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‘‘लोकरंग-2’’ में लगे लिपटे कई रंग डा. राजेन्द्रप्रसाद सिंह

सुभाष चंद्र कुशवाहा लोक साहित्य और संस्कृति के प्रति एक समर्पित रचनाकार हैं। लोक संस्कृतियों के संवर्द्धन की दिशा में वह अपनी संस्था-लोकरंग सांस्कृतिक समिति के माध्यम से विगत चार वर्षों से सक्रिय हैं । उन्होंने कई गुमनाम लोक कलाकारों को प्रकाश में लाया है । ‘‘लोकरंग-1’’ में उन्होंने गुमनाम लोकनाट्य कलाकार रसूल के संबंध में सर्व प्रथम प्रमाणिक जानकारी उपलब्द्ध कराई है । उनका मानना है कि लोकगीत जन इतिहास का निरूपण करते हैं। इसलिए भारत के इतिहास को जानने के लिए सिर्फ राजा-रजवाड़ों और उनके विजय अभियानों को ही नहीं बल्कि लोकगीतों की वाचिक परंपरा को भी जानना होगा। कारण कि लोकगीतों की वाचिक परंपरा में ऐसे तमाम तथ्य जिंदा रह जाते हैं जो तोड़-मरोड़ कर लिखे गए इतिहास में नहीं हैं। अपने यहाँ कई शताब्दियों तक समाज और इतिहास की नियति को किसी देवता के हस्तक्षेप अथवा महान पुरुषों के प्रभाव के आधार पर समझा गया है, जबकि वास्तविकता का इतिहास और इतिहासकारों के उपलब्ध इतिहास में फर्क होता है। इतिहास लेखन में इतिहासकार कुछ छोड़ते हैं, कुछ जोड़ते हैं और कुछ का चयन करते हैं और इसे ही मानव-जाति के इतिहास की संज्ञा प्रदान कर दिया करते हैं। ऐसा इतिहास वस्तुतः राजनीतिक शक्ति मात्र का इतिहास होता है, जो भारी पैमाने पर हुई हत्याओं तथा अपराधों के इतिहास से भिन्न नहीं है। सुभाष चंद्र कुशवाहा ने लिखा है कि लोकगीत, जनसंघर्षों के प्राचीनतम दस्तावेज हैं। जनता की व्यथा, रुचि, कल्पना को अभिव्यक्त करने का सबसे पुराने माध्यम लोकगीत ही रहे हैं इसलिए ‘‘लोकरंग सांस्कृतिक समिति’’ ने लोक संस्कृतियों के संरक्षण की दिशा में पहले ‘‘लोकरंग-1’’ का प्रकाशन किया और अब ‘‘लोकरंग-2’’ पाठकों के सामने है। ‘‘लोकरंग-2’’ के संपादकीय में सुभाष चंद्र कुशवाहा ने लिखा है कि लोकसंस्कृति के सामाजिक पक्ष को दलितों ने उकेरा है। दलितों के यशस्वी कार्य इतिहास के पन्नों में नहीं बल्कि जनता की याददाश्त में जिंदा है। दलितों के ऐतिहासिक पुरुष ऐसे ही रहा करते हैं, कभी लोकगाथाओं में, कभी लोकगीतों मों और कभी गाँव के बाहर डीह-डिहवारों में। वे मंदिरों में स्थापित नहीं होते हैं। दलितों की वीरांगनाएँ सती मैया के चैरों में जीवित हैं। ‘‘लोकरंग-2’’ में एक अत्यंत महत्वपूर्ण लेख ‘‘बिहार के दलित कथानायकों का संघर्ष’’ है। इसे भीमराव गणवीर ने लिखा है। इसमें लेखक ने बिहार की दलित लोककथाओं में प्रतिरोध की छानबीन के लिए बिहार की दो दलित जातियों मुसहर और दुसाध के बीच प्रचलित लोककथाओं दीना-भद्री (मुसहर जाति), सूरमा सलहेस और रेशमा-चुहड़मल (दुसाध जाति) का चयन किया है। निश्चय ही दीना-भद्री, सलहेस और चुहड़मल के ओजस्वी एवं वीरतापूर्ण कार्य इतिहास में वर्णित