विधिक सहायता
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जिन लोगों के पास न्यायालय जाकर अपनी कानूनी समस्या को रखने के लिए धन नहीं हो, उन्हें बिना पैसे लिए या बहुत कम पैसे में कानूनी सहायता करना विधिक सहायता (Legal aid) कहलाता है। कानूनी सहायता देना, विधिक समता के लिए बहुत आवश्यक तत्त्व है क्योंकि निर्धनता के कारण कोई न्याय न प्राप्त कर पाए तो विधिक समता का कोई अर्थ नहीं है। कानूनी सहायता प्रदान करने के की तरीके अपनाए जाते हैं, जैसे कर्तव्य अधिवक्ता (duty lawyers), सामुदायिक विधिक चिकित्सा (community legal clinics) तथा उन लोगों के वकील को पैसे देना जो कानूनी सहायता के अधिकारी हैं।
भारत मे विधिक सहायता के सरकारी प्रयास
[संपादित करें]- 1952 से भारत सरकार ने विभिन्न कानून मंत्रियों तथा विधि आयोगों की बैठकों में गरीबों के लिए कानूनी सहायता के प्रश्न पर विचार करना शुरू कर दिया था।
- 1960 में सरकार द्वारा कानूनी सहायता योजनाओं के लिए कुछ दिशानिर्देश तैयार किये गये।
- वर्ष 1976 में 42वें संविधान संशोधन के साथ अनुच्छेद 39क को जोड़ा गया है, जिसमें कहा गया कि राज्य यह सुनिश्चित करेगा कि कोई भी नागरिक जो आर्थिक या अन्य अक्षमताओं के कारण न्याय प्राप्त करने के अवसरों से वंचित हो रहा हो, उसे निःशुल्क विधिक सहायता प्रदान की जाए।
- 1980 में पूरे देश में काननूी सहायता कार्यक्रम के निगरानी और निरीक्षण के लिए न्यायमूर्ति पी.एन. भगवती (तत्कालीन जज) की अध्यक्षता में एक राष्ट्रीय-स्तरीय समिति का गठन किया गया।
- हुसैनारा खातून बनाम बिहार राज्य के सुविख्यात मामले में निर्णय दिया- मुफ्त कानूनी सेवाओं का अधिकार किसी अपराध के आरोपी व्यक्ति के लिए प्राकृतिक न्याय के अंतर्गत न्यायिक प्रक्रिया का एक अनिवार्य घटक है और अनुच्छेद 21 के तहत दिये गये अधिकार में यह अवश्य निहित किया जाना चाहिए।
- 1987 में भारत सरकार ने नागरिकों को मुफ्त कानूनी सहायता उपलब्ध करवाने के लिए तथा संवैधानिक आधिदेश को पूरा करने के लिए विधिक सेवा प्राधिकरण अधिनियम (नालसा) पारित किया। 1994 के अधिनियम में कुछ संशोधनों के बाद यह अधिनियम अंततः 9 नवम्बर 1995 को लागू कर दिया गया।