सदस्य:Gcpanara/मध्यस्थ दर्शन सह-अस्तित्व वाद

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वैश्विक दार्शनिक प्रवाह में श्री ए. नागराज[1] द्वारा प्रतिपादित मध्यस्थ दर्शन (सह अस्तित्व वाद) एक नई खोज है। यह 'अस्तित्व के अनुभव' पर आधारित मानव-केंद्रित चिंतन है। मध्यस्थ दर्शन की विचारधारा भारत और दुनिया के विभिन्न हिस्सों में सह-अस्तित्व का दर्शन(Philosophy of Coexistence[2]), जीवन विद्या शिविर[3], चेतना विकास मूल्य शिक्षा[4](CVMS) तथा सार्वभौमिक मानवीय मूल्यों[5](UHV) के नाम से भी प्रचलित है। मध्यस्थ दर्शन के विचारों को प्रणेता श्री ए. नागराज जी द्वारा समग्र मानव जाति के कल्याण हेतु प्रस्तावित किया गया है। यहाँ पर ध्यान देने लायक तथ्य ये है की मध्यस्थ दर्शन (सह-अस्तित्ववाद) के सम्पूर्ण विचार को सार्वभौमिक व् सार्वकालिक तरीके से प्रस्तुत किया गया है। अर्थात , यह किसी भी व्यक्ति के धर्म, जाती, शैक्षणिक या आर्थिक पृष्ठभूमि लिए विशेष न होकर समग्र मानव जाती को उपयोगी हो सके ऐसी धरातल पर कहा गया है। मध्यस्थ दर्शन अस्तित्व की वास्तविकता पर आधारित स्वतंत्र विचार है जो कोई भी 'वेद', या 'हिंदू' धर्म या किसी अन्य विचारधारा या आस्था का स्वीकार तथा समर्थन नहीं करता है।

दर्शन परिचय[संपादित करें]

मध्यस्थ दर्शन (सह अस्तित्व वाद) को श्री नागराज जी ने वैकल्पिक विचार के रूप में प्रस्तावित किया है। वैकल्पिक विचार से आशय है कि यह वर्तमान में प्रचलित किसी भी आस्थावादी व् ईश्वर केन्द्रित कार्यक्रमों से सुख पाने के आदर्शवादी चिंतन अथवा भौतिक वस्तु सम्बंधित सुविधा का भोग कर सुख पाने वाले कोई भौतिकवादी विचार से अलग विचार प्रस्तुत कर रहा है। इस विचार का मूल आधार अनुभव मूलक मानव केन्द्रित चिंतन ज्ञान है। मध्यस्थ दर्शन का सम्पूर्ण विषय वस्तु सार्वभौमिक और सार्वकालिक है अर्थात यह सभी जगह - सभी समय एक जैसा ही रहता है। दुनिया के किसी भी कोने में रहता हुआ व्यक्ति किसी भी समय इस विचार को समझने के लिए सक्षम है, इसके लिए कोई विशेष लाक्षणिकता का होना जरुरी नहीं है।

धरती के सभी मानव को प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से प्रभावित कर रहे प्रमुख बिंदु जैसे की, वर्तमान स्थिति में धरती का ताप बढ़ते रहना (ग्लोबल वॉर्मिंग), जल एवं वायु का प्रदूषित होना तथा सभी मानव समुदायों की असुरक्षा बढ़ते जाना। जबकि, हमारी मूलभूत आवश्यकता है की धरती संतुलित बनी रहे, ऋतु संतुलन बना रहे, तथा धरती का हर मानव अक्षुण्ण बना रहे। यद्यपि, इन मुलभुत आवश्यकताओ को पूरा करने का सम्पूर्ण तार्किक, व्यवहारिक और जीने योग्य उपाय को मध्यस्थ दर्शन के वांग्मय में प्रस्तुत किया हुआ है।

इस धरती पर अवस्थित सभी जीवो में से केवल मानव ही यह सम्पूर्ण अस्तित्व का ज्ञाता (जानने वाला) है। जानने की संपूर्ण वस्तु तीन है; सहअस्तित्व के रूप में अस्तित्व, जीवन परमाणु तथा मानवीयता पूर्ण आचरण। इसको सरल भाषा में सहअस्तित्व का ज्ञान, जीवन का ज्ञान तथा मानवीयता पूर्ण  आचरण का ज्ञान बताया गया है। प्रकृति की प्रत्येक इकाई व्यापक सत्ता रूपी शून्यवकाश में है। यह शून्यवकाश प्रत्येक इकाई को एकसमान रूप से उपलब्ध है और यही मूल ऊर्जा का स्वरुप भी है। शून्यवकाश को ही व्यापक भी कहा है। प्रकृति में अवस्थित सभी इकाइयों की भिन्न लाक्षणिकताओ के आधार पर उन्हें चार अवस्था में वर्गीकृत किया गया है। पदार्थ अवस्था, प्राण अवस्था, जीव अवस्था और ज्ञान (मानव) अवस्था है। चारो अवस्थाओं के  ध्रुवबिंदु को पहचान कर इसे रूप - गुण - स्वाभाव और धर्म अनुसार वर्गीकृत किया है। (table)

मानव और प्रकृति में समाहित जमीन, हवा, पानी, वृक्ष, जीव जानवर, इत्यादि की परस्परता में पूरकता है। इन परस्परता को समझते हुए कोई भी कार्य को करने पर  दुनिया प्रत्येक मानव संतुष्ट जीवन जी सकता है। इसी को दार्शनिक भाषा में 'स्वयं में समाधान', अपने 'परिवार में समृद्धि', सामाजिक स्तर पर 'अभयता' और समग्र प्रकृति में 'संतुलन' की स्थिति बताया गया है। स्वयं का समाधानित होना अर्थात मेरे सभी 'क्यों और कैसे का उत्तर' मेरे पास होना। परिवार में समृद्धि अर्थात श्रम पूर्वक मेरे परिवार की आवश्यकताओं को पूरा करना। अभयता अर्थात सामाजिक स्टार पर किसी भी प्रकार के अमानवीय कृत्य का भय न रहना तथा संतुलन अर्थात प्रकृति की सभी इकाई की परस्परता में सेहत संतुलन की स्थिति निरंता बानी रहे। इस प्रकार की जीवनशैली को अपनाना प्रत्येक मानव की शुक्षम इच्छा रही है।

ऐतिहासिक पृष्ठभूमि[संपादित करें]

श्री ए. नागराज के मन में चल रहे कुछ अनुत्तरित प्रश्न का उत्तर पाने के लिए उन्होंने जो प्रयास किये उसके फलस्वरूप मध्यस्थ दर्शन (सह अस्तित्व वाद) एक अनुसन्धान के रूप में प्राप्त हुआ है। नागराज जी की जीवनी[6] पर आधारित पुस्तक में इसके बारे में लिखा गया है। श्री ए. नागराज जी मूलतः कर्नाटक (भारत) के हासन जिल्ले के अग्रहार गांव में रहते थे। उनके परिवार में वेद, दर्शन तथा उपनिषद का अध्ययन-श्रवण और उसके अनुसार उपासना तथा सेवा कार्य होता था। परिवार परंपरा में से सेवा व् श्रम प्रवृति को स्वकृति पूर्वक वहन करते हुए उसके विद्वत्ता पक्ष में श्री नागराज जी को कुछ प्रश्न उभरे। नागराज जी ने अपने परिवार के बुजुर्गो तथा विद्वानों के समक्ष अपने प्रश्नों को रखा तब प्रत्युतर में उन्हें वेद का अध्ययन करने का राह दिखाया गया। नागराज जी ने अपने मामाश्री से वेद की शिक्षा प्राप्त की परन्तु तत्पश्चात भी उनके प्रश्न अनुत्तरित रहे। इसके निराकरण हेतु नागराज जी अपने गुरु जी, उस समय के श्रृंगेरी शारदा पीठम के 34वें आचार्य श्री चंद्रशेखर भारती[7] जी से मिले और अपनी बात को रखा। इसके प्रत्युत्तर में गुरूजी ने उन्हें नर्मदा किनारे भजन(साधना) करने कहा और इसीसे उनको प्रश्नों का उत्तर मिलेगा ऐसा आश्वासन दिया।

