वीरांगना मानवतीबाई हैहयवंशी

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झाँसी की वीरांगना मानवती देवी हैहयवंशी

  • नाम : वीरांगना मानवती देवी
  • पती : वीर खुमान सिंह
  • पुत्र : कुमार वीर सिंह
  • स्थान : झाँसी, बुंदेलखंड
  • सेना : दुर्गा दल महिला सेना
  • युध्द : ओरछा-झांसी युध्द
  • मृत्यू : ३० नवम्बर १८५७

भारतीय स्वतंत्रता संग्राम में झाँसी की रानी लक्ष्मीबाई को जितना याद किया जाता है, उतना ही महारानी की नारी सेना को याद किया जाता है। महारानी की नारी सेना देश की पहली महिला सेना थी। इस सेना में कही सारी वीरांगानाऐं थी, जिनसे अंग्रेज़ कांपते थे। ऐसी ही हैहयवंशीय वीरांगना मानवती देवी त्याग और बलिदान की अद्भुत मिसाल है। उनके पूरे परिवार ने मातृभूमि के लिए अपने प्राण न्योछावर कर दिए थे।

वीरांगना मानवती देवी के पती पराक्रमी वीर खुमान सिंह झाँसी की सेना में डाकुओं का दमन करने वाली टुकड़ी का नेतृत्व करते हुए वीरगति को प्राप्त हुए। उनकी विधवा मानवती जी को झांसी की रानी महारानी लक्ष्मीबाई ने अपनी नारी सेना "दुर्गा दल" में महिला सैनिक के तौर पर नियुक्त किया था।

सन् १८५७ में आज के टीकमगढ़ के टिहरी-ओरछा राज्य की महारानी रानी लड़ई दुलैया सरकार जू देव बुंदेला के सेनापती नत्थे खान ने झाँसी पर आक्रमण किया था। तब महारानी और उनकी पुरी सेना ओरछा रानी के साथ लडे थे।

ऐसा कहां जाता है की, उस समय झांसी के किले में अन्य तोपों के साथ एक विशाल तोप "भवानी शंकर" नामक तोप थी। जिसके बारे में कहां जाता था की, यह तभी चलती है जब इसे नर बलि दी जाती है। उस समय मानवती देवी ने अपने १८ वर्षीय पुत्र वीर सिंह को महारानी के समक्ष बली स्वरूप प्रस्तुत किया। महारानी लक्ष्मीबाई ने वीर सिंह की छोटी उम्र को देख कर मना कर दिया, लेकिन वीर सिंह ने कहा कि माता की आज्ञा है और शत्रुओं से देश की रक्षा करना उनका परम धर्म है अतः देश हित में मेरी बलि दी जाए, तब हंसते हुए वीर सिंह ने तोप के समक्ष अपनी तलवार से अपना शीश अलग कर दिया।

यह घटना सत्य हैं की नहीं इसका संशोधन चल रहा हैं, क्योंकि रानी लक्ष्मीबाई ने कभी भी "बली" प्रथा का समर्थन नहीं किया था। वह साक्षात माता महालक्ष्मी का रूप थी। प्रजा की राजमाता थी। वे सभी से स्नेह किया करती थी।

ओरछा के समीप प्रतापपुरा नामक स्थान पर रानी लक्ष्मीबाई और उनकी सेना और नत्थे खान के बीच भयंकर युद्ध हुआ। इसमें मानवती देवी ने अपनी मां। महारानी और महारानी झांसी के प्रति निष्ठावान और स्वाभिमान की मिसाल देते हुए दुर्गा रूप धरे संहार करने लगी थी। मानवती जी ने अपने भाले से नत्थे खान के सिर पर ऐसा प्रहार किया की वह मूर्छित हो गया। जब उसे होश आया तो उसे ग्लानि हुई की मैं एक महिला के हाथों मार खाकर मूर्छित हो गया था। तब उसने कपट पूर्वक मानवती देवी के उपर प्रहार किया, जिस वजह से ३० नवम्बर १८५७ को वीरांगना मानवती देवी झांसी के प्रति वीरगति को प्राप्त हुई।

मानवती देवी के इस शौर्य और बलिदान के प्रतीक स्वरूप झांसी के किले की तलहटी में समाधि स्थल बना हुआ है, जहां पर कई वर्षों से झांसी के समाजजनों द्वारा आयोजन किया जाता हैं।