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भारतीय खगोल विज्ञान का इतिहास[संपादित करें]

अब तक, प्राचीन खगोल विज्ञान पर हमारा नज़रिया मेसोपोटावमया, यरूोपीय खगोल विज्ञान और इस्लामी स्वर्ण पर बहुत अधिक केन्द्रित रहा है। हालांकि, खगोल विज्ञान के वकसी भी अध्ययन में, महान भारतीय खगोलविदों के काम को नज़रअंदाज़ करना असंभव है; विज्ञान में उनके योगदान ने सदियों से हेलेनिक , और यूरोपीय विचारों को प्रभावित किया , उनके काम ने यूरोप मेंमहान सिल्क रोड को आगे बढाया। भारतीय खगोल विज्ञान के धार्मिक और आध्यात्मिक दृष्टिकोण से से बहुत अधिक जुड़ा हुआ था, लेकिन इस में घटनाओां के कई सटीक अवलोकन शामिल थे। इस ने दुनिया में गणित के विकास के लिए एक उत्प्रेरक के रूप में काम किया, जो भारत द्वारा पच्छिमी दुनिया को दी गई सबसे बडी विरासतों में से एक है।

भारतीय ज्योतिष-शास्त्र


भारतीय खगोल विज्ञान, ज्योतिष और वेद[संपादित करें]

भारत में पररष्कृत खगोल विज्ञान का पहला रेकॉर्ड कम से कम २००० ईसा पुराना है। यह ऋग्वेद (सदी १७०० - ११०० ईसा पूर्व ) में पाया गया था। प्राचीन भारतीय खगोलविदों ने ज्योतिषिय चार्ट बनाने और शकुन पढने के लिए सितारें और ग्रहों का उपयोग किया पररष्कृत गणितीय मॉडल तैयार किए और कई दिलचस्प सिद्धांतो को विकसित किया में से कई इस्लामी दुनिया और यूरोप में पारित हुए। ऋग्वेद से पता चलता है कि भारतीयों ने वर्ष को ३६० दिनों में विभाजित किया , और वर्ष को ३० दिनों के १२ महीनों में विभाजित किया गया। हर ५ साल में, कैलेंडर को वापस सौर वर्ष के अनरूुप लानेके वलए दो अतराल अवधियों को जोडा गया, यह सुनिश्चित करते हुए वर्षों का औसत ३६६ दिन था। हालाँकि , भारतीय वर्ष अभी भी हर पाँच साल में चार दिन चला गया, और भारतीय खगोलविदों ने सहस्त्राब्दियों से लगातार अपने कैलेंडर को समायोजित किया । पाठ यह भी दर्शाता है कि भारतीयों ने वेदियों के सही अभिविन्यास को सुनिश्चित करने के लिए चार प्रमुख बिंदुओं का उपयोग किया

सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि इस अवधि में भारतीयों ,बेबीलोनियों ,यूनानियों फारसियों के बीच विचारों का अदन प्रदान हुआ। खगोल विज्ञानं के विकास के लिए सिद्धांतों विचारों का यह आदान प्रदान अत्यंत महत्वपूर्ण था।

भारतीय खगोल विज्ञान और सिद्धांतिक युग[संपादित करें]

इस कल में वेदों से हटकर खगोल विज्ञानं की एक नई शाखा का प्रारंभ हुआ। यह सिद्धांतिक युग सलूशन नमक पुस्तकों की श्रृंखला के साथ शुरू हुआ जिसमे सौर वर्ष को संक्रांति, विषुव, चन्द्र, अवधि, सौर और चंद्र ग्रहण और ग्रहों की चार्ट सहित किया गया था। सिद्धांतिक युग में ३ महान भारतीय खगोल विज्ञानी प्रचलित हुए। आर्यभट्ट, वराहमिहिर और ब्रम्हगुप्त जो उनके द्वारा की गयी बड़ी वैज्ञानिक खोजों बावजूद भी पश्चिम में बहुत कम मने गए। पहली शताब्दी तक भारतीय खगोलविदों प्रस्तावित कर चुके थे की सितारे बिलकुल सूर्य के तरह थे लेकिन बहुत दूर थे, जब की यनूानी लोग अभी भी ब्रह्माांड की व्याख्या करने के लिए क्रिस्टल का उपयोग करने में लगे थे। वे यह भी समझते थे की पृथ्वी गोलाकार है। भारतीय खगोलविदों ने ग्रह परिधि की गणना करने का प्रयास किया था।

