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मोटे अक्षर 'कालिंजर दुर्ग मोटे अक्षर

कालिंजर अर्थात तिरछे अक्षरजिसने समय पर भी विजय पा ली हो – काल: अर्थात समय, एवं जय : अर्थात विजय। हिन्दू मान्यताओं के अनुसार सागर मन्थन उपरान्त भगवान शिव ने सागर से उत्पन्न हलाहल विष का पान कर लिया था एवं अपने कण्ठ में ही रोक लिया था, जिससे उनका कण्ठ नीला हो गया था, अतः वे नीलकण्ठ कहलाये। तब वे कालन्जर आये व यहाँ काल पर विजय प्राप्त की। इसी कारण से कालिन्जर स्थित शिव मन्दिर को नीलकंठ भी कहते हैं। तभी से ही इस पहाड़ी को पवित्र तीर्थ माना जाता है.पद्म पुराण में इस क्षेत्र को नवऊखल यानि सात पवित्र स्थलों में से एक बताया गया है।इसे विश्व का सबसे प्राचीन स्थल बताया गया है।ग मत्स्य पुराण में इस क्षेत्र को अवन्तिका एवं अमरकंटक के साथ अविमुक्त क्षेत्र कहा गया है। जैन धर्म के ग्रंथों तथा बौद्ध धर्म की जातक कथाओं में इसे कालगिरि कहा गया है। कालिंजर तीर्थ की महिमा ब्रह्म पुराण में भी वर्णित है यह घाटी क्षेत्र घने वनों तथा घास के खुले मैदानों द्वारा घिरा हुआ है। यहाँ का प्राकृतिक वैभव इस स्थान को तप करने व ध्यान लगाने जैसे आध्यात्मिक कार्यों के लिये एक आदर्श स्थान बनाता है।

कालिन्जर शब्द (कालंजर) प्राचीन पौराणिक हिन्दू ग्रन्थों में उल्लेख तो पाता है, किन्तु इस किले का सही सही उद्गम स्रोत अभी अज्ञात ही है। जनश्रुतियों के अनुसार इसकी स्थापना चन्देल वंश के संस्थापक चंद्र वर्मा ने की थी, हालांकि कुछ इतिहासवेत्ताओं का यह भी मानना है कि इसकी स्थापना केदारवर्मन द्बारा द्वितीय-चतुर्थ शताब्दी में करवायी गई थी। एक अन्य मान्यता के अनुसार औरंगज़ेब ने इसके कुछ द्वारों का निर्माण कराया था। हिन्दू पौराणिक ग्रन्थों के अनुसार यह स्थान सतयुग में कीर्तिनगर, त्रेतायुग में मध्यगढ़, द्वापर युग में सिंहलगढ़ और कलियुग में कालिंजर के नाम से विख्यात रहा है। १६वीं शताब्दी के फारसी इतिहासवेत्ता फिरिश्ता के अनुसार, कालिन्जर नामक शहर की स्थापना किसी केदार राजा ने ७वीं शताब्दी में की थी। उसमें यह दुर्ग चन्देल शासन से प्रकाश में आया। चन्देल-काल की कथाओं के अनुसार दुर्ग का निर्माण एक चन्देल राजा ने करवाया था।

चन्देल शासकों द्वारा कालिन्जराधिपति ("कालिन्जर के अधिपति ") की उपाधि का प्रयोग उनके द्वारा इस दुर्ग को दिये गए महत्त्व को दर्शाता है।

'''''''कालिंजर दुर्ग''''

इस दुर्ग की ऐतिहासिक पृष्ठभूमि ढेरों युद्धों एवं आक्रमणों से भरी पड़ी है। विभिन्न राजवंशों के हिन्दू राजाओं तथा मुस्लिम शासकों द्वारा इस दुर्ग पर वर्चस्व प्राप्त करने हेतु बड़े-बड़े आक्रमण हुए हैं, एवं इसी कारण से यह दुर्ग एक शासक से दूसरे के हाथों में चलता चला गया। किन्तु केवल चन्देल शासकों के अलावा,कोई भी राजा इस पर लम्बा शासन नहीं कर पाया।

सतयुग में कालिंजर चेदि नरेश राजा उपरिचरि बसु के अधीन रहा व इसकी राजधानी सूक्तिमति नगरी थी। त्रेता युग में यह कौशल राज्य के अन्तर्गत्त आ गया। वाल्मीकि रामायण के अनुसार तब कोसल नरेश राम ने इसे किन्ही कारणों से भरवंशीय ब्राह्मणों को दे दिया था। द्वापर युग में यह पुनः चेदि वंश के अधीन आ गया एवं तब इसका राजा शिशुपाल था। उसके बाद यह मध्य भारत के राजा विराट के अधीन आया। कलियुग में कालिंजर के किले पर सर्वप्रथम उल्लिखित नाम दुष्यंत- शकुंतला के पुत्र भरत का है। इतिहासकार कर्नल टॉड के अनुसार उसने चार किले बनवाए थे जिसमें कालिंजर का सर्वाधिक महत्त्व है।

