वीरांगना मोतीबाई

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वीरांगना मोतीबाई बेगम साहिबा

यह झांसी की नर्तिका थी। देश की आजादी की लड़ाई में वीरांगना मोतीबाई ने महारानी लक्ष्मीबाई के साथ युध्द किया और वीरगति को प्राप्त हुई।

  • नाम : वीरांगना मोतीबाई बेगम साहिबा
  • जनम : १८३०
  • माता-पिता : हैद्राबाद की एक वेश्या
  • व्यवसाय : नर्तिका, गायिका
  • प्रेमी : खुदा बख्श
  • आंदोलन : १८५७ का स्वतंत्रता संग्राम
  • मृत्यु : २९ मार्च १८५८
  • समाधी : झांसी किला

वीरांगना मोतीबाई बेगम साहिबा यह हैद्राबाद के नवाब के यहां की एक वेश्या की बेटी थी। लेकिन मोतीबाई ने देह व्यापार व्यवसाय में कभी दिलचस्पी नहीं रखी। वे एक उत्तम नर्तिका तथा गायिका थी। मां के निधन के पश्चात वे झांसी आयी थी।

महाराज रामचंद्रराव के एक समारोह में झांसी राज दरबार में उसने गजराबाई और लछ्छोबाई के साथ नृत्य किया था। जिस पर महाराज गंगाधर राव नेवालकर ने उसके नृत्य को देखकर अपने लाल बगिचा के समीप रंग महल में आश्रय दिया। मोतीबाई उस महल में रहती थी इसलिए उसे मोतीबाई महल भी कहां जाता था। वे अक्सर शुभ अवसर पर राजदरबार में नृत्य करती थी।

महाराज गंगाधर राव एक उत्तम कलाकार थे। वे संस्कृत नाटक तथा पौराणिक कथाओं को हिंदी या मराठी में अनुवाद करके प्रस्तुत करते थे। महाभारत, रामायण, नल दमयन्ती आदी जैसे नाटक किया करते थे। इस में उनकी साथ मोतीबाई दिया करती थी।

इस समय महाराज गंगाधर राव की पत्नी महारानी रमाबाई साहेब का बिमारी के चलते उनका निधन हुआ। उनके परिवार के सगे संबंधी उनके विरूध्द षड्यंत्र रचा करते थे। महाराज अकेले थे। उनका अकेलेपन में उनका ख्याल मोतीबाई रखा करती थी। इस वजह से अंग्रेज़ों ने महाराज और मोतीबाई की प्रेम कहानी प्रसिध्द की।

एक तरह से मोतीबाई महाराज से प्रेम करती थी। लेकिन वे जानती थी की झांसी की रानी बनना उसके लिए इतना आसान नहीं है। कुछ समय बाद महाराज गंगाधर राव का विवाह मनिकर्णिका से हुआ वही आगे रानी लक्ष्मीबाई बनी।

मोतीबाई राजा गंगाधर राव के अश्वरोही खुदा बख्श से प्रेम हुआ। वे दोनों एक दुसरे से प्रेम किया करते थे। यह बाद महाराज गंगाधर राव को पता चली और अनुशासन प्रीय महाराज ने उन्हे अपनी सेवा से निष्कासित कर दिया। बाद में रानी लक्ष्मीबाई की वजह से मोतीबाई और खुद बख्श को सेवा में रखा गया।

महाराज गंगाधर राव के निधन के बाद झांसी का शासन रानी लक्ष्मीबाई ने अपने हाथ लिया। तब मोतीबाई महारानी की नारी सेना में शामिल हुई। तलवारबाजी, तोप चलाना जैसे सब युध्द कला सिख ली। वे नर्तिका थी इसलिए वे जासूस बनकर अंग्रेज़ों के राज पता किया करती थी। १८५७ के स्वतंत्रता संग्राम में रानी के साथ वे अद्भुत साहस के साथ लडी। भवानी शंकर तोप का संचालन वीरांगना मोतीबाई ने किया।

२९ मार्च १८५८ को खुदा बख्श और गुलाम गौस खान के मृत्यु के पश्चात कुछ ही देर में गोली लगने के कारण वीरांगना मोतीबाई शहीद हुई। उसकी अंतिम इच्छा के अनुसार महारानी लक्ष्मीबाई ने मंजू महल में खुदा बख्श की कब्र के बाजू में मोतीबाई को दफनाया गया।

आज झांसी किले में गुलाम गौस खान, खुदा बख्श और वीरांगना मोतीबाई की मजार है। जिसपर तारीख ४ जून १८५८ ऎसा गलत लिखा गया है।