सदस्य:BuddhaAnuyayi/प्रयोगपृष्ठ

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सुनीत

एक दिन बुद्ध और भिवरु गगा तट पर स्थित एक गाव मे भिक्षा मागने जा रहे थे तो बुद्ध ने एक व्यक्ति को मल-मूत्र ले जाते देखा जिसका नाम सुनीत था। उसने वुद्ध का नाम तो सुना था लेकिन देखा पहली बार था। उसके कपडे बेहद गदे थे और उनसे मल-मूत्र की गध आ रही थी। वह रास्ते से हटकर गंगा के किनारे की ओर बळ गया। किन्तु बुद्ध तो सुनीत को धर्म की देशना देने पर तुले हुए थे। सुनीत के रास्ता बदलने पर बुद्ध भी उसी ओर बढ गये। बुद्ध की इच्छा समझकर सरिपुत्त और मेघीय नामक भिक्खु भी उनके पीछे चल पडे। अन्य भिक्खुओ ने चलना बद कर दिया और चहीं रुक गये।

सुनीत घबरा गया। उसने मैले की बाल्टिया एक तरफ डाली और कहीं भी छिपने का प्रयत्न करने लगा। कुछ समझ मे न आने पर वह घुटनो पानी मे नदी मे उतर गया और हाथ जोडकर खडा हो गया। सुनीत ने रास्ता इसलिए छोडा था जिससे बुद्ध और भिक्खु अपवित्र न हो जाए। उसे पता था कि वह अछूत है और भिक्खुओ में उच्च वर्ण के बहुत से लोग हैं। इन्हे अपवित्र करना तो अक्षम्य अपराध होगा। उसे आशा थी कि नदी मे घुस आने पर, बुद्ध उसे छोडकर अपनी राह पर चल पडेगे। किन्तु बुद्ध कहा छोडने वाले थे। वह पानी के किनारे तक गये और कहा.-मित्र मेरे समीप आओ, ताकि हम एक-दूसरे से बात कर सके।'

सुनीत ने हाथ जोडे ही कहा, "प्रभु, मै ऐसा करने का साहस कैसे कर सकता हू ?"

"क्यो नहीं ?" बुद्ध ने पूछा।

"मै एक अस्पृश्य हू और आपको तथा भिक्खुओ को अपवित्र करना नही चाहता।

वुद्ध ने उत्तर दिया, 'हमारे सद्धर्म मार्ग मे जाति-पाति का कोई भेद-भाव नहीं है। तुम भी हमारी भाति एक मानव हो। हमे अपवित्र होने का भय नहीं है। केवल लोभ, घृणा और अमर्ष ही हमे अपवित्र कर सकते हैं। तुम जैसा बढिया व्यक्ति तो हमारे लिए आनद के अतिरिक्त किसी बात का कारण बन ही नहीं सकता। तुम्हारा नाम क्या है 2"

"प्रभु, मेरा नाम सुनीत है।

"सुनीत, क्या तुम औरो के समान भिक्खु बनना चाहोगे ?"

"मै नहीं वन सकता।"

"क्यों नहीं ?"

"क्योंकि मै अस्पृश्य हू।

"सुनीत, मै तुम्हे बता चुका हू कि सबोधि के मार्ग मे जाति का कोई स्थान नहीं। जिस प्रकार गगा, यमुना, अचिरावती, माही और रोहिणी नदिया समुद्र मे मिल जाने पर अपना पृथक अस्तित्व खो देती हैं, ऐसे ही जो व्यक्ति गृह-त्यागकर सद्धर्म का मार्ग अपना लेता है, उसकी जन्म-जात जाति छूट जाती है, भले ही वह ब्राह्मण, क्षत्रिय, चैश्य, शूद्र अथवा अस्पृश्य जाति

284 सुनीत ने विरोध करते हुए कहा, 'प्रभु, मैं आपके समीप आने की हिम्मत नहीं कर सकता, क्योकि मै एक अस्पृश्य हूं.

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में ही क्यो न जन्मा हो। सुनीत, यदि तुम चाहो तो शेष लोगो की भाति तुम भी भिक्खु वन सकते हो।'

सुनीत को अपने कानो पर विश्वास नहीं हुआ। उसने अपने जुडे हाथ माथे से लगाये और कहा, "अव तक किसी ने इतनी दयापूर्वक मुझसे वात नहीं की है। आज का दिन मेरे लिए सर्वाधिक प्रसन्नता का दिन है। यदि आप मुझे अपना शिष्य वना लेते है तो मैं अपनी समस्त चेतना के साथ आपकी शिक्षाओ के अनुरूप चलुगा।

युद्घ ने अपना भिक्षा-पात्र मेघीय के हाथ मे पकडाया और बढकर सुनीत का हाथ पकडु लिया और सारिपुत्त से कहा-.'सारिपुत्त, सुनीत को नहलाने में मेरी सहायता करो। हम इसे नदी तट पर ही भिक्खु की प्रवृज्या देगे।