महात्मा बुद्ध (५६३-४८० ई.पू.) के समय यहाँ चेदि वंश का आधिपत्य रहा। महात्मा बुद्ध की यात्रा के वर्णन में उनके कालिंजर आने का भी उल्लेख है। इसके बाद यह मौर्य साम्राज्य के अधीन आ गया व विंध्य-आटवीं नाम से विख्यात हुआ। तत्पश्चात शुंग वंश तथा कुछ वर्ष पाण्डुवंशियों का आधिपत्य रहा। समुद्रगुप्त की प्रयाग प्रशस्ति में इस क्षेत्र का विन्ध्य आटवीं नाम से उल्लेख है। इनके बाद यह वर्धन साम्राज्य के अधीन भी रहा। गुर्जर प्रतिहारों के शासन में यह उनके अधिकार में आया एवं नागभट्ट द्वितीय के समय तक रहा। तब चन्देल शासक उनहीं के माण्डलिक राजा हुआ करते थे। तब के लगभग हरेक ग्रन्थ या अभिलेखों में कालिन्जर का उल्लेख मिलता है। क २४९ ई. में यहाँ हैहय वंशी कृष्णराज का शासन था, एवं चतुर्थ शताब्दी में नागों का अधिकार हुआ, जिन्होंने यहाँ नीलकंठ महादेव का मन्दिर बनवाया। तत्पश्चात सत्ता गुप्त वंश को हस्तांतरित हुई।

प्राचीन काल में यह जेजाकभुक्ति (जयशक्ति चन्देल) साम्राज्य के अधीन था। ९वीं से १५वीं शताब्दी तक यहाँ चन्देल शासकों का शासन था। चन्देल राजाओं के शासनकाल में कालिंजर पर महमूद गजनवी, कुतुबुद्दीन ऐबक, शेर शाह सूरी और हुमांयू ने आक्रमण किए लेकिन जीतने में असफल रहे। १०२३ में महमूद गज़नवी ने कालिंजर पर आक्रमण कर यहाँ से लूट का माल ले गया था, किन्तु किले पर अधिकार नहीं किया था। इसके बाद अनेक प्रयासों के बाद भी आरम्भिक मुगल कालिंजर के किले को जीत नहीं पाए। मुगल आक्रांता बाबर इतिहास में एकमात्र ऐसा सेनाधिपति रहा, जिसने १५२६ में राजा हसन खां मेवातपति से वापस जाते हुए दुर्ग पर आधिपत्य प्राप्त किया किन्तु वह भी उसे रख नहीं पाया। शेरशाह सूरी महान योद्धा था, किन्तु इस दुर्ग का अधिकार वह भी प्राप्त नहीं पर पाया। इसी दुर्ग के अधिकार हेतु चन्देलों से युद्ध करते हुए २२ मई १५४५ में उसकी उक्का नामक आग्नेयास्त्र (तोप) से निकले गोले के दुर्ग की दीवार से टकराकर वापस सूरी पर गिरकर फटने से उसकी मृत्यु हुई

अन्तत: बड़े संघर्ष एवं प्रयास के बाद १५६९ में अकबर ने यह दुर्ग जीता और अपने नवरत्नों में एक बीरबल को उपहारस्वरूप प्रदान किया। बाबर एवं अकबर, आदि के द्वारा किये गए प्रयत्नों के विवरण बाबरनामा, आइने अकबरी, आदि ग्रन्थों में मिलते हैं। बीरबल के बाद यह दुर्ग बुंदेल राजा छत्रसाल के अधीन हो गया। छत्रसाल के बाद इस किले पर पन्ना के शासक हरदेव शाह ने अधिकार कर लिया। १८१२ ई. में यह दुर्ग अंग्रेजों के नियंत्रण में आ गया। १८५७ के प्रथम भारतीय स्वतंत्रता संग्राम में भी कालिंजर दुर्ग की प्रधान भूमिका रही थी। तब इस पर एक छोटी ब्रिटिश टुकड़ी का अधिकार था। १८१२ ई. में ब्रिटिश टुकड़ियां बुन्देलखण्ड पहुंचीं। काफ़ी संघर्ष के उपरान्त उन्हें दुर्ग पर अधिकार मिला। कालिंजर दुर्ग पर ब्रिटिश शासन की अधीनता इसके लिये एक महत्त्वपूर्ण घटना सिद्ध हुई। पुराने अभिजात वर्ग के हाथों से निकल कर अब यह नये नौकरशाहों के हाथों में आ गया था, जिन लोगों ने ब्रिटिश प्रशासन को अपनी स्वामिभक्ति के प्रदर्शन करने हेतु इस दुर्ग के कई भागों को नष्ट-भ्रष्ट कर दिया। दुर्ग को पहुंचाये गए नुकसान के चिह्न अभी भी इसकी दीवारों एवं अन्दर के खुले प्रांगण में देखे जा सकते हैं।

