सदस्य:Vaibhav vadalankar

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श्री गुरु विरजानन्द गुरुकुल महाविद्यालय ,करतारपुर ,जालन्धर ,पंजाब

दण्डी विरजानंद

महर्षि दयानंद सरस्वती भारत ही नहीं अपितु समस्त विश्व में नवजागृति के संदेशवाहक वेदोद्धारक तथा आर्य समाज के संस्थापक के रूप में जाने जाते हैं । महर्षि दयानंद जिनका बचपन का नाम मूलशंकर था, ने सच्चे शंकर की खोज में लगभग 22 वर्ष की आयु में गृह त्याग कर दिया था इधर महर्षि को सच्चे शंकर का आभास कराने वाले ब्रह्मर्षि विरजानंद जी जिनके बचपन का नाम बृजलाल था, ने लगभग 15 वर्ष की अवस्था में प्रज्ञाचक्षु होते हुए भी पैदल ही गृह त्याग कर ऋषिकेश की ओर चल पड़े थे । जहां पहुंच कर उन्होंने गंगा की पावन गोद में लगातार 3 वर्ष तक कठोर गायत्री तप किया । जिसके फलस्वरुप इनके दिव्य चक्षु खुल गए और अपने शेष जीवन को मां सरस्वती के अर्पण करने हेतु वहां से मथुरा आकर अपनी कुटिया में छात्रों को पढ़ाना आरंभ कर दिया । यह कुटिया ही उनकी संस्कृत पाठशाला थी । इसी पाठशाला में गुरुवर दण्डी विरजानंद के चरणों में बैठकर सन् 1860 से 1863 तक महर्षि दयानंद ने व्याकरण आदि ग्रंथों का अध्ययन किया और गुरु दक्षिणा में गुरु को दिए वचन के अनुसार वैदिक धर्म को पुनः अस्तित्व में लाने के लिए कार्य क्षेत्र में उतर गए ।

करतारपुर एक तीर्थ

दादा गुरु विरजानंद जी की जन्म भूमि के बारे में अब कोई विवाद नहीं रहा । अब सभी इतिहास इस बात से सहमत हैं कि दादा गुरु दण्डी विरजानंद जी का जन्म करतारपुर के समीप बेई नदी पर स्थित गंगापुर नामक ग्राम में हुआ था । जो अब बाढ़ की भेंट हो चुका है । अतः करतारपुर विश्व के आर्यों के लिए टंकारा और मथुरा की तरह ही एक पुण्य तीर्थ है । जहां प्रतिवर्ष आर्यजन एक सम्मेलन के रूप में अपने दादा गुरु को श्रद्धांजलि अर्पित करते हैं

श्री गुरु विरजानंद स्मारक की स्थापना

सर्वप्रथम 1925 में मथुरा शताब्दी के अवसर पर आर्य जगत को दण्डी विरजानंद के जन्म स्थान करतारपुर होने का पता चला था । 1930 में इसी विषय में लाला देवराज जी की अध्यक्षता में एक सम्मेलन भी हुआ । इसके पश्चात एक सम्मेलन आचार्य रामदेव जी की अध्यक्षता में हुआ और स्थानीय आर्य समाज के साथी युवकों ने उस समय आस-पास के गांव में जाकर दण्डी जी के वंश के बारे में काफी जानकारी एकत्रित की । फिर भी उनकी स्मृति में कोई भवन विशेष नहीं बना सका ।  परंतु संकल्प शुद्ध रहा और लाहौर निवासी परम ऋषिभक्त महाशय बद्रीनाथ जी आर्य द्वारा प्रदान की गई 52 हजार रुपए की पवित्र राशि से करतारपुर में 24 फाल्गुन सं. 2012 तदानुसार 10 मार्च 1956 को स्मारक भवन का शिलान्यास आत्मानंद सरस्वती के कर कमलों से हुआ ।  24 भाद्रपद सं. 2012 तदनुसार 6 दिसंबर को जिसका उद्घाटन पूज्य स्वामी ज्ञानानंद जी वैदिक मिश्नरी भूतपूर्व मेहता जैमिनी ने किया ।

श्री गुरु विरजानन्द समिति ट्रस्ट का निर्माण एवं पंजीकरण

1 फरवरी 1966 से 28 फरवरी 1966 तक पूज्य महात्मा प्रभु आश्रित जी महाराज की अध्यक्षता में गुरु विरजानंद स्मारक करतारपुर में चारों वेदों का पारायण यज्ञ हुआ ।  इसी बीच 16 फरवरी 1966 को पूज्य महात्मा प्रभु आश्रित जी की अध्यक्षता में एक सभा के अंतर्गत समिति ट्रस्ट के निर्माण का निर्णय हुआ ।  जिसका ट्रस्टी शुल्क ₹ 250 रखा गया । सबसे पहले ट्रस्टी  महात्मा जी बने और भी अनेक महानुभावों ने सदस्यता ग्रहण की।

