विष्णूभटजी गोडसे

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विष्णुभट गोडसे (1827-1904)[1] भारत के एक यात्री एवं मराठी लेखक थे। इन्होंने मराठी में 'माझा प्रवास' (मेरा प्रवास) नामक एक यात्रा-वृतान्त लिखा जिसमें उन्होंने सन १८५७ के भारतीय स्वतन्त्रता के प्रथम संग्राम का सत्य और अनन्य विवरण दिया है। उस समय वे उत्तरी भारत के प्रवास पर थे। वे एक ब्राह्मण पुजारी थे।

1857 की क्रांति का सजीव चित्रण भारत के दो किताबों में हुए है। इसमें पंडित विष्‍णु भटट गोडसे द्वारा मराठी में लिखित ‘ माझा प्रवास’ एक मात्र लाइव रिपोर्टिंग आधारित पुस्‍तक है। पंडित विष्‍णु भटट गोडसे महाराष्‍ट्र से ग्‍वालियर में होने वाले एक यज्ञ में भाग लेने के लिए चले और जब वह उत्‍तर भारत पहुंचे तो मेरठ और दिल्‍ली में क्रांति आरम्भ हो चुकी थी। उन्‍होंने क्रांति के एक एक पल को अपनी आंखों से देखा था और वापस महाराष्‍ट्र लौटकर ‘माझा प्रवास’ नामक पुस्‍तक की रचना की। वीर सावरकर द्वारा लिखित ‘1857 का स्‍वातंत्रय समर’ में भी कुछ जगहों पर उनका उल्‍लेख है, लेकिन उनका सही उल्‍लेख अमृत लाल नागर ने अपनी पुस्‍तक में किया। इस पुस्‍तक को आधार बनाकर हाल ही में हिन्दुस्‍तान की पूर्व सम्पादिका मृणाल पांडे ने अंग्रेजी व हिंदी में एक पुस्‍तक की रचना की है, जो हार्पर कॉलिंग्‍स से प्रकाशित हुई है।

1857 की क्रांति का दूसरा जीवन्त चित्रण वीर सावरकर द्वारा लिखित ‘1857 का स्‍वातंत्रय समर’ में में है। सावरकर ने इस पुस्‍तक की रचना के लिए पूरी तरह से ब्रिटिश सरकार व इतिहासकारों के दस्‍तावेज का उपयोग किया है। सावरकर ने ब्रिटेन में रहकर ‘इंडिया ऑफिस लाइब्रेरी’ व ‘नेशनल म्‍यूजियम लाइब्रेरी में बैठकर इस पुस्‍तक के लिए ब्रिटिश सरकार के दस्‍तावेजों व ब्रिटिश लेखकों की पुस्‍तक का अध्‍ययन किया। चूंकि यह ब्रिटिश दस्‍तावेज पर आधारित है इसलिए इसमें किया गया वर्णन स्‍वयं ब्रिटिश द्वारा ब्रिटिश क्रूरता का चित्रण है। यही वजह है कि यह दुनिया की एक मात्र पुस्‍तक बन गई, जिस पर छपने से पहले ही प्रतिबंध लग गया, क्‍योंकि इससे ब्रिटिश को अपने और भारत में छुपे अपने एजेंटों के पर्दाफाश का डर सताने लगा था। कांग्रेस की राजनीति करने वालों को कभी काला पानी की सजा नहीं मिली और एक पुस्‍तक लिखने मात्र से सावरकर पर दो जन्‍मों का कालापानी थोप दिया गया, आपके मन में इस पर कभी सवाल नहीं उठा, आखिर क्‍यों। आजाद हिंद फौज के हर सैनिक को नेताजी सुभाषचंद्र बोस यह पुस्‍तक पढने के लिए देते थे और आजाद हिंद फौज के गठन में इस पुस्‍तक का अप्रतिम योगदान रहा था।

आज की आजाद भारत की संतान ने अपने इतिहासकारों, अपने नेताओं से यह कभी नहीं पूछा कि आखिर वीर सावरकर को इस पुस्‍तक की रचना के लिए 1910 में लंदन में क्‍यों गिरफ्तार किया गया था? क्‍यों उन्‍हें दो जन्‍मों का कारावास देकर कालापानी भेज दिया गया था? क्‍यों इस पुस्‍तक के भारत में प्रवेश को रोकने के लिए अंग्रेज प्रशासन ने उस वक्‍त देश के सभी बंदरगाहों पर पहरे बैठा दिए थे? नौ महीने तक इस पुस्‍तक की मूल पांडुलिपि को खोजने में ब्रिटिश गुप्‍तचर विभाग क्‍यों लगी रही? आखिर देश में कांग्रेस की राजनीति करने वालों को क्‍यों कभी कालापानी की सजा नहीं दी गई? हमारी पीढी क्‍यों यह सवाल पूछेगी, उसे तो जो मार्क्‍सवादी विपिनचंद्रा और सुमित सरकार ने लिखकर दे दिया, उसे उसने पढ लिया!

जिस सावरकर ने 10 से 16 मई 1857 तक दिल्‍ली-मेरठ में क्रांति के दौरान हिंदू-मुस्लिम एकता का इतना सुंदर चित्रण किया है, उसे आजाद भारत में सांप्रदायिक ठहरा दिया गया, लेकिन युवा पीढी ने कभी इसके पीछे की वजह जानने की कोशिश ही नहीं की! आखिर क्‍या कारण है कि 1857 की क्रांति के बाद विदेशी ए ओ हूयम ने एक कांग्रेस पार्टी का गठन किया, विदेश में पढने गए दो व्‍यक्ति आए और उस कांग्रेस पर आधिपत्‍य कर लिया और देश में पहले से स्‍वतंत्रता की लडाई लड रहे लाला लाजपत राय, बालगंगाधर तिलक जैसों को दूध की मक्‍खी की तरह निकाल कर फेंक दिया गया! क्‍यों अहिंसा को इतनी तरजीह दी गई कि हर क्रांतिकारी को आतंकवादी, संप्रदायवादी कह दिया गया?

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