सदस्य:Ritu kumari raj/प्रयोगपृष्ठ

मुक्त ज्ञानकोश विकिपीडिया से
बौद्ध धर्म से संबंधित महत्वपूर्ण तथ्य और बौद्ध धर्म से सम्बंधित जानकारी


बौद्ध धर्म के उदय के महत्वपूर्ण कारण-[संपादित करें]

वैदिक कालीन सामाजिक व धार्मिक व्यवस्था में कठोरता, भेदभाव तथा यज्ञ व कर्मकांड स्थापित हो चुका था।इसी समय द्वितीय नगरीकरण की शुरुआत के साथ वाणिज्य – व्यापार की शुरुआत हुयी ।महाजनपदों के विकास के साथ स्थाई सेना व पेशेवर नौकरशाही का विकास हुआ। इससे राजा की शक्ति में वृद्धि हुई। राजनीतिक व आर्थिक शक्ति के विकास ने क्रमशः सामाजिक उपेक्षाओं को जगाया अर्थात् दोनों वर्ण (वैश्य एवं शूद्र) व्यवस्था में अपनी स्थिति को लेकर असंतुष्ट थे। अतः जब नये धर्मों(बौद्ध एवं जैन) का उदय हुआ तो बङी मात्रा में वैश्यों और शूद्रों ने इन धर्मों को प्रश्रय दिया। बौद्ध धर्मः शिक्षायें एवं सिद्धांत • बौद्ध धर्म के त्रिरत्न हैं – बुद्ध, धम्म, संघ । • बौद्ध धर्म के चार आर्य सत्य –

       दुःख
       दुःख समुदाय
       दुःख निरोध
       दुःख निरोध गामिनी प्रतिपदा (दुःख निवारण का मार्ग)।


• दुःख को हरने वाले तथा तृष्णा का नाश करने वाले अष्टांगिक मार्ग के आठ अंग हैं। जिन्हें मज्झिम प्रतिपदा अर्थात् मध्यम मार्ग भी कहते हैं। • अष्टांगिक मार्ग अष्टांगिक मार्ग के तीन मुख्य भाग हैं- प्रज्ञा ज्ञान, शील तथा समाधि। इन तीन प्रमुख भागों के अंतर्गत जिन आठ उपायों की प्रस्तावना की गई है वे इस प्रकार हैं-

          सम्यक् दृष्टि
          सम्यक् संकल्प
          सम्यक् वाणी
          सम्यक् कर्मान्त
          सम्यक् आजीव
          सम्यक् व्यायाम
          सम्यक् स्मृति
          
          सम्यक् समाधि   

• ===बौद्ध धर्म के चार आर्य सत्य –=== भगवान बुद्ध द्वारा उद्घघाटित ‘सत्य’ को ‘आर्य सत्य’ के नाम से जाना जाता है।यहाँ आर्य का अर्थ ‘श्रेष्ठ’ है। अर्थात् बुद्ध के चार सिद्धांत जीवन के ‘श्रेष्ठ सत्य’ हैं। इसका यह अर्थ भी माना जाता है कि ये ‘सत्य’ आर्य(श्रेष्ठ) पुरुष द्वारा उपदिष्ट हैं। बौद्ध-काल में ‘आर्य’ शब्द किसी जाति का सम्बोधन नहीं करते हुए शालीनता और सभ्यता के प्रतीक धे और इसीलिए भगवान बुद्ध के प्रमुख सूत्रों को ‘चार आर्य सत्य’ के नाम से प्रसिद्धि मिली प्रथम आर्य सत्य : दुःख है भगवान बुद्ध ने अपने जीवन के प्रत्यक्ष बहाव और निज-अनुभव के आधार पर प्रथम आर्य सत्य की उद्घोषणा यह की कि यदि हम जीवन के बाह्य स्वरूप में उलझे हुए हैं तो वहाँ मात्र दुःख ही है। जन्म, ज़रा, मृत्यु, चिंता, संताप, व्यग्रता, कष्ट, प्रिय का वियोग और अप्रिय का संयोग — ये सभी दुःख के प्रकार हैं। चाहे ढाई हज़ार वर्ष पहले का समय हो या अभी, परंतु इन सभी मन:स्थितियों से मनुष्य तब भी जूझ रहा था और आज भी इनसे दूर रहने की हर नाकाम कोशिश कर रहा है। भगवान बुद्ध के बताए मार्ग पर चलने के लिए प्रथम निर्णय अनिवार्य है कि जीवन में दुःख है और हमारी सभी कोशिशें वर्तमान और भविष्य में दुःख से दूर रहने की ही हैं। दुःख समुदाय' दुःख निरोध दुःख निरोध गामिनी प्रतिपदा (दुःख निवारण का मार्ग)।


