छुओं से बिलग किये गये। बड़ा कारूणिक दश्ष्य था। किन्तु गिरफतार हुए व्यक्तियों के मुख पर भय अथवा चिन्ता के चिन्ह न थे, प्रत्युत उन्हें इस आकस्मिक धर पकड़ पर आश्चर्य हो रहा था और उनके हृदय अपने सम्बन्धियों से इस प्रकार अलग होने के कारण विवाद पूर्ण थे। इस समय पुलिस का दमन चक्र पूर्ण जोर पर चल रहा था। जो लोग गिरफतार हुए उनका कहना ही क्या, उनके कुटुम्बी बुरी तरह सताये गये। जब्ती के समय न केवल अभियुक्तों के सामान वरन् उनके कुटुम्बियों तक के वस्त्र तक पुलिस अपने साथ ले गई। जो लोग गिरफतार हुए थे वे इतने खतरनाक समझे गये कि उनके पैरों में बेड़ियां डाल दी गईं। आरम्भ में इन सब व्यक्तियों पर काकोरी डाके में सम्मिलित होने का अभियोग लगया गया। सरकार तथा ‘स्टेट्समैन‘ जैसे पत्रों की राय में यह डाका एक षडयन्त्रकारी दल द्वारा डाला गया था। इस कारण मामले का अनुसन्धान बड़ी सरगर्मी के साथ होने लगा। डाका किस प्रकार पड़ा यह जानना पुलिस के लिये यदि दुस्साध्य नही तो टेढ़ी खीर अवश्य था। अनुसन्धान करने और कुछ अभियुक्तों के बयानों द्वारा जो कुछ पुलिस मालूम कर सकी उससे यह प्रकट होता है कि घटना एक वीरता पूर्ण थी। अतः इस रोचक घटना का विहंगावलोकन हम यहां पर करा देना चाहते हैं। पाठक, देखें कि एक पराधीन देश की दूषित और पराधीन हवा में पले हुए व्यक्तियों की भावनाओं में कितनी भीषण हिलोरें उठ सकती हैं, फिर चाहे वह उन्माद क्षणिक ही क्यों न हो, अथवा हमारे देष के आलादिमाग उनके इस कृत्य को बुद्धि की बहक अथवा पागलपन या उनका गलत रास्ते पर होना ही क्यों न समझें, किन्तु कम से कम इतना वे अवश्य समझें और मानेंगे कि उनका कार्य निस्वार्थ और वीरतापूर्ण था। सन्1925 ई0 की 9 अप्रैल की रात उस पक्ष की सब से अंधेरी रात थी। आकाश मेघाच्छन्न था, कुछ वर्षा भी हो रही थी। दस व्यक्तियों का एक दल सहारनपुर से लखनउ जाने वाली टेंन पर सवार था कुछ थर्ड क्लास में बैठे थे और अन्य सेकेण्ड क्लास में। सेकेण्ड क्लास की जंजीर खींचने का प्रबन्ध था। इस प्रकार गाड़ी खड़़ी की गई, गाड़ी खड़ी होने पर सब लोग उतर कर गार्ड के डब्बे के पास पहुंचे। इसी डिब्बे में सरकारी ख़ज़ाना एक लोहे के सन्दूक में रक्खा था। सन्दूक उतारकर छेनियों से काटे जाने की व्यवस्था होने लगी, किन्तु छेनियों ने काम न दिया, तब कुल्हाड़ा चला। मुसाफिरों पर आक्रमण करना या उन्हें लूटना इस दल का अभीष्ट न था। अतः उनसे कह दिया गया कि सब गाड़ी में चढ़ जायें। गार्ड गाड़ी में चढ़ना चाहता था, इस पर उसे ज़मीन पा लेट जाने की आज्ञा दी गई ताकि बिना गार्ड के गाड़ी न चल सके। दो आदमी इस बात के लिये पहिले से नियुक्ति कर दिये गये थे कि वे लाइन की पगडंडी को छोड़कर घास में खड़े और गाड़ी से काफी दूर रहकर गोली चलाते रहे। दल के उन व्यक्तियों को जिनका काम गोली चलाना था, पहिले से ही यह आज्ञा दे दी गई कि जब तक कोई व्यक्ति बन्दूक लेकर सामना करने न आवे, या मुकाबिले में गोली न चले, तब तक किसी आदमी पर फायर न होने पावे। नरहत्या करके इस घटना को भीषण रूप देना इस दल का उदेश्य न था। हां! वे दोनों व्यक्ति पांच-पांच मिनट बाद पांच-पांच फायर करते थे, यही दल के नेता का आदेश था। सन्दूक तोड़ तीन गठरियों में थैलियां बांधी गई रास्तें में थैलियों से रूपया निकाल कर पुनः गठरी बांधी गई और उसी समय ये लोग लखनउ शहर में जा पहुंचे। इस प्रकार दस आदमियों ने जिन में अधिकांश विद्यार्थी थे, एक गाड़ी को रोक कर लूट लिया। उस गाड़ी में चौदह पुरूष ऐसे थे, जिनके पास बन्दूकें या रायफलें थीं। दो सशस्त्र अंगरेज फौजी जवान भी थे-पर सब शान्त रहे। डाइवर महाशय तथा एक इन्जीनियर महा्शय का बुरा हाल था। वे दोनों ही अंगरेज थे। ड्राइवर महाशय इन्जिन में लेट रहे थे और इन्जीनियर महोदय पाख़ाने में जा छिपे थे। दल के नेता ने चिल्लाकर कर दिया थां कि हम यात्रियों से न बोलेंगे, सरकार का माल लूटेंगे। इस कारण मुसाफिर भी शान्त बैंठे रहे। सब समझे बैठे थे कि कम से कम चालीस आदमियों ने ट्रेन को घेर लिया है। इस समय अन्धेरा होने से लोग उनकी ठीक संख्या न जान पाये। केवल दस युवकों ने इतना बड़ा आतंक फैला दिया। साधारणतया इस बात पर अनेक मनुष्य विश्वास करने में भी संकेाच करेंगे कि दस युवकों ने गाड़ी खड़ी करके लूट ली। जो कुछ भी हो, बात वास्तव में यही थीं। इन दस में से अधिक तो आयु में 20 और 22 वर्ष के होंगे। वे शरीर से अधिक ह्रूष्ट-पुष्ट भी न थे।

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-- ePanditBot  Talk  १६:००, २ सितंबर २०१० (UTC)