"भारवि": अवतरणों में अंतर

मुक्त ज्ञानकोश विकिपीडिया से
पंक्ति 3: पंक्ति 3:
कवि ने बड़े से बड़े अर्थ को थोड़े से शब्दों में प्रकट कर अपनी काव्य-कुशलता का परिचय दिया है। कोमल भावों का प्रदर्शन भी कुशलतापूर्वक किया गया है। इसकी भाषा उदात्त एवं हृदय भावों को प्रकट करने वाली है। प्रकृति के दृश्यों का वर्णन भी अत्यन्त मनोहारी है। भारवि ने केवल एक अक्षर ‘न’ वाला श्लोक लिखकर अपनी काव्य चातुरी का परिचय दिया है।
कवि ने बड़े से बड़े अर्थ को थोड़े से शब्दों में प्रकट कर अपनी काव्य-कुशलता का परिचय दिया है। कोमल भावों का प्रदर्शन भी कुशलतापूर्वक किया गया है। इसकी भाषा उदात्त एवं हृदय भावों को प्रकट करने वाली है। प्रकृति के दृश्यों का वर्णन भी अत्यन्त मनोहारी है। भारवि ने केवल एक अक्षर ‘न’ वाला श्लोक लिखकर अपनी काव्य चातुरी का परिचय दिया है।


एक बार राजा चंद्रगुप्त ने विद्वानों की सभा बुलाई। दूर-दूर से विद्वान आए। कई दिनों तक शास्त्रार्थ चला। इसमें भारवि को विजेता घोषित किया गया। राजा चंद्रगुप्त ने उनका यथोचित सम्मान किया और परंपरा के अनुसार उन्हें हाथी पर बिठाकर चंवर डोलाते हुए घर छोड़ने गए। उन्हें देखकर उनके माता-पिता की खुशी का ठिकाना न रहा। घर में घुसकर भारवि ने अपनी मां का तो अभिवादन किया, लेकिन पिता के प्रति ठंडा रवैया अपनाया।
==इन्हें भी देखें==
पिता ने सभा के बारे में कुछ जानना चाहा, तो उन्होंने अनमने तरीके से बात की। उनके इस व्यवहार से उनके माता-पिता को दुख पहुंचा। भारवि को अपनी विद्वता का घमंड हो गया था। राजा ने उन्हें जो सम्मान दिया, उससे वह अपने आप को विशिष्ट समझने लगे थे। उन्हें लगने लगा कि उनके सामने उनके पिता भी कुछ नहीं हैं, लेकिन उनका यह नशा कुछ दिनों बाद टूट गया। तब उन्होंने पिता से सामान्य दिनों की तरह संवाद करना चाहा, पर उनके व्यवहार से आहत पिता ने उन पर विशेष ध्यान नहीं दिया। फिर उन्होंने अपनी मां से कारण पूछा, तो मां ने उत्तर दिया, "पुत्र तुमने अपने व्यवहार से अपने पिता को दुख पहुंचाया है। तुम यह कैसे भूल गए कि आज तुम जहां तक पहुंचे हो, वहां पहुंचने में उनकी कितनी महत्वपूर्ण भूमिका है। जब तुम शास्त्रार्थ के लिए गए थे उन दिनों तुम्हारी विजय के लिए तुम्हारे पिता ने विशेष साधना की। आज जिस ज्ञान के बल पर तुम सर्वश्रेष्ठ घोषित हुए हो, वह उन्हीं का दिया हुआ है। क्या तुम उनका ऋण कभी चुका सकते हो?" भारवि अत्यंत लज्जित हुए। वह दौड़कर अपने पिता के पास गए और चरणों में गिर पडे। पिताजी ने उन्हें उठाकर गले से लगा लिया और कहा, "पुत्र! ज्ञान की प्राप्ति में अहंकार सबसे बड़ी बाधा है। अच्छा है तुमने समय रहते इस बाधा को पहचान लिया और दूर भी कर लिया।"
*[[किरातार्जुनीयम्]]

[[श्रेणी:संस्कृत कवि]]