बौद्ध संगीति[संपादित करें]

बौद्ध संगीति का तात्पर्य उस 'संगोष्ठी' या 'सम्मेलन' या 'महासभा' से है, जो महात्मा बुद्ध के परिनिर्वाण के अल्प समय के पश्चात् से ही उनके उपदेशों को संग्रहीत करने, उनका पाठ (वाचन) करने आदि के उद्देश्य से सम्बन्धित थी। इन संगीतियों को प्राय: 'धम्म संगीति' (धर्म संगीति) कहा जाता था। संगीति का अर्थ होता है कि 'साथ-साथ गाना'। इतिहास में चार बौद्ध संगीतियों का उल्लेख हुआ है

बौद्ध संगीति प्रथम[संपादित करें]

प्रथम बौद्ध संगीति का आयोजन 483 ई.पू. में 'राजगृह' (आधुनिक राजगिरि), बिहार की 'सप्तपर्णि गुफ़ा' में किया गया था। महात्मा गौतम बुद्ध के निर्वाण प्राप्त करने के कुछ समय बाद ही इस संगीति का आयोजन किया गया था। • इस संगीति में बौद्ध स्थविरों (थेरों) ने भी भाग था। • बुद्ध के प्रमुख शिष्य 'महाकस्यप' (महाकश्यप) ने इसकी अध्यक्षता की। • महात्मा बुद्ध ने अपनी शिक्षाओं को लिपिबद्ध नहीं किया था, इसीलिए संगीति में उनके तीन शिष्यों-'महापण्डित महाकाश्यप', सबसे वयोवृद्ध 'उपालि' तथा सबसे प्रिय शिष्य 'आनन्द' ने उनकी शिक्षाओं का संगायन किया। • इसके पश्चात् उनकी ये शिक्षाएँ गुरु-शिष्य परम्परा से मौखिक चलती रहीं, उन्हें लिपिबद्ध बहुत बाद में किया गया।

बौद्ध संगीति द्वितीय[संपादित करें]

द्वितीय बौद्ध सगीति का आयोजन वैशाली में किया गया था। इस संगीति का आयोजन 'प्रथम बौद्ध संगीति' के एक शताब्दी बाद किया गया। • एक शताब्दी बाद बुद्धोपदिष्ट कुछ विनय-नियमों के सम्बन्ध में भिक्षुओं में विवाद उत्पन्न हो गया। • इस विवाद के परिणामस्वरूप ही वैशाली में यह बौद्ध संगीति आयोजित हुई। • इस संगीति में विनय-नियमों को और भी कठोर बनाया गया। • जो बुद्धोपदिष्ट शिक्षाएँ अलिखित रूप में प्रचलित थीं, उनमें संशोधन कर दिया गया

बौद्ध संगीति तृतीय[संपादित करें]