तत्पश्चात साधना हेतु नागराज जी ने अपने परिवार और श्रीमती नागरत्ना जी से आज्ञा मांगी और सन 1950 ईसवी में नर्मदा नदी के उद्गम स्थान अमरकंटक के जंगल में साधना कार्य का आरम्भ किया। गृहस्थ जीवन का निर्वाह करते हुए नागराज जी रोजाना 12 से 18 घंटे तक पतंजलि योग सूत्र में बताई गई विधि के अनुसार साधना करते थे। धीरे धीरे साधना कार्य में अग्रिम स्थिति को पाते हुए नागराज जी ने समाधि की स्थिति को प्राप्त किया जिसमे उनके सारे ही आशा-विचार-इच्छा शांत हो गए। अंततः समाधि स्थिति पर पहुँचने पर भी उन्हें अपने प्रश्नों का उत्तर नहीं मिला। यहाँ से उन्होंने ‘संयम’ नाम की क्रिया को किया जिसके फलस्वरुप उन्हें पूरा अस्तित्व समझ में आया। सहस्तित्व में शरीर व् जीवन के संयुक्त रूप में अवस्थित मानव समझ में आया, अस्तित्व में ही व्यापक सत्ता रुप में जड़-चैतन्य प्रकृति का होना अनुभव हुआ। उन्होंने देखा की सम्पूर्ण प्रकृति सत्ता (परमात्मा) में डूबी, भीगी, घिरी है। सूक्ष्मतम परमाणु से लेकर विराट ग्रह तक की सभी संरचना और उसके कार्यान्वयन के सिद्धांत उन्हें समझ में आये। इस स्थिति को उन्होंने सत्ता में संपृक्त प्रकृति का अनुभव कहा और स्वयं को उसका जीता हुआ प्रमाण रूप में प्रस्तुत किया।

सन 1975 से उन्होंने अमरकंटक में अपने आसपास के लोगो को इस अनुभव की बात बताना शुरू किया। इस प्रकार नागराज जी ने अनुभव का लोक शिक्षा विधि से लोकव्यापीकरण करना प्रारंभ किया। इस क्रम में उनसे मिलने और चर्चा करने के लिए विविध क्षेत्रों के अनुभवी तथा नामचीन महानुभावों से लेकर गाँव के साधारण लोग आते रहे और वो सभी को अपने अनुभव से प्राप्त ज्ञान को बताया करते थे। नागराज जी लोकशिक्षा के साथ परिवार के निर्वाह के लिए कृषि-गौपालन और आयुर्वेद का अभ्यास करते थे। उनका यह क्रम समग्र जीवन पर्यंत ऐसे ही चलता रहा।

प्रमुख अवधारणाएँ[संपादित करें]

  • अस्तित्व सहअस्तित्व है। (सह-अस्तित्व-वाद)
  • अनुसंधान: गठन पूर्णता, क्रिया पूर्णता, आचरण पूर्णता
  • मानव लक्ष्य:
    • समाधान - क्यों और कैसे का उत्तर पाना। (क्यों जीना?, कैसे जीना?)
    • समृद्धि - प्राकृतिक नियम अनुसार परिवार सहज आवश्यकता से अधिक उत्पादन करना।
    • अभय - परस्पर न्याय सुलभता होना।
    • सहस्तित्व - चारों अवस्थाओ में संतुलन। नियम, नियंत्रण, संतुलन, न्याय, धर्म, सत्य पूर्वक जीना।
  • मानवीयता पूर्ण आचरण:
    • मूल्य - नौ स्थापित मूल्य, नौ शिष्ट मूल्य, छह मानव मूल्य, चार जीवन मूल्य, दो वस्तु मूल्य
    • चरित्र - स्वधन, स्व नारी/स्व पुरुष, दया पूर्ण कार्य-व्यवहार
    • नैतिकता - धर्म नीति, राज्य नीति
  • संबंध:
    • मानव-मानव (सात) - माता-पिता/पुत्र-पुत्री, भाई-बहन, गुरु-शिष्य, साथी-सहयोगी, मित्र-मित्र, पति-पत्नी, व्यवस्था संबंध
    • नैसर्गिक (तीन) - जीवावस्था के साथ, प्राणावस्था के साथ, पदार्थावस्था के साथ
  • संस्कारानुषंगी प्रणाली: मानव संस्कार पूर्वक अग्रिम विकास की स्थिति प्राप्त करता है।
  • अस्तित्व में प्रत्येक इकाई का अपने-अपने रूप, गुण, स्वाभाव और धर्म सहित नित्य वर्तमान रुप में अवस्थित होना।
  • अस्तित्व की समस्त इकाई का वर्गीकरण: पदार्थ (वस्तु), प्राण (पेड़-पौधे), जीव (पशु-पक्षी), ज्ञान (मानव) अवस्था।
  • मानवीय (मूल्य) शिक्षा-संस्कार के माध्यम से चेतना विकास।