दुर्ग एवं इसके नीचे तलहटी में बसा कस्बा, दोनों ही इतिहासकारों की दृष्टि से महत्त्वपूर्ण हैं, क्योंकि यहाँ मन्दिरों के अवशेष, मूर्तियां, शिलालेख एवं गुफाएं, आदि सभी उनके रुचि के साधन हैं। कालिंजर दुर्ग में कोटि तीर्थ के निकट लगभग २० हजार वर्ष पुरानी शंख लिपि स्थित है जिसमें रामायण काल में वनवास के समय भगवान राम के कालिंजर आगमन का भी उल्लेख किया गया है। इसके अनुसार श्रीराम, सीता कुंड के पास सीता सेज में ठहरे थे। कालिंजर शोध संस्थान के तत्कालीन निदेशक अरविंद छिरौलिया के कथनानुसार इस दुर्ग का विवरण अनेक हिन्दु पौराणिक ग्रन्थों जैसे पद्म पुराण व वाल्मीकि रामायण में भी मिलता है। इसके अलावा बुड्ढा-बुड्ढी सरोवर व नीलकंठ मंदिर में नौवीं शताब्दी की पांडुलिपियां संचित हैं, जिनमें चंदेल-वंश कालीन समय का वर्णन मिलता है। दुर्ग के प्रथम द्वार में १६वीं शताब्दी में औरंगजेब द्वारा लिखवाई गई प्रशस्ति की लिपि भी है। दुर्ग के समीपस्थ ही काफिर घाटी है। इसमें शेरशाह सूरी के भतीजे इस्लाम शाह की १५४५ई० में लगवायी गई प्रशस्ति भी यहाँ उपस्थित है। इस्लाम शाह ने अपना दिल्ली पर राजतिलक होने के बाद यहाँ के कोटि तीर्थ में बने मन्दिरों को तुड़वाकर उनके सुन्दर नक्काशीदार स्तंभों का प्रयोग यहाँ बनी मस्जिद में किया था। इसी मस्जिद के बगल में एक चबूतरा (ख़ुतबा) बनवाया था, जिसपर बैठकर उसने ये शाही फ़रमान सुनाया था, कि अब से कालिन्जर कोई तीर्थ नहीं रहेगा, एवं मूर्ति-पूजा को हमेशा के लिये निषेध कर दिया था। इसका नाम भी बदल कर शेरशाह की याद में शेरकोह (अर्थात शेर का पर्वत) कर दिया था। बी डी गुप्ता के अनुसार कालिंजर के यशस्वी राजा व रानी दुर्गावती के पिता कीर्तिवर्मन सहित उनके ७२ सहयोगियों की हत्या भी उसी ने करवायी थी। दुर्ग में ऐतिहासिक एवं धार्मिक महत्त्व के ढेरों शिलालेख जगह-जगह मिलते हैं, जिनमें से अनेक लेख हजारों वर्ष पूर्व अति प्राचीन काल के भी हैं।

कालिन्जर दुर्ग के अन्दर रानी महल का विहंगम दृश्य। कालिंजर दुर्ग विंध्याचल की पहाड़ी पर ७०० फीट की ऊंचाई पर स्थित है। दुर्ग की कुल ऊंचाई १०८ फ़ीट है। इसकी दीवारें चौड़ी और ऊंची हैं। इनकी तुलना चीन की दीवार से की जाये तो कोई अतिश्योक्ति न होगी। कालिंजर दुर्ग को मध्यकालीन भारत का सर्वोत्तम दुर्ग माना जाता था। इस दुर्ग में स्थापत्य की कई शैलियाँ दिखाई देती हैं, जैसे गुप्त शैली, प्रतिहार शैली, पंचायतन नागर शैली, आदि। प्रतीत होता है कि इसकी संरचना वास्तुकार ने अग्नि पुराण, बृहद संहिता तथा अन्य वास्तु ग्रन्थों के अनुसार की है। किले के बीचों-बीच अजय पलका नामक एक झील है जिसके आसपास कई प्राचीन काल के निर्मित मंदिर हैं। यहाँ ऐसे तीन मंदिर हैं जिन्हें अंकगणितीय विधि से बनाया गया है। दुर्ग में प्रवेश के लिए सात दरवाजे हैं और ये सभी दरवाजे में एक दूसरे से भिन्न शैलियों से अलंकृत हैं। यहाँ के स्तंभों एवं दीवारों में कई प्रतिलिपियां बनी हुई हैं, जिनमें मान्यता के अनुसार यहाँ के छुपे हुए खजाने की जगह का रहस्य भी छुपा हुआ है।