मान्य सारिपुत्त मुस्कराये और अपना भिक्षा-पात्र जमीन पर रखकर बुद्ध की सहायता के लिए वळ गये। जब सारिपुत्त और वुद्ध उसे रगड-रगडुकर नहला रहे थे तो वह भीतर से कसमसा तो रहा था किन्तु की हिम्मत नहीं हुई। वुद्ध ने मेघीय से ऊपर जाकर आनद से एक चीवर ले आने के लिए कहा। सुनीत को प्रवृज्या देने के वाद उसे सारिपुत्त की देख-रेख में शिक्षा पाने की व्यवस्था कर दी। सारिपुत्त उसे लेकर जेतवन चले गये और मभिक्खुओ के साथ, वुद्ध भिक्षाटन के लिए वढ गये।

स्थानीय लोगो ने यह सब घटित होते स्वय देखा था। शीघ्र ही यह समाचार फैल गया कि वुद्ध ने एक अस्पृश्य को संघ मे सम्मिलित कर लिया है। इससे राजधानी मे उच्च वर्ण के लोगो मे खलबली मच गयी। कौशल के इतिहास मे अव तक किसी अस्पृश्य को धार्मिक सप्रदाय मे सम्मिलित नहीं किया गया था। वहुत से लोगो ने पवित्र परम्पराओं का वुद्ध द्वारा उल्लंघन किये जाने की निन्दा की। अन्य लोगो ने तो यहा तक कहा कि बुद्ध वर्तमान व्यवस्था को उखाड फेकने और देश को आपदा मे डालने का षड्यत्र कर रहे हे।

इन आरोपों के समाचार उपासकों तथा भिक्लुओ के द्वारा विहार तक पहुचे। वुद्ध के वरिष्ठ शिष्यों सारिपुत्त, महाकाश्यप महामौद्गल्यायन और अनिरुद्ध ने चुद्ध के साथ इस विपय पर गहन विचार-विमर्श किया। चुद्ध ने कहा कि "संघ मे अस्पृश्य को सम्मिलित करना तो मात्र समय की वात थी। हमारे सद्धर्म मार्ग मे सभी समान हैं ओर किसी प्रकार का भैद-भाव नहीं बरता जाता। सुनीत को प्रवृज्या देने से हमे आज भले ही कुछ कठिनाइयो का सामना करना पडे, किन्तु हमने इतिहास मे पहली बार अस्पृश्यों के लिए

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द्वार खोले हैं और भावी पीढिया हमे इसके लिए धन्यवाद देगी। हमे साहस रखना चाहिए।'

मौद्गल्यायन ने कहा कि "हममे साहस और सहनशीलता की कमी नहीं है। लेकिन हम भिक्खुओ के साधना-मार्ग को सुगम बनाने के लिए जनमत के विरोध को किस प्रकार कम कर सकते है ?"

सारिपुत्त ने कहा, "महत्त्वपूर्ण वात यह है कि हम अपनी साधना पर विश्वास रखे। मै पूरा प्रयास करूगा कि सुनीत साधना मे अच्छी प्रगति करे। उसकी सफलता ही हमारे पक्ष मे सवसे चडी दलील होगी। हमे समता का सिद्धान्त लोगो को समझाने के मार्ग खोजने पडेगे। आपका क्या विचार है वोधिसत्व ?"

वुद्ध ने सारिपुत्त के के पर हाथ रखकर कहा.'आपने मेरे ही विचार व्यक्त किये है।

शीघ्र ही सुनीत को प्रवृज्या देने का समाचार राजा प्रसेनजित के कानो तक भी पहुंचा। धार्मिक नेताओ ने राजा से भेट करके इस प्रश्न को लेकर गहरी चिन्ता व्यक्त की। उनकी तर्कपूर्ण दलीलों से राजा भी विचलित हो गये और बुद्ध के प्रति भक्ति-भाव रखने के चाद भी उन्होने कहा कि वह धार्मिक नेताओ की आपत्तियो पर विचार करेंगे। कुछ दिन बाद वह स्वय ही जेतवन जाकर चुद्ध से मिले।