अध्ययन पद्धति[संपादित करें]

इस दर्शन के अनुसार, ज्ञान अध्ययन के माध्यम से अभिव्यक्त, संप्रेषित और प्रकाशित करने योग्य है। मानव अपने व्यवहार(आचरण) द्रारा ही स्वयं के ज्ञान की स्थिति का प्रमाण देता है।

सामान्य: एक व्यक्ति की मध्यस्थ दर्शन को समझने की यात्रा लगभग 1 या 2 दिन के एक परिचयात्मक सत्र से शुरू होती है, जो की मूल विषय-वस्तु की एक झलक प्राप्त करने का माध्यम है। इसका अगला चरण परिचय शिविर (जीवन विद्या शिविर) है, जिसमे लोग 5 से 7 दिन के कार्यक्रम में शामिल होते है, जहाँ उन्हें मूल साहित्य में इंगित प्रमुख बिंदुओं का विहंगावलोकन करने का अवसर मिलता है। यहाँ से अगला चरण है लेखक द्रारा लिखित सम्पूर्ण मध्यस्थ दर्शन वांग्मय (पुस्तकों) का पठन करना। आम तौर पर पठन कार्यक्रम में भाग लेने वाले की सुगमता के अनुरूप सत्र को आयोजित किया जाता है। इस सत्र के दौरान दर्शन की रौशनी में जीवन लक्ष्य सुक्ष्म बिन्दुओ पर आपस में चर्चा करते हुए आगे बढ़ते है। पुस्तक पठन करने के लिए साथ में कोई वरिष्ठ व्यक्ति का मार्गदर्शन मिलना आवश्यक रहता है। पठन कार्यक्रम में शामिल होने के लिए देश के विभिन्न हिस्सों में कार्यरत कोई अध्ययन केंद्र पर जा कर अध्ययन सत्र में जुड़ने का अवसर प्राप्त रहता है।

  • संपूर्ण दर्शन वांग्मय में दर्शन, वाद, शास्त्र, संविधान और परिभाषा के पुस्तक समाविष्ट हैं।
    1. अस्तित्व मूलक मानव केन्द्रित चिंतन के आधार पर दर्शन (चार भाग)
      1. मानव व्यवहार दर्शन
      2. मानव कर्म दर्शन
      3. मानव अभ्यास दर्शन
      4. मानव अनुभव दर्शन
    2. दर्शनों पर आधारित विचार-वाद (तीन भाग)
      1. अनुभवात्मक अध्यात्मवाद
      2. समाधानात्मक भौतिकवाद
      3. व्‍यवहारात्‍मक जनवाद
    3. दर्शन-वाद के आधार पर शास्त्र (तीन भाग)
      1. व्यवहारवादी समाजशास्त्र
      2. आवर्तनशील अर्थशास्त्र
      3. मानव संचेतनावादी मनोविज्ञान
    4. मानवीय आचार-संहिता के रुप मे ‘संविधान सूत्र व्याख्या’
    5. परिभाषा संहिता (शब्दकोश)
    6. अन्य: संवाद भाग-1/2 (अध्येयेता और श्री ए नागराज की चर्चा), जीवन विद्या - एक परिचय (प्रारंभिक पुस्तक), विकल्प और अध्ययन बिंदु (पृष्ठभूमि और अध्ययन पाठ्यक्रम), दिव्य पथ (श्री ए नागराज की जीवनी)