इस दुर्ग में सात द्वारों से प्रवेश किया जा सकता है। दुर्ग का प्रथम द्वार सिंह द्वार कहलाता है, और यही मुख्य द्वार भी है। इसके उपरान्त द्वितीय द्वार गणेश द्वार कहलाता है, जिसके बाद तृतीय दरवाजा चंडी द्वार है। चौथे द्वार को स्वर्गारोहण द्वार या बुद्धगढ़ द्वार भी कहते हैं। इसके पास एक जलाशय है जो भैरवकुंड या गंधी कुंड कहलाता है। किले का पाचवाँ द्वार बहुत कलात्मक बना है तथा इसका नाम हनुमान द्वार है। यहाँ कलात्मक शिल्पकारी, मूर्तियाँ व चंदेल शासकों से सम्बन्धित शिलालेख मिलते हैं। इन लेखों में मुख्यतः कीर्तिवर्मन तथा मदन वर्मन का नाम मिलता है। यहाँ मातृ-पितृ भक्त, श्रवण कुमार का चित्र भी दिखाई देता है। छठा द्वार लाल द्वार कहलाता है जिसके पश्चिम में हम्मीर कुंड स्थित है। चंदेल शासकों का कला-प्रेम व प्रतिभा यहाँ की दो मूर्तियों से साफ़ झलकती है। सातवाँ व अंतिम द्वार नेमि द्वार है। इसे महादेव द्वार भी कहते हैं इनके अलावा मुगल बादशाह आलमगीर औरंगज़ेब द्वारा निर्मित आलमगीर दरवाजा, चौबुरजी दरवाजा, बुद्ध भद्र दरवाजा, और बारा दरवाजा नामक अन्य द्वार भी हैं।

महल में सीता सेज नामक एक छोटी सी गुफा भी है जहाँ एक पत्थर का पलंग और तकिया रखा हुआ है जो एक जमाने में एकांतवास के लिये प्रयोग की जाती थी। किंवदन्तियों के अनुसार इस कक्ष को रामायण की सीता की विश्रामस्थली बतायी जाती है। यहाँ पर तीर्थ यात्रियों के लिखे आलेख हैं। यहीं एक कुंड भी है जो सीताकुंड कहलाता है। किले में स्थित दो तालों, बुड्ढा एवं बुड्ढी ताल के जल को औषधीय गुणों से भरपूर माना जाता है जिसमें स्नान कर स्वास्थ्य लाभ उठाया जाता था। इनका जल चर्म रोगों के लिए लाभदायक बताया जाता था व मान्यता है कि इसमें स्नान करने से कुष्ठ रोग भी ठीक हो जाता है।[3] चंदेल राजा कीर्तिवर्मन का कुष्ठ रोग भी यहीं स्नान करने से दूर हुआ था।

दुर्ग के भीतर राजा महल और रानी महल नामक भव्य महल बने हुए हैं। दुर्ग में एक जलाशय भी है जिसे पाताल गंगा कहते हैं। यहाँ के पांडु कुंड में चट्टानों से निरंतर पानी टपकता रहता है। कहते हैं कि यहाँ कभी शिवकुटि होती थी, जहाँ अनेक शिव-भक्त तप किया करते थे व नीचे से पाताल गंगा होकर बहती थी। उसी से ये कुंड भरता है।

इनके अलावा यहाँ एक कोटि तीर्थ भी है, जिसमें सहस्रों तीर्थ एकाकार होकर मिलते हैं। इसके अवशेषों से अनेक ध्वंस हुए मंदिरों का आभास होता है। इसी कोटि तीर्थ जलाशय के निकट चन्देल शासक अमानसिंह द्वारा एक महल भी बनवाया गया था। इसमें बुन्देली स्थापत्य की झलक दिखायी देती है। वर्तमान में इसके ध्वस्त अवशेष मिलते हैं, तथा पुरातत्त्व विभाग ने पूरे दुर्ग में फ़ैली, बिखरी हुई टूटी शिल्पाकृतियों व मूर्तियों को एकत्रित कर संग्रहालय रूप में सुरक्षित रखा है। इसमें गुप्त काल से मध्यकालीन भारत के अनेक अभिलेख संचित हैं। इनमें शंख लिपि के तीन अभिलेख भी मिलते हैं। दुर्ग के प्रवेश द्वार के बाहर ही मुगल बादशाह द्वारा १५८३ ई० में बनवाया गया एक सुन्दर महल भी है।

