सदस्य:दिलीप कुमार पाठक/प्रयोगपृष्ठ

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पटना पटना है ( आपवीती) क्रम:१.

             : दिलीप कुमार पाठक

दशहरे के दिन बेबी बच्चियों को साथ ले अपने भाई के साथ मायके चली गयी थी। मानगो बस स्टैंड में बस बिठाकर वापस आया। मन अनमना सा लग रहा था। अकेलापन अखर रहा था। टीवी ऑन किया। समाचार दहलाने वाला था। रावण-दहन के दौरान पटना गाँधी मैदान में भगदड़  ……… ।

पटना पटना है। पटना से मैंने बहुत कुछ अर्जित किया है। कहिये तो पटना की बदौलत आज मैं हर जगह पट जाता हूँ। विगत १६ सितम्बर से २२ सितम्बर २०१४ तक मैं पटना प्रवास पर था। पटना से सटे परसा बाजार में मेरे सबसे छोटे चाचा जी रहते हैं  डॉ. रामकिशोर पाठक। उन्हीं के घर पर मेरे बाबा स्वर्गीय केशव पाठक जी वैद्य का अन्त्यकर्म संपन्न हुआ। १७ सितम्बर को दशकर्म, १८ को एकादशा, १९ को ब्राह्मण-भोजन एवं २२ को बरखी।

मुझे लग रहा है, यह सब नहीं बताना चाहिए। अपनी आपबीती से किसी को क्या  ………।? उसमें भी एक ब्राह्मण की आपबीती। आज के ट्रेंड से पृथक। आज माँझी का मंदिर वाली बात का जमाना है। महादलित मुख्यमंत्री की बात है।

खैर ! अपनी बात भी बताना जरूरी लग रहा है। खासकर पटना की बात, भोगे हुए यथार्थ की बात।

तो १६ सितम्बर को रात्रि लगभग ८:०० बजे टाटा-दानापुर सुपर से पटना जँ. का ६ नं. प्लेटफॉर्म पर उतरा। वहाँ से परसा- बाजार जाना था। परसा-बाजार गया लाइन में पड़ता है। पुल पर चढ़कर करबिगहिया तरफ का किनारे वाला प्लेटफॉर्म पर उतरा। जहाँ हटिया-पटना सुपर आकर ठहरी थी। ८ नं. पर पलामू एक्सप्रेस जाने को तैयार थी। उसके बगल में एक और ट्रेन लगी हुई थी। एक आदमी से पूछा," परसा के लिए पैसिंजर कब है ?"

कड़कते हुए बोला," पैसिंजर के फेर में का हैं, बगले से टेम्पू जाता है, तुरते पहुँचा देगा। "

बीबी श्री बेबी का भी विचार बना, "बगले में है त टेम्पूए से चलिए। "

चल भाई।

मैं था, बेबी थी, दीपा और दिव्या।  हम दो, हमारे दो।  मेरा एक काला थैला, जिसमें १९०० से अबतक का पञ्चाङ्ग, एक दो पत्रिकाएं, कैमरा, कलम, कागज, कुछ ग्रहोपयोगी पत्थर इत्यादि। लगभग वज़न यही पंद्रह किलो का। दूसरा बड़ा थैला भारी-भरकम कपड़े-लत्तों एवं सन्देश का, लगभग आदमी भर का।  जिसका बोझ मेरे पीठ पर था। बेबी के जिम्मे एक लेडीज बैग और नास्ता पानी का एक छोटा झोला। दीपा -दिव्या खाली-खाली। मैं ही बुरी तरह से ओभरलोड था। ६ नं. से गया लाइन के  प्लेटफॉर्म आते-आते दम फुल गया था। मेरे दिमाग में योजना थी परसा तक ट्रेन से जाने की। मगर बीबी जो कहें, शिरोधार्य, टेम्पू से जाना था।