वांग्मय के लेखक के अनुसार अभी तक विगत से चली आयी ईश्वरवाद और भौतिकवाद की नजरिया से मानव का अध्ययन सम्पन्न नहीं हुआ। यह सूचना देते हुए प्रसन्नता का अनुभव करता हूँ कि विकल्प अस्तित्व मूलक मानव केन्द्रित चिन्तन है। मध्यस्थ दर्शन-सहअस्तित्व में, से, के लिए मानव का अध्ययन संभव हो गया है। इस सूचना में यह भी प्रस्तुत कर रहे हैं कि सर्व मानव समझदार न्याय पूर्वक जी सकता है, हर समझदार परिवार समाधान-समृद्धि पूर्वक जी सकता है। यह शिक्षा विधि से सर्व सुलभ होने की व्यवस्था है।[8]

शैक्षणिक पहलु एवं प्रयोग[संपादित करें]

मध्यस्थ दर्शन के अनुसार, वर्तमान में प्रचलित शिक्षा प्रणाली के माध्यम से शिक्षा प्राप्त व्यक्ति जाने अनजाने में प्राकृतिक संपदाओ का अपव्यय एवं ऋतू असंतुलन में बढ़ावा होने वाले कार्यक्रमों में न चाहते हुए भी भागीदार होना स्पष्ट देखा जाता है। तदुपरांत जिस प्रकार का सामाजिक और राजनैतिक ढांचा प्रचलन में है उसके प्रभाव से व्यक्ति दिन प्रतिदिन स्वयं को ज्यादा असुरक्षित अनुभव कर रहा है।[9] वर्ग या समुदाय मानसिकता से अभी तक इन समस्याओ का स्थायी समाधान सुलभ नहीं हुआ है।[10] इसके मूल में लाभोन्माद अर्थात कम वस्तु दे कर ज्यादा वस्तु पाने की अपेक्षा रखना, भोगोन्माद अर्थात अधिक से अधिक साधन-सुविधा को भोग कर सुख प्राप्त करना और कामोन्माद अर्थात कामुकता/सेक्स के द्रारा इन्द्रियों को तृप्त करने की मानसिकता का विशेष प्रभाव लोगो की मनोस्थिति पर दीखता है। मनुष्य में वैचारिक स्तर पर पाई जाती सामाजिक, आर्थिक और राजनितिक वैविध्यता के कारण परस्पर अंतर्विरोध और द्वेष भावना का जन्मा होता है जो क्रमशः बढ़ते हुए आखिर में वर्ग संघर्ष तक जाता है। यही समस्या शिक्षा के अधूरेपन को दर्शाता है।

एक निश्चित शिक्षा प्रणाली, सर्व मानव को स्वीकृत हो ऐसी शिक्षा की विषय वस्तु का होना प्रमुख आवश्यता है। तदुपरांत, परिवार और समाज की जिम्मेदारी का ढांचा रखते हुए मध्यस्थ दर्शन में चेतना विकास मूल्य शिक्षा (व्यवहार) और तकनीकी शिक्षा (कौशल) के माध्यम से 'शिक्षा में पूर्णता' को प्राप्त करने का मोडल प्रस्तावित किया गया है।[11] यहाँ पर शिक्षा में पूर्णता से आशय है की शिक्षा प्राप्त किया हुआ हर मानव स्वयं में विश्वास, श्रेष्ठता का सम्मान, व्यवसाय(उत्पादन) में स्वावलंबी, व्यव्हार में सामाजिक, प्रतिभा(ज्ञान,विवेक,विज्ञानं) में संतुलन और व्यक्तित्व(आहार,विहार,व्यव्हार) में संतुलन को पा सके तथा शिक्षा के माध्यम से ही न्याय-अन्याय, धर्म-अधर्म और सत्य-असत्य की निर्धारण क्षमता को विकसित करना। ऐसी शिक्षा को मानवीय शिक्षा (humane education[12]) के नाम से जाना जाता है।

दर्शन के व्यवहारिक पक्ष की महत्ता को शिक्षा में सम्मिलित करना चाहिए ऐसी मान्यता का समर्थन कर रहे शिक्षा संस्थान ने अपने स्तर पर विविध प्रयोग शुरू किये है।