तृतीय बौद्ध संगीति का आयोजन 249 ई.पू. में सम्राट अशोक के शासनकाल में पाटलीपुत्र में किया गया था। इस बौद्ध संगीति की अध्यक्षता तिस्स ने की थी। इसी संगीति में 'अभिधम्मपिटक' की रचना हुई और बौद्ध भिक्षुओं को विभिन्न देशों में भेजा गया। इनमें अशोक के पुत्र महेंद्र एवं पुत्री संघमित्रा को श्रीलंका भेजा गया था। • बौद्ध अनुश्रुतियों के अनुसार महात्मा बुद्ध के निर्वाण के 236 वर्ष बाद इस संगीति का आयोजन हुआ। • सम्राट अशोक के संरक्षण में तृतीय संगीति 249 ई.पू. में पाटलीपुत्र में हुई थी। • इसकी अध्यक्षता प्रसिद्ध बौद्ध ग्रन्थ ‘कथावत्थु’ के रचयिता तिस्स मोग्गलीपुत्र ने की थी। • विश्वास किया जाता है कि इस संगीति में 'त्रिपिटक' को अन्तिम रूप प्रदान किया गया। • यदि इसे सही मान लिया जाए कि अशोक ने अपना सारनाथ वाला स्तम्भ लेख इस संगीति के बाद उत्कीर्ण कराया था, तब यह मानना उचित होगा, कि इस संगीति के निर्णयों को इतने अधिक बौद्ध भिक्षु-भिक्षुणियों ने स्वीकार नहीं किया कि अशोक को धमकी देनी पड़ी कि संघ में फूट डालने वालों को कड़ा दण्ड दिया जायेगा। • इस संगीति के बाद भी भरपूर प्रयास किए गए कि सभी भिक्षुओं को एक ही तरह के बौद्ध संघ के अंतर्गत रखा जाये, किंतु देश और काल के अनुसार इनमें बदलाव आता रहा।

बौद्ध संगीति चतुर्थ[संपादित करें]

चतुर्थ बौद्ध संगीति, जिसे अंतिम बौद्ध संगीति माना जाता है, का आयोजन कुषाण सम्राट कनिष्क के शासनकाल (लगभग 120-144 ई.) में हुई। यह संगीति कश्मीर के 'कुण्डलवन' में आयोजित की गई थी। इस संगीति के अध्यक्ष वसुमित्र एवं उपाध्यक्ष अश्वघोष थे। अश्वघोष कनिष्क का राजकवि था। इसी संगीति में बौद्ध धर्म दो शाखाओं- हीनयान और महायान में विभाजित हो गया। हुएनसांग के मतानुसार सम्राट कनिष्क की संरक्षता तथा आदेशानुसार इस संगीति में 500 बौद्ध विद्वानों ने भाग लिया और 'त्रिपिटक' का पुन: संकलन व संस्करण हुआ। संगीति का आयोजन कनिष्क ने जब बौद्ध धर्म का अध्ययन शुरू किया, तो उसने अनुभव किया कि उसके विविध सम्प्रदायों में बहुत मतभेद है। धर्म के सिद्धांतों के स्पष्टीकरण के लिए यह आवश्यक है, कि प्रमुख विद्वान् एक स्थान पर एकत्र हों, और सत्य सिद्धांतों का निर्णय करें। इसलिए कनिष्क ने कश्मीर के कुण्डलवन विहार में एक महासभा का आयोजन किया, जिसमें 500 प्रसिद्ध बौद्ध विद्वान् सम्मिलित हुए। अश्वघोष के गुरु आचार्य वसुमित्र और पार्श्व इनके प्रधान थे। वसुमित्र को महासभा का अध्यक्ष नियुक्त किया गया था।

सन्दर्भ[संपादित करें]

http://www.asiantribune.com/node/85770 विश्व में बौद्ध धर्म

https://bharatdiscovery.org/india/%E0%A4%AC%E0%A5%8C%E0%A4%A6%E0%A5%8D%E0%A4%A7_%E0%A4%B8%E0%A4%82%E0%A4%97%E0%A5%80%E0%A4%A4%E0%A4%BF_%E0%A4%9A%E0%A4%A4%E0%A5%81%E0%A4%B0%E0%A5%8D%E0%A4%A5