                 23 अगस्त 1966 को जालंधर की ही सुयोग्य वकील श्री लक्ष्मण जी ने ट्रस्ट का विधिवत पंजीकरण निःशुल्क कर दिया और स्मारक का कार्यभार एक तरह से पूज्य महात्मा जी ने अपने हाथों में ले लिया । परंतु दुर्भाग्यवश 16 मार्च 1967 को महात्मा जी का स्वर्गवास हो गया और समिति ने महात्मा जी के शिष्य स्वामी विज्ञानन्द जी को मुख्य संचालक तथा पूज्य महात्मा आनंद भिक्षु जी को सह संचालक बना दिया । उनके निर्वाण उपरांत महात्मा प्रभु आश्रित जी के परम शिष्य विनम्रता की मूर्ति पूज्य महात्मा दयानंद जी वानप्रस्थी इसका संचालन करते रहे । खेद है कि हृदय गति रुक जाने से 20 जनवरी 1989 को आप दिवंगत हो गए और एक तपस्वी संत के संरक्षण से यह ट्रस्ट वंचित हो गया ।

महात्मा प्रभु आश्रित यज्ञशाला

पूज्य महात्मा प्रभु आश्रित जी की स्मृति में एक भव्य यज्ञशाला के निर्माण की योजना बनाई गई ।  जिससे 1969 में श्री बाबू बिहारी लाल जी की सुपुत्री श्रीमती सुशीला देवी जी को ₹ 5000 की दानराशि के सहयोग से भक्तों की निर्धारित लाल जी की देखरेख में मूर्त रुप दिया गया ।

दण्डी विरजान्द  निर्वाण शताब्दी तथा स्मारक भवन का पुनरुद्धार

अश्विनी कृष्ण त्रयोदशी सोमवार संवत् 1925 तदनुसार 14 सितंबर 1968 को ब्रह्मर्षि  दण्डी विरजानंद जी महाराज ने देह त्याग किया था । अतः 1968 से ही निर्वाण शताब्दी मनाने का विचार हुआ ।जो सार्वदेशीक सभा के सहयोग से 5.10.69 से 12 10.69 तक शताब्दी पूर्व उत्सव के रूप में बड़ी धूमधाम से करतारपुर में मनाया गया । इस अवसर पर ब्रह्मचारी श्री गुरु चरण दास जी जिज्ञासु ने स्मारक भवन तथा यज्ञशाला के फर्शआदि का कार्यभार अपने ऊपर लिया । श्री जिज्ञासु जी के छोटे भाई श्री बैजनाथ जी गुप्ता , श्री सेठ शिव चंद्र अग्रवाल तथा श्री प्रकाश चंद्र जी  ने बाहरी ने भी इस कार्य में भरपूर सहयोग दिया श्री कृष्ण जी का निर्वाण शताब्दी समारोह 20.9.70 से 28.9.70 तक सोल्लास से मनाया गया । करतारपुर वासी आज भी उस उत्सव की चर्चा करते नहीं थकते । उस शताब्दी आयोजन में सर्वाधिक सहयोग स्मारक के संचालक पूज्य स्वामी विज्ञानंद जी तथा पंडित नंदलाल जी वानप्रस्थी कर रहा ।

डाक टिकट

श्री गुरु विरजानंद निर्वाण शताब्दी समारोह के उपलक्ष्य में डाकतार विभाग की ओर से 14 सितंबर 1971 को अनुप्रस्थ आकार की एक डाक टिकट भी जारी की गई जिसके माध्यम में स्वामी विरजानंद जी को आसन मुद्रा में दर्शाया गया है । 20 पैसे कि इस डाक टिकट की मुद्रण संख्या 30 लाख थी ।

संस्कृत विद्यालय की स्थापना

इस शताब्दी समारोह पर 27.9.1970 को दंडी स्वामी विरजानंद जी की स्मृति को स्थाई रूप देने के उद्देश्य से उनकी मथुरा की पाठशाला को भाती श्री पंडित धर्मदेव जी  विद्यामार्तण्ड द्वारा श्री गुरु विरजानंद वैदिक संस्कृत विश्वविद्यालय का उद्घाटन कराया गया । जो कालांतर में पूज्य स्वामी विरजानंद जी महाराज के संचालन में महाविद्यालय का रूप धारण कर लिया है 1970 में ही विद्यालय की श्रेणियों के उपयोगार्थ भवनमूर्ती में हीरो साइकिल, लुधियाना ने श्री दयानंद मुंजाल की पवित्र स्मृति में पहले कमरे का निर्माण कराया ।