मध्यस्थ दर्शन के प्रमुख बिन्दुओ को वर्तमान शिक्षा की विषय-वस्तु के साथ शामिल किए हुए प्रमुख शिक्षा संस्थान की सूचि:[संपादित करें]

अनुसंधान कार्य[संपादित करें]

  1. A Study of Content analysis of the curricula related to Value Education based on Madhaystha Darshan Sha astitvavada and its effect[14]
  2. Consciousness Development for Promoting Intellectual, Cultural, Economic, Religious and Social Integration[15]
  3. सह अस्तित्ववाद मध्यस्थ दर्शन के शैक्षिक निहितार्थ[16]
  4. Universal Human Values for Consciousness Development as Value Education in Technical Education[17]- International Journal of Emerging Technologies and Innovative Research
  5. Human Values in Academic Institution - A Case Study of IIIT-Hyderabad[18]
  6. A Foundation Course in Human Values and Professional Ethics[19]

सांस्कृतिक कार्यक्रम व् सामूहिक मिलन[संपादित करें]

  • ‘जीवन विद्या राष्ट्रीय सम्मेलन’ एक वार्षिक सांस्कृतिक कार्यक्रम है। 1996 से प्रत्येक वर्ष देश के विभिन्न हिस्सों में 2 या 3 दिन के सम्मलेन का आयोजन होता आ रहा है। कार्यक्रम में हिस्सा लेने के लिए देशभर में दर्शन को जीने व् समझने में लगे हुए लोग एक-दूसरे से मिलते हैं। सम्मेलन में कुछ निश्चित कार्यक्रम रहते है जैसे, लोगो द्वारा श्रम पूर्वक उत्पादित वस्तुओं के एक्सचेंज स्टॉल, विविध लोकव्यापीकरण तथा अध्ययन कार्यक्रमों की गतिविधियां साझा करना, परिवार या बड़े समूह के रूप में जो भी प्रयोग या शोध कार्य हो रहा हो उससे सभी उपस्थित लोगो को माहितगार करना, व्यावहारिक मुद्दों पर विविध वक्ताओ की प्रस्तुतियां, तथा स्वास्थ्य-शिक्षा-संबंध जैसे मुद्दों पर समूह चर्चा करने जैसे कार्यक्रम शामिल रहते है।
  • युवा सम्मेलन (Youth Confluence 2019): युवा आयु वर्ग से जुड़े हुए मुद्दों के लिए 3 दिवसीय मिलन कार्यक्रम। सामान्य तौर पर इसमें देशभर के युवा एक प्लेटफार्म पर मिलते है। सम्मलेन का मुख्य उद्देश्य है की युवाओ में आपसी मैत्री बने और नौकरी/व्यवसाय, विवाह, परिवार, विज्ञान, आध्यात्मिकता, स्वयं की पहचान, पर्यावरण, राजनीति और व्यक्तित्व विकास जैसे मुद्दों पर प्रस्तुति, समूह चर्चा व् विषय के अनुभवी महानुभाव द्वारा मार्गदर्शन प्रदान किया जाये। युवा आयु में दर्शन की गहन बातो को समझने और जीने के क्रम में युवा जो भी कठिनाईयों से जूझ रहे है उसके उपाय तक पहुँचने हेतु यह कार्यक्रम का आयोजन किया जाता है।
  • तदुपरांत कुछ विशेष अध्ययन और शोध (गोष्ठी समूह) समूह विभिन्न क्षेत्रों में सक्रिय हैं। इनका उद्देश्य दर्शन के सैद्धांतिक पक्ष को अपनी जीवनशैली में लाने हेतु चर्चा-विमर्श करना और आवश्यकतानुसार योजना बनाकर प्रयोग करना। सामान्यत: इसमें स्थानीय भाषाओं में चर्चा होती है और स्थान विशेष की सामाजिक तथा भौगोलोगिक परिस्थिति के अनुरूप कार्य योजनाओ का ढांचा तैयार किया जाता है।

जीने का अभ्यास - एक सार्वभौमिक प्रस्ताव[संपादित करें]