नहीं हैं बल्कि लोककथाओं में जीवित है। डा0 जयप्रकाश कर्दम ने ‘‘लोक साहित्य में दलित संस्कृति’’ शीर्षक लेख में लिखा है कि जहाँ तक देवताओं का संबंध है, जाहरपीर या गुरु गुग्गा दलित समाज के सबसे बड़े देवता हैं। जाहर के विषय में कई प्रकार की कथाएँ प्रचलित हैं। जाहर की पूजा की जाती है और जाहर का जागरण किया जाता है। यह जागरण उसी प्रकार किया जाता है जैसा सवर्ण समाज में भगवती का जागरण किया जाता है। बात एकदम स्पष्ट है कि दलित समाज के प्रायः सभी ऐतिहासिक पुरुष, देवी-देवता और उनके यशस्वी कार्यों का वर्णन लोक साहित्य में है जिसे मुख्यधारा का इतिहास ने सावधानीपूर्वक अपने पन्नों में दर्ज नहीं किया है। ‘‘लोकरंग-2’’ में कई रंगों, कई पक्षों और कई रसों का अद्भुत समागम है। अभी हमने उसके दलित पक्ष की चर्चा की है। लोकगीतों के काव्यात्मक पक्ष को डा. सूर्यकांत त्रिपाठी ने रेखांकित किया है। सर्वप्रथम उन्होंने काव्य-शिल्प के स्तर पर भोजपुरी लोकगीतों की विशेषताएँ बतलाई है। तदुपरांत वे अलंकार पक्ष की चर्चा करते हुए लिखा है कि प्रायः शिष्ट साहित्य की उपमाएँ परंपरायुक्त होने के कारण घिसी-पिटी और उबाऊ लगती हैं जबकि इन गीतों की उपमाएँ ताजी और जीवंत हैं। उदाहरणार्थ- एक ही बँसवा के दुइ रे करैली एक बसुरी दुई बाँस रे। ‘‘लोकरंग-2’’ में कई प्रकार की लोकगाथात्मक नायिकाएँ हैं। एक नायिका कँवला है। वह राजा इंद्र की बेटी है। उसका लक्ष्मण से प्रेम की कहानी का वर्णन नंद किशोर तिवारी ने ‘‘कँवला बनाम लक्ष्मण जती गाथा’’ में किया है। दूसरी नायिका कलार सुंदरी है। कलार सुंदरी का लोकाख्यान छत्तीसगढ़ से संबंधित है। डा. रमाकांत श्रीवास्तव ने कलार सुंदरी पर अत्यंत ही रोचक लेख लिखा है। तीसरी नायिका रेशमा है। बिहार की लोकगाथाओं में रेशमा अत्यंत प्रसिद्ध है। वह चुहड़मल से एकतरफा प्यार करती है। कहानी के अंत में वह तपकुंड में कूद जाती है और भस्म हो जाती है। अश्विनी कुमार आलोक ने ‘‘भोजपुरी लोकगाथा रेशमा’’ में उसके जीवन-चरित्र का अत्यंत जीवंत वर्णन प्रस्तुत किया है। ‘‘लोकरंग-2’’ की रेखांकित करने लायक एक विशेषता यह है कि कई लोकसंस्कृतियों के रंग इसमें भरे पड़े हैं। इसमें भोजपुरी लोकगाथाएँ है। मैथिल संस्कृति का खेल ‘‘सामा-चकेबा’’ है। संताल जनजाति समाज और उसकी संस्कृति का वर्णन है। डोगरा संस्कृति के पग-चिन्ह हैं। ओडि़या लोक-नाट्य की पूरी परंपरा एवं इतिहास है। थारू और बोक्सा जनजाति की लोकसंस्कृति है। बंगाल का बाउल गान, बुंदेलखंड का आल्हा गायन और पूर्वांचल के झारी गीत कुल मिलाकर ‘‘लोकरंग-2’’ को पठनीय एवं संग्रहणीय बनाते हैं। पुस्तक-लोकरंग-2 प्रकाशक-सहयात्रा प्रकाशन प्रा0 लिमिटेड,सी-52/जेड-3, दिलशाद गार्डन, नयी दिल्ली-110095 मूल्य- पेपर बैक रु0 200, सजिल्द रु0 400

संपर्क सूत्र:- आयकर कार्यालय के पास गाँधीनगर, सासाराम (बिहार) मो.-9431917451