टाटा से पटना आने के क्रम में क्यूल जँ. पर एक हादसे का शिकार हो गया था। क्यूल में गाड़ी करीब घंटे भर रुकी रही। पास का पानी ख़त्म हो चूका था। गर्मी अच्छी पड़ रही थी। सोचा उतरकर पानी ले लूँ। वहाँ एकदम किनारे वाला प्लेटफॉर्म पर गाड़ी खड़ी थी। प्लेटफॉर्म बहुत नीचे  में था। उतरा, नल तक पहुँचा। बोतल भरना शुरू ही हुआ कि गाड़ी अपना सायरन देकर चल पड़ी। दौड़ा वहाँ से। गाड़ी तक पहुँचते- पहुँचते गाड़ी गति में आ गयी थी। क्या करें ? चढ़ने वालों में दो-तीन आदमी और थे, जो तब ही चढ़ते थे जब गाड़ी खुलती थी। इधर हाथ-पाँव कमजोर हो गए हैं और शरीर भारी। मगर कोई चारा नहीं था। किसी तरह गाड़ी पकड़नी थी। दाहिने हाथ से दरवाजे का हत्था पकड़ा गया। नीचे वाली पाँवदानी पर एक पैर भी रखा गया। बाएं हाथ में दो बोतल, एक खाली और एक थोड़ा सा भरा हुआ। एकाएक झूल गया। लगा कि गिरे। दाहिना हाथ कड़ से किया। शरीर का पूरा बजन दाहिने हाथ पर आ गया था। मगर मैं भी मानने वाला नहीं था। मानता भी क्यों ? काल के गाल में थोड़े ही जाना था। अपने-आप को बोगी के अंदर पहुँचाकर ही दम लिया। तब दम फूलने लगा था। लम्बा-लम्बा साँस चलने लगा था। एक महिला, "बाबु, पनिया दे द, बड़ी पियास लगल हे। "

मेरा तो मानो  ………।  हाँफते हुए अपने जगह तक पहुँचा था।

"खुलने के टाइम में ही पानी लेने चले जाते हैं। पहले से बैठे रहेंगे। अब बैठिये भी। " बेबी बोलीं थीं।  उनके तमतमाहट का कारण बाद में पता चला। वो जीउतिया के उपवास में थीं।  अन्न-जल कुछ भी ग्रहण नहीं कर रही थीं।  मेरे यहाँ जीउतिया का चाल नहीं है, फिर भी मनमतङ्गी का क्या कहना ?

मैं चुपचाप बैठ गया था। दाहिने हाथ की कलाई में दर्द उभरने लगा था।  क्योंकि कलाई मोच खा गया था।

हाँ तो, पटना में परसा के लिए टेम्पू पकड़ने हेतु प्लेटफॉर्म से पटरी पर आ गया था, मीठापुर जाने के लिए। दो पटरी पार के प्लेटफॉर्म पर पीजी पैसिंजर खड़ी मुँह चिढ़ा रही थी, मानो खुदपर बैठने को कह रही हो। मगर  ……, "चुपचाप चलिए, टेम्पूए से, ज्यादा लटर-पटर मत सोचिये। "

पटरी-से-पटरी पार कर रहे थे। पीठ पर भारी-भरकम बोझ था। नीतीश कुमार का नया निर्माणाधीन पल के नीचे आ गया था।

"बेबी बच के। " "बच के आप चलिए। " "कैसा रास्ता है ? " "पुल बन रहा तब। "

मीठापुर गुमटी पार किये।  पहले गुमटी पार करते ही टेम्पू-टेकर मिलना शुरू हो जाता था।  मगर टेम्पू-टेकर के जगह में पुल का नंगा पाया दिख रहा था और सीमेंट के बड़े-बड़े स्लैब। आदमी के चलने का कीचड़ युक्त रास्ता, कहीं-कहीं पर बड़े-बड़े गड्ढे, तो कहीं-कहीं पर फिसलन।