दुर्ग के दक्षिण मध्य भाग में मृगधारा बनी है। यहाँ चट्टानों को काट-छाँट कर दो कक्ष बनाए गए हैं, जिनमें से एक कक्ष में सात हिरणों की मूर्तियाँ हैं व निरंतर मृगधारा का जल बहता रहता है। इसे पौराणिक सन्दर्भ से सप्त ऋषियों की कथा से जोड़कर बताते हैं। इस स्थान के बारे में गुप्त वंश से मध्यकालीन भारत के अनेक तीर्थयात्री अभिलेख हैं। यहाँ शिला के अंदर खुदाई कर भैरव व भैरवी की मूर्ति अति सुंदर तथा कलात्मक बनायी गई है।

दुर्ग का नीलकंठ मन्दिर, जहाँ स्थापित शिवलिंग का अभिषेक निरंतर प्राकृतिक तरीके से होता रहता है।

किले के पश्चिमी भाग में कालिंजर के अधिष्ठाता देवता नीलकंठ महादेव का एक प्राचीन मंदिर भी स्थापित है। इस मंदिर को जाने के लिए दो द्वारों से होकर जाते हैं। रास्ते में अनेक गुफाएँ तथा चट्टानों को काट कर बनाई शिल्पाकृतियाँ बनायी गई हैं। वास्तुशिल्प की दृष्टि से यह मंडप चंदेल शासकों की अनोखी कृति है। मंदिर के प्रवेशद्वार पर परिमाद्र देव नामक चंदेल शासक रचित शिवस्तुति है व अंदर एक स्वयंभू शिवलिंग स्थापित है। मन्दिर के ऊपर ही जल का एक प्राकृतिक स्रोत है, जो कभी सूखता नहीं है। इस स्रोत से शिवलिंग का अभिषेक निरंतर प्राकृतिक तरीके से होता रहता है। बुन्देलखण्ड का यह क्षेत्र अपने सूखे के कारण भी जाना जाता है, किन्तु कितना भी सूखा पड़े, यह स्रोत कभी नहीं सूखता है। चन्देल शासकों के समय से ही यहाँ की पूजा अर्चना में लीन चन्देल राजपूत जो यहाँ पण्डित का कार्य भी करते हैं, वे बताते हैं कि शिवलिंग पर उकेरे गये भगवान शिव की मूर्ति के कंठ का क्षेत्र स्पर्श करने पर सदा ही मुलायम प्रतीत होता है। यह भागवत पुराण के सागर मंथन के फलस्वरूप निकले हलाहल विष को पीकर, अपने कंठ में रोके रखने वाली कथा के समर्थन में साक्ष्य ही है। मान्यता है कि यहाँ शिवलिंग से पसीना भी निकलता रहता है।

ऊपरी भाग स्थित जलस्रोत हेतु चट्टानों को काटकर दो कुंड बनाए गए हैं जिन्हें स्वर्गारोहण कुंड कहा जाता है। इसी के नीचे के भाग में चट्टानों को तराशकर बनायी गई काल-भैरव की एक प्रतिमा भी है। इनके अलावा परिसर में सैकड़ों मूर्तियाँ चट्टानों पर उत्कीर्ण की गई हैं। शिवलिंग के समीप ही भगवती पार्वती एवं भैरव की मूर्तियाँ भी स्थापित हैं। प्रवेशद्वार के दोनों ही ओर ढेरों देवी-देवताओं की मूर्तियां दीवारों पर तराशी गयी हैं। कई टूटे स्तंभों के परस्पर आयताकार स्थित स्तंभों के अवशेष भी यहाँ देखने को मिलते हैं। इतिहासकारों के अनुसार इन पर छः मंजिला मन्दिर का निर्माण किया गया था। इसके अलावा भी यहाँ ढेरों पाषाण शिल्प के नमूने हैं, जो कालक्षय के कारण जीर्णावस्था में हैं।

कालिंजर के परिसर में दिखाई देती भव्यता एवं शान बरगुजर शासकों की रचनात्मक कल्पना, उनके अत्यधिक सौन्दर्य बोध एवं धार्मिक उत्साह का परिणाम है। हालांकि वे शिव के बड़े भक्त थे, किन्तु उन्होंने अन्य भगवानों एवं देवी-देवताओं के मन्दिर बनवाने में भी रुचि दिखाई है। यहाँ के चट्टानों पर वृहत स्तर की शिल्पकारी कर ढेरों हिन्दू देवी देवताओं आदि के शिल्प गढ़े गये हैं, जो प्राचीन पौराणिक कथाओं पर आधारित है। बरगुजर लोगों ने जहाँ भी शासन किया, अपनी रुचि के क्षेत्रों जैसे कला, शिल्प, पाषाण आकृतियों के पहचान चिह्न आवश्य छोड़े हैं। यहाँ की अधिकांश मूर्तियां शैव धर्म से संबंधित है जिनमें से काल भैरव की प्रतिमा सबसे भव्य है। यह ३२ फीट ऊंची और १७ फीट चौड़ी है तथा इस प्रतिमा के १८ हाथ दिखाये गए हैं। वक्ष में लटकाये हुए नरमुंड तथा तीन नेत्र इस मूर्ति को बेहद जीवंत बनाते हैं। झिरिया के निकट ही गजासुर वध की मंडूक भैरव की प्रतिमा दीवार पर उकेरी हुई है जिसके निकट ही मंडूक भैरवी है। मनचाचर क्षेत्र में चतुर्भुजी रुद्राणी काली, दुर्गा, पार्वती और महिषासुर मर्दिनी की प्रतिमाएं हैं।

