सदस्य वार्ता:आशीष भटनागर/संदर्भ

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[1] <शोचिअल् श्चिएन्चे><षेलिगिओन्><ढ्हिरेन्ड्र कुमर् शिन्ग्ह्><भ्रह्मन् घ्रन्ट्होन् मे फ्रटिबिम्बिट् शमज्><१९९०><षेन् ंएन् फ्रकस्हन्><ढेल्हि><२२८ टो २३३><२२००><शिन्ग्ह्-भ्रह्मन् घ्रन्ट्होन् मे फ्रटिबिम्बिट्>

राज्य, समाज एवं धर्म स्थायी प्रादेशिक राज्यों की स्थापना शतपथ ब्राह्मण में `जन' के रूप में `विदेह' का उल्लेख हुआ है जो कालान्तर में धीरे-धीरे जनपद (राज्य) में परिवर्तित होता गया. एक उद्ध-~रण में यह भी कहा गया है कि अमुक पुरूष राज्य या ग्राम का नेतृत्त्व करने योग्य नहीं है. शतपथ ब्राह्मण से पता चलता है कि वरुण ने राज्य की कामना से अग्नि का अग्न्याधान किया जिसके परिणामस्वरूप उसे राज्य की प्राप्ती हुई. एक अन्य प्रसंग में कुरू-पांचाल राज्य का भी उल्लेख हुआ है. अथर्व-~वेद के अनुसार उनके राजा अब राष्ट्र अर्थात् प्रदेश के स्वामी समझे जाने लगे थे. इससे स्पष्ट होता है कि जन धीरे-धीरे राज्यों का रूप लेने लगे थे. ऐतरेय ब्राह्मण में एकराट् का राज्य क्षेत्र सागर पृथ्वी को बताया गया है. तैत्तिरीय संहिता में एक अनुष्ठान का महत्व स्पष्ट करने से ऐसा आभास मिलता है कि इस युग के राजा विश् के साथ ही राष्ट्र पर भी अपना अधिकार स्थापित करने के लिए चिन्तित थे. उत्तर वैदिककाल तक स्थायी प्रादेशिक राज्यों की भौगोलिक सीमायें स्थापित हो चुकी थीं और पूर्ववैदिक काल के अधिकांश जनपदों का रूप ग्रहण कर चुके थे. शतपथ ब्राह्मण में परिचक्रा का उल्लेख हुआ है, जहां कि राजा क्रैव्य पांचाल ने अश्वमेध यज्ञ का अनुष्ठान किया था. इसे एकचक्रा नगरी से मिलाया गया है, जिसकी स्थिति काम्पिल्य के समीप थी. शतपथ ब्राह्मण में काम्पिल्य नगरी का भी उल्लेख मिलता है जो पांचाल जनपद की राजधानी थी. वैदिक इण्डेक्स के लेखकों के अनुसार वैदिक साहित्य में प्रचलित `काम्पिल्य' मध्यदेश स्थित पांचालों की राजधानी का नाम था. उत्तर-पश्चिमी भारत और गंगा-यमुना-सरस्वती के क्षेत्र से आगे बढ़-~कर आर्यों ने जिन बहुत से राज्यों को स्थापित किया, उनके सम्बन्ध में निर्देश उल्लेखनीय हैं. शतपथ ब्राह्मण में आर्यो के कुरू-पांचाल राज्य का उल्लेख मिलता है. ऐतरेय ब्राह्मण के अनुसार दूर-दूर तक आर्यो के राज्य स्थापित हो गये थे तथा कुरु-पांचाल के राज्य मध्यमा प्रतिष्ठा दिशा (जिसे बाद में मध्य देश कहा जाता था) में स्थित समझे जाने लगे थे. ऐतरेय ब्राह्मण के एक उद्धरण में हिमालय से परे के उत्तर-कुरु और-मद्र जनपदों के अति-~रिक्त दक्षिण के भोज और सत्वत तथा पूर्व दिशा के ऐसे राज्यों का भी उल्लेख हुआ है जो सम्राटों द्वारा शासित होकर साम्राज्य विस्तार के लिए तत्पर रहते थे. इससे स्पष्ट है कि उस काल तक आर्य उत्तर भारत के बहुत से प्रदेशों में अपने राज्य स्थापित कर चुके थे. उत्तर वैदिक काल के आर्य राज्यों में कुरु राज्य सर्वप्रधान था. अथर्व-~वेद में राजा परीक्षित का उल्लेख है, जिसे `कौरव्य' कहा गया है. शतपथ ब्राह्मण में राजा जनमेजय के सम्बन्ध में कहा गया है कि उसने आसन्दोवत् में अश्वमेध यज्ञ का अनुष्ठान किया था. जो सम्भवत: बाद में हस्तिनापुर के नाम से प्रसिद्ध हुआ था. एक अन्य स्थान पर कुरुक्षेत्र राज्य का भी उल्लेख हुआ है जो कुरुओं का यज्ञ स्थान था. ब्राह्मण-ग्रन्थों में प्राय: कुरु के साथ पांचाल का भी उल्लेख किया गया है. ऋग्वेद में `क्रिवी' कहा जाता था, किन्तु आर्यजन पदों में उसका महत्वपूर्ण स्थान नहीं था. शतपथ ब्राह्मण से पता चलता है कि कुरु के समान पांचाल ने भी बहुत महत्व प्राप्त कर लिया था. पांचाल का पहला नाम क्रिवि था. कहा गया है कि उनके राजा क्रैव्य और शोण सात्रासाह ने अश्वमेध यज्ञ किये थे और राजा दुर्मुख ने संपूर्ण पृथ्वी को जीतकर अपने अधीन कर लिया था. उपनिषदों में भी पांचाल के राजा प्रवाहण जाबलि का उल्लेख हुआ है. वैदिक साहित्य में दक्षिण के क्षेत्र में आर्यों के प्रसार के सम्बन्ध में वर्णन मिलता है. ऐतरेय ब्राह्मण में `दक्षिणा दिशि' में सत्वन्त या सत्वत का उल्लेख है. शतपथ ब्राह्मण के अनुसार इसे कुरु देश के राजा भरत ने विजय किया था. सत्वत के अतिरिक्त विदर्भ और निषध का उल्लेख भी ब्राह्मण ग्रन्थों में हुआ है. ये राज्य भी दक्षिण में स्थित थे. ऐतरेय ब्राह्मण में विदर्भ के राजा भीम के विषय में यह कहा गया है कि नारद द्वारा उसे ऐसी औषधि का पता दिया गया था, जिसे सोम के स्थानापन्न रूप में प्रयुक्त किया जा सकता था. शतपथ ब्राह्मण में दक्षिण के राजा नड के साथ नैषध विशे-~षण प्रयोग किया गया है. उत्तर वैदिक काल के पश्चिम और उत्तर दिशाओं में भी कुछ ऐसे राज्यों के अस्तित्व का पता चलता है, जिनका ऋग्वेद में उल्लेख नहीं मिलता. शतपथ ब्राह्मण में `बाहीको' सम्बन्ध में कहा गया है कि वे अग्नि के लिए भव संज्ञा का प्रयोग करते थे, जबकि (पूर्व) प्राच्य देशों में उसे शर्व कहा जाता है. वाहीक, पंजाब के किसी पश्चिमी प्रदेश का नाम था. ऐतरेय ब्राह्मण में भी पश्चिम के नीच्य, अपाच्य, बाहीक और बाहीक राज्यों का उल्लेख हुआ है. वैदिक साहित्य में उत्तर दिशा के उत्तर-कुरु, उत्तर-मद्र, मूजवत्, महावृष्, गन्धार, बाल्हीक, केसी और कम्बोज के नाम मिलते हैं. शतपथ ब्राह्मण के एक स्थल से ऐसा प्रतीत होता है कि उत्तरी लोगों अर्थात उत्तरी कुरुओं की तथा कुरु-पांचालों की बोली समान और शुद्ध मानी जाती थी. इस प्रकार कुरु-पांचालों को कदाचित ही उत्तरीय माना जा सकता है. ऐतरेय ब्राह्मण में ज्ञानतपी अत्यराति नामक एक महत्त्वकांक्षी व्यक्ति का उल्लेख हुआ है जो उत्तर-कुरु की विजय के लिए उत्सुक था. उत्तर-कुरू के समान उत्तर-मद्र जनपद भी हिमालय के उत्तरी क्षेत्र में विद्यमान था. मद्र जन के दो जनपद राज्य थे--उत्तर-मद्र और दक्षिण-मद्र. बृहदारष्यकोपनिषद् में काप्य पतंजल का उल्लेख है, जिसे मद्र का निवासी कहा गया है. अथर्ववेद के एक सक्त में अंग और मगध के समान गन्धारि, मूजवत, महावृष और बाल्हीक के सम्बन्ध में भी यह प्रार्थना की गयी है कि तक्मा (ज्वर) इन देशों में