09:56, 22 फ़रवरी 2014 का अवतरण

भारवि (छठी शताब्दी) संस्कृत के महान कवि हैं। वे अर्थ की गौरवता के लिये प्रसिद्ध हैं ("भारवेरर्थगौरवं")। किरातार्जुनीयम् महाकाव्य उनकी महान रचना है। इसे एक उत्कृष्ट श्रेणी की काव्यरचना माना जाता है । इनका काल छठी-सातवीं शताब्दि बताया जाता है । यह काव्य किरातरूपधारी शिव एवं पांडुपुत्र अर्जुन के बीच के धनुर्युद्ध तथा वाद-वार्तालाप पर केंद्रित है। महाभारत के एक पर्व पर आधारित इस महाकाव्य में अट्ठारह सर्ग हैं। भारवि सम्भवतः दक्षिण भारत के कहीं जन्मे थे। उनका रचनाकाल पश्चिमी गंग राजवंश के राजा दुर्विनीत तथा पल्लव राजवंश के राजा सिंहविष्णु के शासनकाल के समय का है।

कवि ने बड़े से बड़े अर्थ को थोड़े से शब्दों में प्रकट कर अपनी काव्य-कुशलता का परिचय दिया है। कोमल भावों का प्रदर्शन भी कुशलतापूर्वक किया गया है। इसकी भाषा उदात्त एवं हृदय भावों को प्रकट करने वाली है। प्रकृति के दृश्यों का वर्णन भी अत्यन्त मनोहारी है। भारवि ने केवल एक अक्षर ‘न’ वाला श्लोक लिखकर अपनी काव्य चातुरी का परिचय दिया है।

एक बार राजा चंद्रगुप्त ने विद्वानों की सभा बुलाई। दूर-दूर से विद्वान आए। कई दिनों तक शास्त्रार्थ चला। इसमें भारवि को विजेता घोषित किया गया। राजा चंद्रगुप्त ने उनका यथोचित सम्मान किया और परंपरा के अनुसार उन्हें हाथी पर बिठाकर चंवर डोलाते हुए घर छोड़ने गए। उन्हें देखकर उनके माता-पिता की खुशी का ठिकाना न रहा। घर में घुसकर भारवि ने अपनी मां का तो अभिवादन किया, लेकिन पिता के प्रति ठंडा रवैया अपनाया। पिता ने सभा के बारे में कुछ जानना चाहा, तो उन्होंने अनमने तरीके से बात की। उनके इस व्यवहार से उनके माता-पिता को दुख पहुंचा। भारवि को अपनी विद्वता का घमंड हो गया था। राजा ने उन्हें जो सम्मान दिया, उससे वह अपने आप को विशिष्ट समझने लगे थे। उन्हें लगने लगा कि उनके सामने उनके पिता भी कुछ नहीं हैं, लेकिन उनका यह नशा कुछ दिनों बाद टूट गया। तब उन्होंने पिता से सामान्य दिनों की तरह संवाद करना चाहा, पर उनके व्यवहार से आहत पिता ने उन पर विशेष ध्यान नहीं दिया। फिर उन्होंने अपनी मां से कारण पूछा, तो मां ने उत्तर दिया, "पुत्र तुमने अपने व्यवहार से अपने पिता को दुख पहुंचाया है। तुम यह कैसे भूल गए कि आज तुम जहां तक पहुंचे हो, वहां पहुंचने में उनकी कितनी महत्वपूर्ण भूमिका है। जब तुम शास्त्रार्थ के लिए गए थे उन दिनों तुम्हारी विजय के लिए तुम्हारे पिता ने विशेष साधना की। आज जिस ज्ञान के बल पर तुम सर्वश्रेष्ठ घोषित हुए हो, वह उन्हीं का दिया हुआ है। क्या तुम उनका ऋण कभी चुका सकते हो?" भारवि अत्यंत लज्जित हुए। वह दौड़कर अपने पिता के पास गए और चरणों में गिर पडे। पिताजी ने उन्हें उठाकर गले से लगा लिया और कहा, "पुत्र! ज्ञान की प्राप्ति में अहंकार सबसे बड़ी बाधा है। अच्छा है तुमने समय रहते इस बाधा को पहचान लिया और दूर भी कर लिया।"