यहाँ छत्रसाल महाराज के वंशज राजकुंवर अमन सिंह का महल भी दर्शनीय है। यहाँ के महल से अनेक कथाएं एवं किंवदंतियां जुड़ी हैं, जहाँ के विस्तृत बगीचे, उद्यान तथा दीवारें व झरोखे चन्देल संस्कृति एवं इतिहास की लम्बी गाथाएं कहते हैं। यहाँ हजारों नष्ट-भ्रष्ट एवं खण्डित ग्रेनाइट एवं बलुआ पत्थर की मूर्तियां पड़ी मिली हैं, जो एक अनौपचारिक संग्रहालय में रखी हुई हैं।

यहाँ कई त्रिमूर्ति भी बनायी गई हैं, जिनमें ब्रह्मा, विष्णु एवं शिव के चेहरे बने हैं। कुछ ही दूरी पर शेषशायी विष्णु की क्षीरसागर स्थित विशाल मूर्ति बनी है। इनके अलावा भगवान शिव, कामदेव, शचि (इन्द्राणी), आदि की मूर्तियां भी बनी हैं। इनके अलावा यहाँ की मूर्तियां विभिन्न जातियों और धर्मों से भी प्रभावित हैं। यहाँ स्पष्ट हो जाता है कि चन्देल संस्कृति में किसी एक क्षेत्र विशेष का ही योगदान नहीं है। चन्देल वंश से पूर्ववर्ती बरगुजर शासक शैव मत के आवलम्बी थे। इसीलिये अधिकांश पाषाण शिल्प व मूर्तियां शिव, पार्वती, नन्दी एवं शिवलिंग की ही हैं। शिव की बहुत सी मूर्तियां नृत्य करते हुए में ताण्डव मुद्रा में, या फिर माता पार्वती के संग दिखायी गई हैं। इनके अलावा अन्य आकर्षणों में वेंकट बिहारी मन्दिर, दस लाख तीर्थों का फल देने वाला सरोवर, सीता-कुण्ड, पाताल गंगा, आदि हैं। इसमें बहुत से त्वचा रोगों के उपचार की क्षमता है।

यहाँ ऐतिहासिक दृष्टि से महत्त्वपूर्ण कई दर्शनीय स्थल हैं, जो पुरा-पाषाण काल से बुन्देल शासकों के समय तक के हैं। इनमें रौलीगोंडा, मईफ़ा, बिल्हरियामठ, ऋषियन, शेरपुर श्योढ़ा, रनगढ़, अजयगढ़, आदि हैं। प्राकृतिक दृष्टि से आकर्षक स्थलों की भी कमी नहीं है। इनमें बाणगंगा, व्यासकुण्ड, भरत कूप, पाथरकछार, बृहस्पति कुण्ड, लखनसेहा, किशनसेहा, सकरों एवं मगरमुहा, आदि आते हैं। इन स्थानों में अनेक खनिज एवं विभिन्न वन सम्पदाएं भी मिलती हैं।

भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण विभाग ने इस ऐतिहासिक दुर्ग में पर्यटन को बढ़ावा देने के प्रयास आरम्भ किये हैं। इस योजना के तहत यहाँ स्थापित हजारों मूर्तियों, अवशेषों और शिलालेखों का अध्ययन व छायांकन कर के सहेजने का कार्य किया जा रहा है। पिछले कुछ समय से राजा अमान सिंह महल में स्थित लगभग १८०० प्रतिमाओं के साथ-साथ उनके अवशेषों तथा शिलालेखों का अध्ययन और छायांकन कार्य सम्पन्न किया जा चुका है। कालिंजर विकास संस्थान के संयोजक बी डी गुप्त के अनुसार लगभग १२०० प्रतिमाओं का अध्ययन और छायांकन शेष है। यह कार्य भारतीय पुरातत्व विभाग के लखनऊ मण्डल के सहयोग से प्रगति पर है। इसके अलावा मूर्तियों का रासायनिक उपचार तथा संरक्षण कार्य भी प्रगति पर है। उपस्थित अधिकारियों के अनुसार यहाँ उपलब्ध बड़ी संख्या में संग्रहीत और सुरक्षित श्रेष्ठ मूर्तियां एक उच्चकोटि के संग्रहालय के लिए पर्याप्त हैं। पर्यटकों को आकर्षित करने हेतु केवल एक स्तरीय आधुनिक संग्रहालय की आवश्यकता है। बी डी गुप्त के अनुसार प्राचीन स्मारक सुरक्षा कानून, १९०५ के तहत तभी से पूरे कालिंजर दुर्ग परिसर के ध्वस्त मंदिरों की मूर्तियां सुरक्षित घोषित कर दी गई थीं। लगभग एक शताब्दी से अधिक समय से शिल्प-संग्रह का यह विशाल भंडार राजा अमान सिंह महल में सुरक्षित सहेजा जा रहा है।