"सम्हलकर चलना, कहीं पाँव न फ़िसल जाए। "

बहुत दूर आ गए थे, पीछे भी नहीं जा सकते थे।

"टेम्पू कहाँ मिलेगी, परसा-पुनपुन के लिए। "

"थोड़ा और आगे जाइए, उस पाया के उस तरफ।"  एक जगह गिरने-गिरने को हुआ। मगर सम्हल गया। किसी तरह टेम्पू स्टैंड पहुँचा।

वहाँ पता चला, वाईपास चार घंटा से जाम है। वाईपास तक टेम्पू जा रही है। अब क्या करें ? इंतजार कीजिए या वाईपास तक चलिए। हो सकता है, उधर से टेम्पू मिल जाय। बाप रे !

"ओह ! बेबी, हम कह रहे थे ट्रेने से चलिए। "

"चलिए और क्या ?" "क्या?"

यहाँ तक आने में पनहतर ढील हो गया। अब फिर वापस जाने में तो  ............., प्राणे निकल जायेगा।

करीब पौन घंटे बाद,"परसा-परसा-परसा। " एक टेम्पू वाला आवाज देने लगा था। उस तक पहुँचने के लिए थैला उठाया, तो एक आदमी, "अरे ! मत जाइये। उसका कोई भरोसा नहीं। वाईपासे पर छोड़ देगा। थोड़ा और इंतजार कर लीजिये। "

इतने में, " चलिए-चलिए, आपको परसा जाना है न, उ टेम्पू वाला जा रहा है, हमको भी एतवारपुर जाना है। "

टेम्पू तक पहुँचे। टेम्पू पूरा भर गया सा लग रहा था। करीब दस जन उसपर बैठे थे।

"आइये-आइये बैठिये। " "जगह कहाँ है भाई " "आप आइये तो सही। "

पीछे थैला रख दिया और हमलोगों को भी ऐडजस्ट कर लिया। गज़ब का मैनेजमेंट देखने को मिला, बिहारी मैनेजमेंट। आगे चार आदमी, अपने एक पांच। बीच में दो सीट पर दस महिला-पुरुष aur पीछे तीन।  कुल अठारह आदमी, साथ-साथ सबका लग्गेज। टेम्पू चली तो एक आदमी कहने लगे, "अपना थैला पीछे  देखते रहिएगा, नहीं तो कोई  ……। "

अरे बाप!

परसा पहुँचने से पहले ही पी जी पैसिंजर पहुँच गयी। दो यात्री सिपारा में चढ़े थे। अकुलाने लगे, "तनी तेजी से चलाव हो। पसिंजरवा पकड़े के हई। "

टेम्पू तेज चलने लगी थी। परसा पहुँच गयी। दोनों यात्री को पैसिंजर पकड़ा गया था।

भाड़ा दस रूपया था एक आदमी का। हम थे दो फूल- दो हाफ। मगर, "पूरा सीट लेकर आपलोग आये हैं ४० देना पड़ेगा। "  "३०  ले लो भाई। "

मगर टेम्पू चालक टेम्पू बंद करके सामने आ गया। मानो बजड़ पड़ेगा।

"अच्छा ले भाई। "

टिपण्णियाँ:

कमलेश पुण्यार्क गुरुजी: बहुत दिनों बाद नजर आये दिलीपभाई।लगता है अनुष्ठान में व्यस्त थे। परिवार सहित यात्रा का एक अच्छा अनुभव।आपकी आपवीती पर मुझे भी कुछ सुनाने का मन कर रहा है।

अरुण मिश्र: Tum v apne bhai k paas chale aate to sikh lete bina baby (wife) kaise bhaiya rahte hain

मैं: bap re !

आशुतोष कुमार पाठक: Dilip baba ki baat hi nirali hai...!!

हिमांशु शेखर: Alag Hain Aap,Saphal Hain Aap..............Parkar achha Laga.