सदस्य:दिलीप कश्यप कलमकार

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कन्नौजी बोली शब्द कोश भूमिका

ग्रामीण हिंदी बोलियों के शब्द हिंदी शब्द सम्पदा की अपार थाती हैं और इस थाती को सहेजना, संरक्षित करना अति आवश्यक है। अन्यथा 'काल' का प्रवाह इस थाती को अपने साथ बहा ले जायेगा। जब गाँव के एक पीढ़ी के बुजुर्ग परलोक वासी होते हैं, तो उनके साथ न जाने कितने बहुमूल्य शब्द भी परलोक वासी हो जाते हैं, उनका लोप हो जाता है। इसलिए किसी भी बोली के शब्दों का संग्रह जितनी जल्दी हो जाये, हिंदी का शब्द भण्डार उतना ही अधिक संरक्षित रहेगा, समृद्ध होगा। साथ ही लोक भाषा और लोक साहित्य का भी कल्याण होगा। सभी भाषा वैज्ञानिकों ने बोलियों के महत्त्व को स्वीकार करते हुए इनकी शब्द-संपदा को संरक्षित करने, शब्द-कोश बनाने का आग्रह किया है। प्रसिद्ध भाषा वैज्ञानिक डॉ. धीरेन्द्र वर्मा का विचार है- “जनपदीय भाषाओं के महत्त्व को अब अधिक समझा जा रहा है। उनके शब्दों को एकत्र करने का काम उन्हें लुप्त हो जाने से बचाने के लिए आवश्यक है। उनका कोष रूप में सम्पादन लोक साहित्य और लोक भाषा को समझने की दृष्टि से मूल्यवान है। राष्ट्रभाषा हिन्दी की शब्द निधि को भरने की दृष्टि से यह कार्य कम महत्त्व का नहीं है। जनपदीय भाषाओं के ऐसे बहुत से शब्द हैं, जिनके समानार्थी हिन्दी में नहीं मिलते हैं और जिनके ग्रहण कर लेने से हिन्दी की विचारों को व्यक्त करने की क्षमता बढ़ेगी। अतएव भाषा कोषों की उपयोगिता स्पष्ट है। "

विश्व प्रसिद्ध कोशकार डॉ. हरदेव बाहरी जिन्होंने अनेक भाषाओं के शब्दों कोशों का सम्पादन किया है। उन्होंने अवधी और भोजपुरी बोली के शब्दों का संग्रह भी 'अवधी शब्द-सम्पदा' और 'भोजपुरी शब्द- सम्पदा' नाम से किया है। वे लिखते हैं- “अपनी संस्कृति की अभिव्यक्ति के लिए अपने देश की भाषाओं और बोलियों में कितनी भारी सम्पत्ति पड़ी है। इस सम्पत्ति को खोज निकालना हमारा कर्त्तव्य है।" इन विद्वानों के विचारों और प्रयासों का परिणाम यह हुआ कि सभी प्रमुख बोलियों के शब्द-कोश प्रकाश में आ चुके हैं; लेकिन अभी भी अनेक बोलियों के शब्दकोशों की अपेक्षा है। कन्नौजी जैसी प्रसिद्ध बोली का कोश भी अभी तक नहीं बना था। अतः मैंने डॉ. जगदीश व्योम और श्री जवाहर सिंह गंगवार जी के साथ मिलकर कन्नौजी शब्द कोश सम्पादित करने का प्रथम प्रयास किया है।

प्रस्तुत शब्दकोश में लगभग पन्द्रह हजार शब्दों का संग्रह है। शब्दों के साथ उनका अर्थ और व्याकरण भी दिया गया है और विशेष बात यह है कि इस कोश में हर उस शब्द के साथ जो प्रयोग, लोकोक्तियाँ और मुहावरे प्रचलित हैं; उनको भी अर्थ सहित विवेचित किया गया है। प्रायः हिन्दी बोलियों के सम्पादित कोशों में ऐसा नहीं किया गया है। दूसरी भाषाओं के जिन शब्दों ने कन्नौजी के शब्द भण्डार को बढ़ाया है, उनका भी संकेत किया गया है कि कौन शब्द किस भाषा का है, यद्यपि वह अपने मूल रूप में नहीं है और हो भी नहीं सकता है, उनको कन्नौजी ने अपने अनुरूप ढाल लिया है। ग्रामीण सैकड़ों वर्षों से दरखास (दरख्वास्त फा.) देता चला आ रहा है, उसे यह पता नहीं है कि यह शब्द किस भाषा का और इसका मूल रूप क्या है?