भविष्य में कालिंजर की मूर्तियों की प्रदर्शनी का सुझाव भी विचाराधीन है। इसके अन्तर्गत्त यहाँ उपलब्ध कला भंडार से प्रदेश और देश की जनता को प्रदर्शनी लगाकर परिचित कराया जाएगा। इसके अलावा राज्य सरकार ने भी इस क्षेत्र को पर्यटन की दृष्टि से विकसित करने का निर्णय लिया है। इससे इस क्षेत्र का पिछड़ापनद दूर होने के साथ-साथ ही स्थानीय लोगों को रोजगार के नये अवसर मिलेंगे तथा यह क्षेत्र विश्व पर्यटन के मानचित्र पर उभरेगा।

पहले दुर्ग में प्रवेश निःशुल्क हुआ करता था, किन्तु राज्य प्रशासन ने २०१५ से दुर्ग में प्रवेश का शुल्क लगा दिया है। इसका उद्देश्य दुर्ग के अनुरक्षण हेतु निधि जुटाने के साथ साथ ही अनावश्यक आवाजाही, आवारा जानवरों एवं असामाजिक तत्वों के प्रवेश पर रोक लगाना भी है। दुर्ग में पर्याप्त जलापूर्ति हेतु पुरातत्व विभाग की उद्यान प्रभाग (हार्टीकल्चर टीम) ने यहाँ बोरिंग भी करवायी है। इससे यहाँ के तालाबों को ताजे जल से भरा जाता है तथा घास व फूलों के पौधे भी सींचे जाते हैं। यहाँ नीचे कटरा से पैदल सीढ़ी द्वारा नीलकंठ मंदिर के मार्ग पर व किले तक जाने वाले सड़क मार्ग पर भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण विभाग की टिकट चौकियां स्थापित हैं।

इस ऐतिहासिक स्थल की राज्य सरकार द्वारा पूरी तरह से देखरेख के अभाव में स्थल का अनुरक्षण कार्य भली -भांति नहीं हो पा रहा है। भारतीय पुरातात्त्विक सर्वेक्षण विभाग भी बजट में राशि की कमी के कारण इस स्थल को देय योगदान नहीं दे पा रहा है। अखिल भारतीय बुंदेलखंड विकास मंच के प्रयासों से इसे युनेस्को द्वारा विश्व धरोहर स्थल घोषित कराने हेतु अथक प्रयास किये गए हैं, जिनमें अब पुरा.विभाग भी जुड़ गया है। विश्वदाय स्थल कराने हेतु यहाँ लगभग सभी मानदंड पूरे होते हैं। एक बार युनेस्को की इस सूची में कलिन्जर के जुड़ जाने पर यह स्थल विश्व के पर्यटन मानचित्र में जुड़ जाएगा। भारत भ्रमण के उत्सुक देशी-विदेशी पर्यटक यहाँ आना चाहेंगे, जिसके लिए सभी प्रकार के आवागमन साधनों के द्वारा कालिन्जर को यातायात से जोड़ दिया जायेगा। यहाँ पर्यटकों की आवक में वृद्धि होने से क्षेत्र में रोजगार के साधन बढ़ेंगे। यहाम कम से कम दो -तीन लाख पर्यटक वार्षिक आने की संभावना है। इस कारण इस क्षेत्र के विकास को भी तेजी मिलेगी।

कालिंजर दुर्ग व्यवसायिक दृष्टि से भी महत्त्वपूर्ण है। यहाँ के पहाड़ी खेरा एवं बृहस्पति कुंड में उत्तम किस्म की हीरा खदानें हैं। दुर्ग के निकट ही कुठला ज्वारी के सघन वनों में रक्त वर्णी चमकदार पत्थर मिलता है, जिससे किंवदंतियों अनुसार प्राचीन काल में सोना बनाया जाता था। यहाँ की पहाड़ियों में परतदार चट्टानें व ग्रेनाइट पत्थर की बहुतायत है जो भवन निर्माण में काम आता है। वनों में सागौन, साखू व शीशम के पेड़ हैं, जिनसे काष्ठ निर्मित वस्तुएं तैयार होती हैं।