विहार के बाहर ही अपना रथ रुकवाकर वह पैदल ही बुद्घ की कुटिया की ओर चल दिये। वह प्रत्येक भिक्खु कों नमन करते गये और भिव्रखुओ की शान्त सौम्य मुद्रा से उनमे वुद्ध के प्रति विश्वास-भाव दृढ हुआ। बुद्ध की कुटी से पहले ही एक भिक्खु बड्डी चट्टान पर भिक्खुओ के छोटे दल और उपासकों के समक्ष प्रवचन कर रहा था। वह बहुत ही मनोहारी दृश्य था। प्रवचन करने वाले भिक्खु की आयु चालीस से कुछ कम ही थी किन्तु उसके मुख पर शाति और विद्वत्ता की झलक साफ दिख रही थी। सभी श्रोता ध्यान से उसका प्रवचन सुन रहे थे। राजा जरा ठिठके और सोचा कि यह भिक्खु क्या कह रहा है, उसे ध्यान से सुने तो। किन्तु जब उन्हे अपने आने का उद्देश्य याद आया तो वह आगे बढ गये और सोचा कि मैं यह प्रवचन वापसी मे सुनूगा।

चुद्ध ने महाराज का अपनी कुटिया के बाहर स्वागत किया। आरभिक शिष्टाचार के बाद, राजा को उन्होने कुर्सी पर बैठाया। राजा ने पूछा कि चट्टान पर चैठा, प्रवचन करने वाला भिक्खु कौन है ? वुद्ध प्रश्न सुनकर

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मुस्कराकर बोले, वह भिक्खु सुनीत था। कभी बह अस्पृश्य था और मल-मूत्र ढोता था। आपको उसका प्रवचन कैसा लगा ?"

महाराज उलझन मे पडु गये। इतना प्रभावशाली भिक्खु सुनीत था। उन्होने कभी अनुमान भी न लगाया था कि ऐसा होना सभव हो सकता है। महाराज कुछ कहे, उससे पहले ही वुद्ध ने कहा, "प्रवृज्या लेने के दिन से ही सुनीत समर्पित भाव से साधना-अभ्यास मे जुटा हुआ है। वह वहुत ही निष्ठावान, समझदार और दृढ सकल्प का धनी व्यक्ति है। यद्यपि उसे प्रवृज्या ग्रहण किये, अभी तीन ही महीने हुए हैं। किन्तु इस समय मे उसने श्रेष्ठता और शुद्ध-हृदयता का परिचय दिया है। क्या आप उससे मिलना चाहेगे और इस योग्य भिक्खु को कुछ उपहार देना चाहेगे ?"

महाराज ने साफ-साफ कहा, "मैं उससे मिलना भी चाहुगा और उपहार भी देना चाहुगा। गुरुवर, आपकी शिक्षाए बडी गूढ और अद्भुत हैं। मै अब तक आप जैसे आध्यात्मिक नेता से नहीं मिला, जिसका हृदय और चित्त इतना उन्मुक्त हो। मैं नहीं समझता कि कोई व्यक्ति, पशु या वृक्ष-पौधा ऐसा नही जो आपकी सदाशयतापूर्ण उपस्थिति से प्रभावित न हो। सच तो यह हे कि मैं आज इस इरादे से आया था कि आपसे पूछू कि आपने एक अस्पृश्य को संघ मे कैसे सम्मिलित कर लिया। लेकिन उस क्यो का उत्तर मैने अपनी आखो से देख, कानो से सुन और समझ लिया है। अव मैं आप से यह प्रश्न करने का साहस नहीं कर सकता। मैं आपके समक्ष प्रणत हू।

राजा उठने लगे तो वुद्ध ने उनको चैठा लिया और राजा का हाथ अपने हाथ में ले लिया और उन्हे चैठाकर वुद्ध ने कहा, "महामहिम, आत्म-मुक्ति के मार्ग मे जाति का कोई भेद नही। चेतनावस्था प्राप्त करने वाले व्यक्ति के समक्ष सभी समान होते है। हर व्यक्ति का खून लाल होता है और हर ब्जीम्हें के आसू खारे। हम सभी मानव हैं। हमे ऐसा मार्ग खोजना होगा, जिससे प्रत्येक व्यक्ति अपने सम्मान और सभावनाओ की पूर्ण प्राप्ति कर सके। इसीलिए मैंने सुनीत को भिक्खु सघ मे सम्मिलित कर लिया है।

राजा ने हाथ जोडकर कहा, 'मै समझता हू। मै यह भी जानता हू कि आपने जो मार्ग चुना है, उसमे वाधाए और कठिनाइया तो अवश्य आएगी। किन्तु में यह भी देख रहा हू कि आपमे उन सभी बाधाओं का सामना करने की शक्ति और साहस है। मै अपनी ओर से, आपकी सत्य शिक्षाओ का समर्थन करने के लिए अपनी शक्ति भर पूर्ण प्रयत्न करूगा।

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युद्ध से विदा लेकर महाराज उस चट्टान की ओर गये जहा वह भिक्खु प्रवचन कर रहा था जिससे उसका प्रवचन सुन सके। किन्तु भिक्खु सुनीत और उसके श्रोतागण जा चुके थे। राजा ने थोडे से भिक्खुओ को देखा जो धीरे-धीरे सचेतनता के साथ मार्ग पर विचरण कर रहे थे।

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