शब्द के साथ प्रयोगों में लोकोक्तियों, कहावतों और मुहावरों के देने से शब्द कोश की शुष्कता भी समाप्त हुई है तथा कोश की उपयोगिता और अधिक बढ़ गयी है; क्योंकि कहावतें और लोकोक्तियाँ न केवल समाज के प्रत्येक क्षेत्र की सच्चाइयों से रू-ब-रू कराती हैं; बल्कि ज्ञानवर्धन भी करती हैं; यथा- "मघा न बस्सइ, भरइ न खेतु ।

अम्मा न पस्सइ, भरइ न पेटु।।'

...

'पानी बस्सइ आधे पूस, आधो गेहूँ आधो भूस।'

'जुरु, जाचक, अरु पाहुना, चउथो माँगनहार। लंघन तीनि कराइ दें, फिरि ना आवई द्वार ।।' हर बहेरा आँवरो, घिउ सक्कर सइ खाइ।

हाँती दाबइ काँख मइँ, सात कोस लइ जाइ।।'

"क्वॉर करेला कातिक दही, चइत मिठाई किन्नइँ कही।'

प्रस्तुत ग्रंथ में कन्नौजी बोली का संक्षिप्त परिचय भी दिया गया है। इस परिचय में कन्नौजी बोली की विशिष्टताओं के साथ कन्नौजी क्षेत्र और कन्नौजी की उप बोलियों का क्षेत्र मानचित्रों द्वारा स्पष्ट किया गया है। यहाँ यह उल्लेख कर देना भी आवश्यक प्रतीत होता है कि कन्नौजी का क्षेत्र अति व्यापक है। हम सभी क्षेत्रों की उपबोलियों का अलग-अलग वर्गीकरण नहीं कर पाये हैं। ऐसा कर पाना व्यक्तिगत स्तर पर कठिन है। ऐसा तो बड़ी-बड़ी संस्थाएँ ही कर सकती हैं; क्योंकि ऐसा करने के लिए अनेक लोगों की और काफी धन की आवश्यकता होगी। जब उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान के उपाध्यक्ष डॉ. शिवमंगल सिंह 'सुमन' थे, तब उन्होंने जनपदीय अवधी कोश की योजना बनाई थी। इस कोश के सम्पादक थे प्रो. भगवती प्रसाद सिंह (गोरखपुर विश्वविद्यालय)। इस योजना में मैंने शोध सहायक के रूप में बहराइच, गोंड़ा और फतेहपुर जनपद के शब्द संकलित किये थे। इसी प्रकार अन्य शोध सहायकों ने अन्य अवधी जनपदों में शब्द संकलन का कार्य किया था; फिर भी यह योजना परवान नहीं चढ़ पायी । स्पष्ट है कि ऐसा करने के लिए जन, धन और श्रम की आवश्यकता होती है।

शब्दों का अर्थ स्पष्ट करते समय किसी-किसी शब्द के अर्थ को हम स्पष्ट नहीं कर पाये हैं और कर भी नहीं सकते। उदाहरण के लिए यदि हम किसी वनस्पति- पौधे का अर्थ लिखते हैं- एक प्रकार की वनस्पति या एक प्रकार का छोटा पौधा, जिसके पुष्प लाल वर्ण के और सुगंधित होते हैं। ऐसा अर्थ कर देने से किसी वनस्पति का ठीक-ठीक अर्थ बोध नहीं हो पाता। इसके लिए तो चित्र आदि की भी आवश्यकता है और यह कार्य भी व्यक्तिगत स्तर पर कर पाना बहुत कठिन है। फिर भी यथा सम्भव सभी क्षेत्रों से अर्थ संकलित किये गये हैं और उनके अर्थों में स्पष्टता लाने का भरसक प्रयास किया गया है।

आज जब मैं यह भूमिका लिख रहा हूँ, तो ठा. गंगाभक्त सिंह 'भक्त' दहू जी का स्मरण हो रहा है। वे भी लगातार मुझे इस दिशा में कार्य करने के लिए प्रेरित करते रहे। मेरे और जगदीश 'व्योम' के बीच के सेतु वही थे। अतः मैं दद्दू जी को अपनी हार्दिक श्रद्धांजलि और अभिव्यंजना संस्था को धन्यवाद ज्ञापित करता हूँ। एक ने ‘व्योम' का परिचय कराया तो दूसरी ने 'जवाहर' दिया। बस, फिर क्या था? बन गया कन्नौजी शब्द कोश। वस्तुतः डॉ. जगदीश व्योम और श्री जवाहर सिंह गंगवार इस शब्द कोश के मूलाधार हैं। इन दोनों ने मेरी पिहित अभिलाषा को साकार कर दिया। इन दोनों के बिना मेरे लिए यह कार्य असंभव तो नहीं; किन्तु दुष्कर अवश्य था। इनमें से एक मेरा अनुज तो दूसरा अग्रज है। अतः मैंने कोश निर्माण के साथ-साथ स्नेह और सम्मान भी खूब बटोरा। ये दोनों मेरे अपने हैं, इसलिए अपनी पीठ ज्यादा थपथपाना उचित नहीं होगा।

