सदस्य:Govind Ballabh Kargeti

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भारतीय वास्तुशास्त्र एवं स्थापत्यकला

          प्राचीन भारत मे ज्ञान की दो शाखाऐं प्रचलित थी (1) विद्या (2) उपविद्या। विद्या अर्थात् पारलौकिक आनन्द एवं मोक्ष की साधिका एवं उपविद्या लौकिक सुख-समृद्धि प्रदायिका। जगद्गुरु शंकराचार्य के शब्दों में ‘सा विद्या या विमुक्तये’  अर्थात् विद्या वही है जो मुक्ति दे। उपविद्या के अन्तर्गत कला के लिए पहले शिल्प शब्द का प्रयोग होता था बाद में कला शब्द का प्रयोग होने लगा। कला को भी दो भागों में विभाजित किया गया (1) ललित कला (2) शिल्पकला। नट्यशास्त्रीय कला ललित कला कहलाई तथा उपयोगी कला को शिल्पकला की संज्ञा दी गई। शिल्पकला का तात्पर्य वास्तुकला से है। वास्तुकला का ही शास्त्रीय रूप वास्तुशास्त्र है। वास्तुशास्त्र का स्वरूप बहुत ही व्यापक है इसमें सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड को अपने भीतर समाने की शक्ति है। यदि भारतीय सिद्धान्त ‘यथा पिण्डे तथा ब्रह्माण्डे’ के अनुसार वास्तुशास्त्र का चिन्तन किया जाए तो असंख्य तारों, आकाशगंगाओं एवं सौर परिवार सहित सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड भी एक प्रकार से प्राकृतिक वास्तु का ही स्वरूप हो सकता है जो परमात्मा की वास्तुकला का अनुपम उदाहरण है। भारतीय वास्तु अणोरणीयान् महतोमहीयान् है। सूक्ष्म से सूक्ष्म भी है और महान से महान भी, गृह चिंतन मे यह अणोरणीयान् तथा ब्रह्माण्ड चिंतन में यह विस्तृत स्वरूप धारण कर महतोमहीयान् स्वरूप में है। वास्तु भारतीय संस्कृति का ओजस्वी अंग है जहां पार्थिव एवं अपार्थिव दोनों का संगम है तथा भारतीय वास्तु सदैव ही भौतिक एवं अध्यात्म के बीच संतुलित अवस्था में है।
          वास्तुशास्त्र शब्द दो शब्दों के योग से बना है वास्तु एवं शास्त्र। वास्तु अर्थात् ‘वसन्त्यस्मिन्निति वास्तुः’ अर्थात् जहां निवास किया जाता है वही वास्तु है अतः सामान्य अर्थों में निवास योग्य भूमि वास्तु है एवं शास्त्र से तात्पर्य जिसमें नियमों एवं सिद्धान्तों का उल्लेख हो। अतः शास्त्र प्रस्तुत विषय पर शासन करता है तथा शास्त्र के अनुसार ही प्रस्तुत विषय पर चिन्तन किया जाता है। वास्तुशास्त्र का तात्पर्य वास्तुनिर्माण सम्बन्धी नियमों एवं सिद्धांतों से है अर्थात् जिसमें वास्तु सम्बन्धी नियमों एवं सिद्धान्तों का उल्लेख हो वह है वस्तुशास्त्र। प्राचीन भारतीय चिन्तनधारा ने स्थापत्यकला को वास्तु संज्ञा दी। देवता एवं मनुष्य जहां निवास करते हैं विद्वज्जन उसे वास्तु कहते हैं अतः निवास स्थान ही वास्तु है। 
           वस्तु विहीन साकार स्वरूप की कल्पना नहीं की जा सकती। प्राकृतिक अथवा कृतिम दोनों ही स्वरूपों में वस्तु विद्यमान रहता है अतः वस्तुविहीन साकार स्वरूप की कल्पना ही निरर्थक है। उसी वस्तु को यदि मनुष्यों द्वारा उपयोग में लाया जाए तो वह वास्तु कहलाता है। वास्तु को मानव जीवन के विशिष्ट उपयोगी विज्ञान के रूप में जाना गया है। देवशिल्पी विश्वकर्मा के अनुसार विद्वानों ने देवताओं, मनुष्यों तथा गज, गौ, घोडों आदि पशुओं के निवास स्थान अथवा निवास भूमि को वास्तु संज्ञा दी। विश्वकर्मा ने भी ईंट, पाषाण, काष्ट आदि तथा इनसे निर्मित कील-खूंटे और भवन निर्माण में काम आने वाली तथा अन्यत्र काम में आने वाली समस्त चीजों को वस्तु कहा है तथा वस्तुओं से निर्मित शिल्पकला को वास्तुकला कहा है।

देवशिल्पी विश्वकर्मा ने पशुओं आदि जीवों के निवास भूमि को भी वास्तु कहा है। इस प्रकार सिद्ध होता है कि वास्तु पशुओं के लिए भी उतना ही उपयोगी है जितना मनुष्यों के लिए। आवश्यकता है शुभ वास्तु की, जो सुख, सम्पत्ति, समृद्धि तथा सकारात्मक ऊर्जा प्रदान करे। इन्हीं की सिद्धि के लिए पुरातन ऋषियों ने शुभ वास्तु निर्माण सम्बन्धी सिद्धांतों का चिन्तन जनकल्याण हेतु वास्तुशास्त्र के रूप में किया।