सदस्य:Andrew Jose Mathew/प्रयोगपृष्ठ

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                                                       सपने आपके, बचपन उसका

दसवीं में पढ़ने वाला राहुल अपने पिता के सामने नहीं पड़ना चाहता। वजह है पिता की अपेक्षाओं और उसकी ख्वाहिशों में अंतर। पिता उसे डॉक्टर बनाना चाहते हैं और राहुल का मन पेंटिंग में लगता है। लेकिन अपेक्षाओं का दबाव इतना अधिक है कि उसे सपने में भी एग्जामिनेशन हॉल, पिता की डांट, एग्जाम में देर से पहुंचने, सवालों के जवाब की जगह स्केच बना देने या जिंदगी में कुछ न बन पाने जैसे डरावने दृश्य ही दिखाई देते हैं।राहुल की यह समस्या आज बच्चों और किशोरों की जिंदगी में बेहद आम हो चुकी है। ज्यादातर माता-पिता या परिजन अपनी अधूरी ख्वाहिशों और उम्मीदों का बोझ बच्चों के कंधों पर डालकर उन्हें पूरा करना चाहते हैं। अपने सपनों को साकार करने के लिए वे कोई भी जुगत करने से पीछे नहीं हटते। शिक्षा या खेल मध्य वर्ग से उच्च वर्ग में प्रवेश करने के एक रास्ते के रूप में देखा जाने लगा है।पौराणिक युग में शिक्षा का उद्देश्य एक पूर्ण व्यक्तित्व का निर्माण था। यज्ञोपवीत संस्कार के बाद बालकों को शिक्षा ग्रहण के लिए गुरुकुल में भेज दिया जाता था, जहां हर वर्ग के बच्चे एक समान वस्त्र पहनते थे, एक समान भोजन करते थे और अपनी दी गई जि?मेदारियों का निर्वहन करते थे।राम, लक्ष्मण, भरत और शत्रुघ्न के गुरुकुल वास के समय उनकी शिक्षा के लिए कोई सिलेबस नहीं तैयार किया गया था। न हीं उस जमाने में तीन साल और चार साल के डिग्री कोर्स पर मुकदमेबाजी होती थी। गुरुकुलों में शास्त्रों का ज्ञान कराया जाता था और शस्त्रों का अ?यास कराया जाता था। लेकिन जिस बालक की जिस कला में रुचि होती थी, उसे उसी में पारंगत बनाया जाता था। चूंकि उस दौर में शिक्षा का उद्देश्य भौतिक इच्छाओं की पूतिर् नहीं थी, इसलिए बालक अपनी नैतिक जिम्मेदारियों के प्रति संवेदनशील होते थे।सायकायट्रिस्ट मानते हैं कि समाज में नैतिक मूल्यों के ह्रास, अवसाद और बच्चों में बढ़ती आपराधिक प्रवृत्ति के लिए एक हद तक हमारी आधुनिक शिक्षा प्रणाली भी जि?मेदार है। हम बच्चों के चहुमुखी विकास पर ध्यान देना नहीं चाहते, सिर्फ उसे विजेता बनाना चाहते हैं, चाहे वह जिस तरह से भी हो।

कौरव और पांडव एक ही गुरु दोणाचार्य के आश्रम में शिक्षा प्राप्त करते थे। लेकिन भीम गदाधर बने और अर्जुन तीरंदाज। आईआईटी या आईआईएम की तरह वहां से हर बच्चे को इंजीनियर या मैनेजर ही बन कर नहीं निकलना था। इस संदर्भ में एकलव्य की कहानी भी प्रासंगिक है। उसके उदाहरण से यह समझा जा सकता है कि ज्ञान अर्जित करने में बच्चे की अपनी रुचि कितनी महत्वपूर्ण होती है।एकलव्य हस्तिनापुर के जंगली इलाके के आदिवासी समुदाय के मुखिया का बेटा था। वह भी गुरु द्रोणाचार्य से धनुष विद्या सीखना चाहता था। लेकिन शूद होने के कारण उसे द्रोणाचार्य के आश्रम में प्रवेश नहीं मिला। वह जंगल में द्रोणाचार्यकी प्रतिमा बनाकर उन्हें गुरु मानते हुए उनकी प्रतिमा के ही सामने अभ्यास करने लगा। निरंतर अभ्यास से वह धनुष विद्या में इतना पारंगत हो गया कि अंतत: द्रोणाचार्य को उसे अपना शिष्य स्वीकार करना पड़ा।कोई भी बच्चा उसी दिशा में बेहतर प्रदर्शन कर सकता है, जिसमें उसकी अपनी स्वाभाविक रुचि हो, क्योंकि उसके लिए वह पूरी तन्मयता से प्रयास करता है, चाहे चुनौतियां कितनी ही विकट क्यों न हों। इसीलिए शास्त्रों में लिखा है, नदी अपना मार्ग खुद बनाती है। दूसरे मार्ग से ले जाने से वह अपने कुल और किनारे तोड़ देती है।राहुल के पिता कृष्ण नहीं हैं और न राहुल अर्जुन है, जिसे वे जीवन के समर क्षेत्र में यह बताने की कोशिश कर रहे हैं कि उसके लिए क्या सही है और क्या गलत। राहुल के पिता को उसे बेहतरीन मौके मुहैया कराने चाहिए, पर उसे अपने सपनों की राह पर चलने की स्वतंत्रता भी देनी चाहिए।