चला जाए. इससे यह संकेत मिलता है कि ये भी आर्यों के क्षेत्र के सीमावर्ती जनपद थे. यद्यपि इनकी स्थिति पूर्व में न होकर उत्तर की ओर थी. ऐतरेय ब्राह्मण के गन्धार के राजा नग्नजित का उल्लेख है, जिसने याज्ञिक कर्मकाण्ड में सोम के प्रयोग पर बल दिया है. केकय जनपद की स्थिति बितवस्ता (जेहलम) के तटवर्ती प्रदेश में थी और यह उत्तर वैदिक काल में धर्म तथा संस्कृति का महत्वपूर्ण केन्द्र था. शतपथ ब्राह्मण और छान्दीय उप-~निषद में केकय के राजा अश्वपति का उल्लेख है और उसके मुख से यह कहा गया है कि मेरे जनपद में न कोई चोर है, न कोई शराबी है, न कोई ऐसा व्यक्ति है जो याज्ञिक अनुष्ठान न करता हो, न कोई अविद्वान है और न कोई व्यभिचारी है. उत्तर वैदिक साहित्य में कितने ही ऐसे राज्यों का वर्णन है जिनका ऋग्वेद में कही भी उल्लेख नहीं किया गया है. ये राज्य मत्स्य, वश (वत्स), कोशल, मगध, विदेह, काशी, शाल्व, अंग, वंग, विदर्भ, कुन्ती, कम्बोज, पुलिन्द, शावर और आन्ध्र आदि हैं. गोपथ ब्राह्मण और कौशीतकी उपनिषद् में मत्स्य का उल्लेख मिलता है और उसके राजा ध्वसन द्वैतवन का परिगणन उन राजाओं में किया गया है जिन्होंने अश्वमेध यज्ञ का अनुष्ठान किया था. शतपथ ब्राह्मण में ऐक्ष्बाक्य पुरुकुत्स का उल्लेख है, और साथ ही ऐसी कथा भी दी गयी है जिससे पूर्व दिशा की ओर आर्यों के प्रसार का संकेत मिलता है. शतपथ ब्राह्मण में कहा गया है विदेह के राजा माथव ने अपने पुरोहित गौतम राहुगण के साथ सरस्वती नदी के तट से यज्ञीय अग्नि को लेकर पूर्व की ओर यात्रा की थी और मार्ग में कोशल होते हुए सदानीरा नदी को पार कर वह उस प्रदेश में पहुंचा था जहां उसने विदेह राज्य की स्थापना की थी. इससे स्पष्ट होता है कि विदेह में बसने से पूर्व कोशल में उनका राज्य स्थापित हो चुका था. शतपथ ब्राह्मण में कोशल के राजाओं में आट्पार हैरण्यनाभ का उल्लेख उन प्रतापी राजाओं में किया गया है जि न्होंने अश्वमेध यज्ञ किया था. शतपथ ब्राह्मण के एक स्थान पर कोशल और विदेह के साथ ही काशी का भी उल्लेख किया गया है. पूर्व की ओर प्रसार करते हुए आर्यों ने कोशल के समान काशी में भी अपना राज्य स्थापित किया था. इसके अतिरिक्त उत्तर वैदिककाल में वश (वत्स), मग्ध, शाकल्प, शाल्व, अंग, वंग, विदर्भ, कुन्ती, कम्बोज, पुलिन्द, शवर और आन्ध्र आदि राज्य स्थापित हो चुके थे. उत्तर वैदिक काल के राज्य-केन्द्र या राजधानी के रूप में भी स्थापित हो चुके थे. शतपथ ब्राह्मण में कुरुओं की राजधानी आसन्दीवत् का, मध्य-~देश मे पांचालों की राजधानी काम्पील का, कौशाम्बी का तथा वरणा-~वती (वरुणा) के तीरस्थ काशियों की राजधानी काशी का उल्लेख अनेक बार किया गया है. आसन्दीवत् तो उस काल का एक प्रसिद्ध नगर प्रतीत होता है जहाँ जनमेजय परीक्षित का अश्वमेध सम्पन्न होने के उपरान्त अभिषेक किया गया था. शासन-पद्धति उत्तर वैदिककाल में विभिन्न प्रकार की शासन-पद्धतियों का प्रचलन मिलता है क्योंकि सुव्यवस्थित शासन-पद्धतियों का विकास तो स्थायी प्रादे-~शिक राज्यों के