आर्यभट्ट[संपादित करें]

सही ढंग से रिकॉर्ड किया गया पहला खगोल विज्ञानपांचवी शताब्दी में शरूु हुआ, जब आर्यभट्ट जैसे खगोलविदों ने खगोल विज्ञान में गणितीय दृष्टिकोन अपनाना शरूु किया। आयणभट ने सूर्यकेंद्रित सिद्धांत और चंद्र माँ सयू के प्रकाश को रिफ्लेक्ट करता है जैसे कई आधुनिक विचार प्रस्ततु किये जो यूनानियों द्वारा अब तक अपनाए नहीं गए थे। उन्होंने यह भी प्रस्तावित किया की आकाश नहीं बल्कि पृथ्वी घमूती है, पर यह विचार कॉपरनिकस के यगु तक अनदेखे रह गए। ग्रहणों की भविष्यवाणी करने में गणितीय मॉडल का उपयोग उन्ही की खोज थी। यह यूरोप में प्रचलित हो गया और उनका पुस्तक 'आर्यभटीया' का तेरहवी शताब्दी में लैटिन में अनुवाद किया गया था। इसकी वजह से लोगों को गोलों के आयतन और त्रिभुजों के क्षेत्रफल को मापने के कुछ तरीके मिले, साथ ही वर्गमलूों और घनमलूों की गणना के तरीके भी मिले।

आर्यभट्ट

वराहमिहिर[संपादित करें]

छठी शताब्दी में, भारतीय खगोलविदों ने प्रस्तावित किया था की पृथ्वी पर वस्तुओं को धारण करने वाला फ़ोर्स ही आकाशीय पिंडो को भी थामे रखता है। यह एनावक्समेंडर के सांतलुन के विचार और न्यटून के गगुरुत्वाकर्षण से भी बहुत आगे था। वराहमिहिर ने प्रस्तावित किया की वस्तुओं को स्थिर रखने के लिए किसी प्रकार का आकर्षक फ़ोर्स होना चाहिए।

ब्रह्मगुप्त[संपादित करें]

सिद्धांतिक खगोलविदों ने यह भी खोज निकला की पृथ्वी गोलाकार है औरउन्होंने ग्रह की परिधि की गणना करने का प्रयास किया। सातवीं शताब्दी में, ब्रह्मगप्तु ने आधुनिक तकनीकों के बगैर पृथ्वी की परिधि ३६००० किलोमीटर है यह शोध किया जो असल के परिधि से काफी करीब है।

सिद्धांतिक खगोल विज्ञान के बाद[संपादित करें]

यह अवधि भारत में अरबी में अनुवादित ग्रीक ग्रांथों के आयात के कारण उत्पन्न हुई। इस कारण से, इसे अक्सर जिज यगु के रूप में जाना जाता है। इसी यगु ने आर्यभट्ट ने शून्य की अद्भुत खोज की थी। भारतीय खगोलविदों का प्रभाव यहीं समाप्त नहीं हुआ, क्योंकि उनका काम इस्लामिक विद्वानों द्वारा उपयोग किया जाता रहा और इस्लामी खगोल विज्ञान का बवुनयाद बन गया। भारत के मुग़ल यगु (१५२६ - १७२५) के दौरान हिन्दु गणितीय तकनीकों और इस्लामी अवलोकन तकनीकों को मिलकर खगोल विज्ञान में बडी प्रगति हुई। भारत पर ब्रिटिशों के कब्ज़े के काल में, ये तकनीकें आधुनिक खगोल विज्ञान का एक प्रमखु हिस्सा बन गई।