शब्द संकलन करना एक दुरूह कार्य होता है। सभी क्षेत्रों (खेती-बारी, घर-खलिहान, स्वास्थ्य-बीमारी, वनस्पति आदि आदि) से शब्द संकलन करने पड़ते हैं। इस दिशा में डॉ. जगदीश व्योम, श्री जवाहर सिंह गंगवार, देवकीनंदन गंगवार, राममुरारी शुक्ल, सुनील कटियार, गीता भारद्वाज, नानक चन्द, विजय दुबे, डॉ. प्रशांत सिंह

और पुत्रवधु प्रतिभा सिंह आदि का सहयोग तो रहा ही, प्रो. रामबाबू मिश्र 'रत्नेश' जी का भी अमूल्य सहयोग प्राप्त हुआ है। उन्होंने उन अंग्रेजी शब्दों की एक सूची प्रेषित की थी, जिनका कन्नौजीकरण हो गया है या जिन शब्दों को ग्रामीण अपभ्रंश करके धड़ल्ले से बोलते और समझते हैं। एतदर्थ मैं 'रत्नेश' जी की सहयोगी भावना को प्रणाम करता हूँ। यहाँ यह भी स्पष्ट कर दूँ कि अन्य भाषाओं के जो शब्द कन्नौजी में आकर मिल गये हैं, जिनका कन्नौजीकरण हो गया है, उन शब्दों के साथ यह संकेत किया गया है कि यह शब्द किस भाषा का है।

इस कोश के निर्माण में अनेक ग्रंथों का भी सहयोग लिया गया है। अतः इन ग्रंथों के सम्पादकों या रचनाकारों को मैं हार्दिक प्रणाम निवेदित करता हूँ। जिनमें उल्लेखनीय कोश निम्नवत् हैं-

मानक हिंदी कोश, संपादक- रामचंद्र वर्मा, बृहत् हिंदी कोश, संपादक- कालिका प्रसाद, राजबल्लभ सहाय, मुकुंदीलाल श्रीवास्तव; उर्दू-हिंदी शब्द कोश, संपादक- मुस्तफा खाँ 'मुद्दाह'; अवधी शब्द सम्पदा, संपादक - डॉ. हरदेव बाहरी; भोजपुरी शब्द सम्पदा, संपादक- डॉ. हरदेव बाहरी, अवधी कोष, संपादक- रामाज्ञा द्विवेदी 'समीर'; सूर शब्दसागर, संपादक- डॉ. हरदेव बाहरी, डॉ. राजेन्द्र वर्मा आदि ।

प्रस्तुत कोश के प्रकाशन का सम्पूर्ण आर्थिक व्यय माननीय श्री अनिल कुमार कटियार 'चन्दू बाबू' ने सहर्ष वहन किया है। हम उनके प्रति हार्दिक कृतज्ञता ज्ञापित करते हैं और उनके शतायु होने की कामना करते हैं।

प्रस्तुत शब्दकोश में बहुत से क्षिद्र रह गये होंगे, बहुत सी भूलें हुई होंगी, बहुत से शब्द छूट गये होंगे। क्षिद्रान्वेषी इन्हीं का अन्वेषण करेंगे; पर हम त्रुटियों के लिए क्षमायाचना में ज्यादा विश्वास नहीं करते। यह कन्नौजी बोली का प्रथम कोश ग्रंथ है, इसमें शब्दों का रह जाना, भूलें होना अति स्वाभाविक है। हाँ, आपके सुझाव सर माथे पर। इस कोश के मनकों में से यदि एक भी मनका आपके मन को भा जाये या यह कोश कन्नौजी शब्दावली को संरक्षित करने में यत्किंचित उपयोगी सिद्ध होगा, तो हम अपने श्रम को सार्थक समझेंगे। इसी आशा और प्रत्याशा के साथ-

साभार

डॉक्टर राजकुमार सिंह

(संपादक)

पूर्व विभागाध्यक्ष हिन्दी

डीएन डिग्री कालेज फर्रुखाबाद