स्थापना से ही सम्भव था. शतपथ ब्राह्मण के राज्य, साम्राज्य तथा स्वाराज्य नाम की तीन शासन-प्रणालियों का उल्लेख मिलता है. जबकि ऐतरेय ब्राह्मण में साम्राज्य, राज्य, स्वाराज्य, भौज्य, वैराज्य, पारमेष्ठय और महाराज नाम की शासन-प्रणालियों का उल्लेख हुआ है. इनमें सेराज्य और साम्राज्य निश्चित रूप से राजतन्त्र के ही विभेद है जिसका प्रचलन क्रमश: प्राज्य और मध्यदेश में था. ब्राह्मणों में वर्णित राज-~सूय, अश्वमेध आदि यज्ञों के सन्दर्भ में नृपतंत्रात्मक राज्यों की व्यवस्था का विस्तृत उल्लेख मिलता है. इसके विपरीत अन्य शासन-प्रणालियों के सम्बन्ध में स्पष्ट प्रमाण नहीं मिलता है. ऐसा लगता है कि वैराज्य, स्वराज्य और भौज्य शासन-प्रणालियों वैदिक संस्कृति के केन्द्र मध्यदेश से दूर, आर्य प्रभावों से मुक्त प्रदेशों में ही प्रचलित हुई. ऐतरेय ब्राह्मण के अनुसार वैराज्य शासन-प्रणाली का प्रचलन हिमा-~लय के समीपवर्ती प्रदेश उत्तर-कुरु और उत्तर-मद्र में था. जिमर महोदय ने उत्तर-कुरु की एकता कामीर से स्थापित की है जो असम्भव नहीं प्रतीत होता है. वैदिक इण्डेक्स के लेखकों ने वैराज्य को राजतन्त्र का ही एक रूप माना है. यद्यपि वैराज्य शब्द का सम्बन्ध राजतन्त्र से जोड़ना असंगत प्रतीत होता है क्योंकि इस सन्दर्भ में वैराज्य शब्द का प्रयोग जनपद के लिए किया गया है न कि राजा के लिए. कुछ विद्वानों ने वैराज्य को जनतंत्र कहा है. जायसवाल ने वैराज्य का अर्थ `राजा विहीन' शासन-प्रणाली माना है, किन्तु उसका शाब्दिक अर्थ केवल `राजा विहीन होगा. राव के अनुसार ऐसी स्थिति में वैराज्य जनतन्त्र का भी बोधक हो सकता है और अराजक स्थिति का भी. अथर्ववेद में स्पष्ट रूप से `विराड' शब्द का प्रयोग अराजक स्थिति के लिए हुआ है. इससे स्पष्ट है कि वैराज्य एक ऐसी स्थिति थी जिसमें राजशक्ति के अभाव में जनता के विचारों की प्रधानता रही होगी, किन्तु साथ ही राजनीतिक संगठन की चेतना का अभाव रहा होगा. शतपथ ब्राह्मण में `ब्रध्नस्य विष्टपम' और चतुर्विश को स्वाराज्य बताया गया है जिससे स्वाराज्य शासन प्रणाली का प्रचलन मिलता है. ऐतरेय ब्राह्मण के अनुसार स्वाराज्य शासन-प्रणाली का प्रचलन प्रतीची दिशा (पश्चिमी) के नीच्यों और अपाच्यों में मिलता है. जायसवाल महोदय ने नीच्यों को सिन्ध नदी के मुहाने के समीप रखने का प्रयास किया है तथा अपाच्यों को उनका पड़ौसी बताया है. रंगपुर और लोथल के उत्खनन से प्राप्त अवशेषों से यह प्रमाण मिलता है कि सैन्धव-संस्कृति की परम्परा में पंजाब और सिन्ध में नष्ट होने के पश्चात् भी पश्चिम में गुजरात और काठियावाड़ तक वैदिक संस्कृति के विकास-काल तक भी जीवित रही. परिस्थैतिक साक्ष्यों को ध्यान में रखते हुए पश्चिमी प्रदेशों में प्रचलित स्वाराज्य शासन-प्रणाली को सैन्धव-सांस्कृतिक परम्पराओं से सम्बन्धित करना सर्वथा स्वाभाविक होगा. स्वराट वे थे, जिनकी स्थिति समानों में ज्येष्ठ की थी. शतपथ ब्राह्मण के एक उद्धरण में सम्राट और स्वाराट का उल्लेख करते हुए कहा है कि `शक्ति के