इस पर्वत पर अनेक प्रकार की वनस्पति एवं औषधियां मिलती हैं। यहाँ उगने वाले सीताफल की पत्तियां व बीज भी औषधि के काम आते हैं। यहाँ के गुमाय के बीज एवं हरड़ का उपयोग ज्वर नियंत्रण के लिए किया जाता है। मदनमस्त एवं कंधी की पत्तियां भी उबाल कर पी जाती है। गोरख इमली का प्रयोग राजयक्ष्मा के लिए तथा मारोफली का प्रयोग उदर रोग के लिए किया जाता है। कुरियाबेल आंव रोग में तथा घुंचू की पत्तियां प्रदर रोग में लाभकारी होती हैं। इसके अलावा फल्दू, कूटा, सिंदूरी, नरगुंडी, रूसो, सहसमूसली, पथरचटा , गूमा, लटजीरा, दुधई व शिखा आदि औषधियां भी यहाँ उपलब्ध है।

कालिंजर दुर्ग में प्रतिवर्ष कार्तिक पूर्णिमा के अवसर पर पाँच दिवसीय कतकी मेला लगता है। इसमें हजारों श्रद्धालुओं कि भीड़ उमड़ती है। साक्ष्यों के अनुसार यह मेला चंदेल शासक परिमर्दिदेव (११६५-१२०२) के समय आरम्भ हुआ था, जो आज तक लगता आ रहा है। इस कालिंजर महोत्सव का उल्लेख सर्वप्रथम परिमर्दिदेव के मंत्री एवं नाटककार वत्सराज रचित नाटक रूपक षटकम में मिलता है। उनके शासनकाल में हर वर्ष मंत्री वत्सराज के दो नाटकों का मंचन इसी महोत्सव के अवसर पर किया जाता था। कालांतर में मदनवर्मन के समय एक पद्मावती नामक नर्तकी के नृत्य कार्यक्रमों का उल्लेख भी कालिंजर के इतिहास में मिलता है। उसका नृत्य उस समय महोत्सव का मुख्य आकर्षण हुआ करता था। एक सहस्र वर्ष से यह परंपरा आज भी कतकी मेले के रूप चलती चली आ रही है, जिसमें विभिन्न अंचलों के लाखों लोग यहाँ आकर विभिन्न सरोवरों में स्नान कर नीलकंठेश्वर महादेव के दर्शन कर पुण्य लाभ अर्जित करते हैं। तीर्थ-पर्यटक दुर्ग के ऊपर एवं नीचे लगे मेले में खरीददारी आदि भी करते हैं। इसके अलावा यहाँ ढेरों तीर्थयात्री तीन दिन का कल्पवास भी करते हैं। इस भीड़ के उत्साह के आगे दुर्ग की अच्छी चढ़ाई भी कम होती प्रतीत होती है। यहाँ ऊपर पहाड़ के बीचों-बीच गुफानुमा तीन खंड का नलकुंठ है जो सरग्वाह के नाम से प्रसिद्ध है। वहां भी श्रद्धालुओं की भीड़ जुटती है।

वर्ष २०११ में विश्व पर्यावरण दिवस के अवसर पर कालिंजर दुर्ग में गोष्ठी व सांस्कृतिक कार्यक्रम आयोजित किये गए। राज्य प्रशासन ने दुर्ग में इस कार्यक्रम की तैयारियां की थी। इस दौरान किले की सुंदरता व साफ-सफाई की व्यवस्था पर विशेष ध्यान दिया गया था। २७ सितंबर २०११ को दुर्ग के डाक बंगला परिसर में गोष्ठी आयोजित की गयी जिसमें अनेक इतिहासकारों, बुद्धिजीवियों, शिक्षाविदों को निमंत्रित कर यहाँ पर्यटन संभावनाओं पर चर्चा की गयी, व नये अवसर तलाशने का उद्योग किया। इस मौके पर विभिन्न सांस्कृतिक कार्यक्रमों का भी आयोजन किया गया। यहाँ के तत्कालीन एसडीएम के अनुसार जिलाधिकारी के निर्देश पर दुर्ग में पॉलीथिन पैकटों के प्रयोग को निषेध कर दिया गया था।

बांदा रेलवे स्टेशन कालिंजर का निकटवर्ती बड़ा रेलवे स्टेशन है। कालिंजर की भौगोलिक स्थिति दक्षिण-पश्चिमी उत्तर प्रदेश में बुन्देलखण्ड क्षेत्र के बाँदा जिले से दक्षिण पूर्व दिशा में जिला मुख्यालय, बाँदा शहर से पचपन किलो मीटर की दूरी पर है। बाँदा शहर से बस द्वारा बारास्ता गिरवाँ, नरौनी, कालिंजर पहुँचा जा सकता है। कालिंजर प्रसिद्ध विश्व धरोहर स्थल है। bj.