श्री ए. नागराज ने व्यक्ति की वर्तमान स्थिति से एक क्रमिकता के साथ आगे बढ़ने के लिए 3 योजना प्रस्तावित की है। लोग अपनी अनुकूलता के आधार पर इन योजना में सक्रिय रहते हुए मध्यस्थ दर्शन को समझने और अभ्यास करने की प्रक्रिया में आगे बढ़ते है।

  1. जीवन विद्या योजना
  2. मानव संचेतनावादी शिक्षा-संस्कार योजना
  3. परिवार मूलक स्वराज्य व्‍यवस्‍था

प्रचार माध्यमों में उल्लेख[संपादित करें]

  1. National Conference on Value Education via Jeevan Vidya[20] - IIT-Delhi (2007)
  2. Jeevan Vidya Experience - APJ Abdul Kalam - National Awakening - Address to the Nation on the Eve of 60th Independence Day
  3. Ensuring Values Through Education - Jeevan Vidya Workshop - DoE Delhi, 2018

डाऊनलोड[संपादित करें]

नोट: दर्शन का साहित्य डाउनलोड करने के लिए उपलब्ध है परंतु इसका सर्वाधिकार दिव्य पथ संस्थान - अमरकंटक (एम.पी.) के पास सुरक्षित है।

संदर्भ[संपादित करें]

  1. "A Nagraj - The Propounder of Philosophy of Coexistence". Centre for Harmonious Coexistence.
  2. "Brief about the Philosophy of Coexistence".
  3. "Jeevan Vidya Shivir Information".
  4. "चेतना विकास एवं मूल्य शिक्षा प्रकोष्ठ (जीवन विद्या) - SCERT Raipur".
  5. "Universal Human Values - Existence is Coexistence".
  6. Pal, Surendra. Divya Path (2017 संस्करण). Amarkantak: Jeevan Vidya Prakashan.
  7. "List of Jagadgurus of Shri Shringeri Math".
  8. विकल्प एवं अध्ययन बिंदु. अमरकंटक: जीवन विद्या प्रकाशन. 2011. पपृ॰ प्राक्कथन.
  9. "Human Achievements Challenges and Necessities".
  10. मानव व्यव्हार दर्शन. अमरकंटक: जीवन विद्या प्रकाशन. 2011.
  11. मानव अभ्यास दर्शन. अमरकंटक: जीवन विद्या प्रकाशन. 2010.
  12. "The Coexistence - Value Based Education - Humane Education".
  13. Sisodia, Manish (2019). Shiksha (Hindi/English में). Gudgaon: Penguin Books. आई॰ऍस॰बी॰ऍन॰ 0143448528.सीएस1 रखरखाव: नामालूम भाषा (link)
  14. Chawda, Heena (2017). "A Study of Content analysis of the curricula related to Value Education based on Madhaystha Darshan Sha astitvavada and its effect". Inflibnet Shodhganga – वाया Department of Education, Institute of Advanced Studies in Education (IASE) - Gandhi Vidya Mandir (GVM) - Churu, Rajasthan.
  15. Gowri Srihari, Shriram Narasimhan (2020). "Consciousness Development for Promoting Intellectual, Cultural, Economic, Religious and Social Integration". Contemporary Issues in South Asia – वाया Nova Publishers.
  16. Kumar, Ravi (2018). "Sah astitvavaad madhyasth darshan ke shaikshik nihitarth". Inflibnet Shodhganga – वाया Department of Education - Institute of Advanced Studies in Education (IASE) - Gandhi Vidya Mandir, Churu, Rajasthan.
  17. Kolte M. T. (Dr.), Shriram Narshihan, Pal Surendra (2018). "Universal Human Values for Consciousness Development as Value Education in Technical Education" (PDF). International Journal of Emerging Technologies and Innovative Research: 643–644.
  18. "Human Values in Academic Institution A Case Study of IIIT-Hyderabad" (PDF). IITD.AC.IN.
  19. Gaur R. R. - Sangal R., Bagaria G. P. (2009). A Foundation Course in Human Values and Professional Ethics (English में). New Delhi: Excel Books.सीएस1 रखरखाव: नामालूम भाषा (link)
  20. "National Conference on Value Education via Jeevan Vidya". IIT Delhi. 2007.