लिए, धन के लिए, तू रमण कर, बल के लिए, तेज के लिए, ऊर्ज के लिए, सन्तान के लिए. तू सम्राट है, स्वराट है. सरस् वती के ये दो कुएँ (कूप) तुझको पालें. तैत्तिरीय ब्राह्मण में स्वराज्य का अर्थ समान लोगों का नेता या ज्येष्ठय प्राप्त करना बतलाया गया है. वाजपेय यज्ञ करने का फल स्वराज्य की प्राप्ति बतलाया गया है. स्वराट शासक की स्थिति गण या संध के सभापति के समान थी जिससे स्वराज्य शासन-प्रणाली एक कुलीन तंत्रात्मक शासन प्रणाली प्रतीत होती है. शतपथ ब्राह्मण में भौज्य शासन-प्रणाली का उल्लेख नहीं मिलता है. दक्षिणात्यों में प्रचलित भौज्य शासनप्रणाली भी स्वाराज्य से मिलती जुलती गणतन्त्रात्मक शासन-व्यवस्था थी. ऐतरेय ब्राह्मण के अनुसार भौज्य शासन-~प्रणाली सत्त्व लोगों में प्रचलित थी. जायसवाल महोदय ने गुजरात को भौज्य लोगों का प्राचीन निवास-स्थान माना है. भोज आज भी काठियावाड़ के एक देशी रियासत का नाम है. इससे ज्ञात होता है कि भौज्य शासन-प्रणाली का प्रचलन दक्षिण-पश्चिम दिशा मे था. वैदिक साहित्य के अनुसार प्राच्यों के राजा सम्राट कहे जाते थे. सात्वतों के राजा `भोज्य', तथा नीच्यों और अपाच्यों के राजा स्वराट कहे जाते थे. उत्तर-मद्र तथा उत्तर-मद्र तथा उत्तर-कुरु आदि हिमालय के उत्तर के प्रदेशों में वैराज्य शासन-~प्रणाली थी और यहां के लोग `विराट' शब्द से सम्बोधित किये जाते थे. जायसवाल ने `स्वराट' और `भोज' उपाधियों के अर्थ के विषय में कुछ अन्तर माना है. शतपथ ब्राह्मण के एक उद्धरण में पूर्व दिशा की राज्ञी या रानी, दक्षिण की विराट, पश्चिम की सम्राट, उत्तर की स्वराट तथा वृहती दिशा की अधिपत्नी का उल्लेख हुआ है. एक अन्य स्थान पर यजमान द्वारा `अधि-~पत्य' देने का उल्लेख हुआ है. दूसरे स्थान पर कहा गया है कि राजा वह हो सकता है जिसे अन्य राजा लोग स्वीकार करें. यहाँ पर अन्य राजाओं का अर्थ सम्भवत: विशपति से है जिससे राजशक्ति का, साधारण जनता के हाथ में न होकर विशों के मुखियों के हाथ में होने का संकेत मिलता है. राजतन्त्र राजतन्त्रात्मक शासन-प्रणाली ही उत्तरवैदिक युग की सामान्य तथा लोकप्रिय व्यवस्था थी. राजनैतिक महत्व के विभिन्न यज्ञों के प्रसंग में राजाओं की महत्त्वकांक्षा उनके अधिकार और कर्त्तव्य आदि का उल्लेख हुआ है. पूर्व-वैदिक काल से ही राजतन्त्र शासन-प्रणाली के रूप में प्रचलित होने लगा था. ऋग्वेद में प्राय: राजन् शब्द का उल्लेख हुआ है. सरस्वती नदी के पास रहने वाले कुछ राजाओं को नामोल्लेख किया गया है, जिसमें राजा चित्र विशेष उल्लेखनीय है. ऋग्वेद में राजाओं अथवा सरदारों के बीच परस्पर संघर्षों तथा सुदास द्वारा लड़े गये ऐतिहासिक युद्ध का उल्लेख मिलता है जिसमें दस राजाओं ने सक्रिय भाग लिया था. क्षत्रिय जाती राजन्य कहलाती थी जिसका तात्पर्य शासक वर्ग अथवा योद्धा वर्ग से था. राजत्व की धारणा लोगों के दिमाग में बनी हुई थी. इसलिए राजतान्त्रिक शासन-प्रणाली ही उन दिनों अत्यधिक प्रचलित थी.

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