गौशाला की स्थापना

29.10.1973 को दीपावली के दिन गुरुकुल में गौशाला की स्थापना हुई ।  1974 में गौशाला के भवन का निर्माण भी आरंभ कर दिया गया । आज गौशाला में कुल मिलाकर 35 पशु हैं  , जिनके आवास तथा चारे आदि का उत्तम प्रबंध है वर्षभर छात्रों को पर्याप्त मात्रा में दूध एवं लस्सी  आदि मिलता रहता है ।

गुरुकुल कांगड़ी विश्वविद्यालय से संबद्ध

1980 में गुरुकुल कांगड़ी विश्वविद्यालय के कुलपति श्री बलभद्र कुमार जी हूजा गुरुकुल के पारितोषिक समारोह पर करतारपुर पधारें और तभी एतत्विषयक सभी अर्हतायें पूरी करते हुए इस संस्कृत महाविद्यालय जो कि इससे पूर्व श्रीमद दयानंद आर्य विद्यापीठ गुरुकुल झज्जर रोहतक की शाखा के रूप में संस्कृत का प्रचार प्रसार करता रहा,  को गुरुकुल कांगड़ी विश्वविद्यालय के साथ जोड़ दिया गया । जिसे 1983 में विश्वविद्यालय ने विधिवत स्थाई मान्यता देकर अपनी शाखा के रुप में स्वीकार कर लिया

सरकार द्वारा मान्यता

1.     इस विद्यालय का संबंध गुरुकुल कांगड़ी विश्वविद्यालय हरिद्वार से है जो यूनिवर्सिटी ग्रांट कमीशन की धारा 3 के अधीन भारत सरकार द्वारा विश्वविद्यालय के समान मान्यता प्राप्त है।

2.  दशम श्रेणी उत्तीर्ण विद्यार्थी को “विद्याधिकारी” का प्रमाण पत्र प्रदान किया जाता है जो मैट्रिकुलेशन के समकक्ष है । बारहवीं श्रेणी उत्तीर्ण विद्यार्थी को “विद्याविनोद” का प्रमाण पत्र प्रदान किया जाता है जो इण्टरमिडीयट के समकक्ष है । स्नातक श्रेणी उत्तीर्ण विद्यार्थी को “वेदालंकार/ विद्यालंकार” का प्रमाण पत्र प्रदान किया जाता है जो स्नातक(B.A) के समकक्ष है । सभी विश्वविद्यालयों से मान्यता प्राप्त है इससे सरकारी नौकरी में कोई बाधा नहीं आती है ।

हिंदी टाइपिंग

स्मारक ट्रस्ट के प्रधान श्री चतुर्भुज जी मित्तल के सतत् प्रयास से हिंदी का कार्यक्षेत्र बढ़ाने तथा छात्रों के उज्जवल भविष्य के दृष्टिगत वर्ष 1974 में ट्रस्ट ने हिंदी टाइपिंग  की कक्षाएं आरंभ कर दी

सप्ताहिक सभाएं तथा अन्य सामाजिक प्रचार कार्य

छात्रों की प्रतिभा के विकास के लिए प्रति शनिवार को वाक्वर्धनी सभा तथा समय-समय पर आर्य वीर दल की संस्कृति सभाएं आयोजित होती रहती हैं जिनमें ब्रह्मचारी अपनी कविता मंत्र उच्चारण श्लोक उच्चारण संभाषण अंताक्षरी आदि द्वारा अपनी प्रतिभा का प्रदर्शन एवं विकास करते हैं । इनके अतिरिक्त संस्कृत विद्यालयों या विश्वविद्यालय द्वारा आयोजित प्रतियोगिताओं में सम्मिलित होकर भी छात्र अपनी प्रतिभा का विकास करते हैं जालंधर लुधियाना अमृतसर गगरेट हिमाचल प्रदेश आदि स्थानों की आर्य समाज युवा धर्मनिष्ठ लोक छात्रों के वेद पाठ संस्कृत कार्यक्रम योगासनों संगीतकार तथा आचार्य उपाध्याय के प्रवचन आदि के माध्यम से लाभ उठाते हैं इससे वैदिक प्रचार में सहयोग भी होता है तथा ब्रह्मचारियों का बौद्धिक विकास भी होता है ।