वार्ता:उशिकु दायबुत्सु बुद्ध प्रतिमा

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 रूपरेखा 

पत्रिका

1,भौगोलिक विस्तार 2,नगर योजनाओं संरचना 3,राजनीतिक आर्थिक व सांस्कृतिक संगठन 4,उत्तर हड़प्पा संस्कृति। 1 भौगोलिक विस्तार सिंधु हड़प्पा संस्कृति अनेको ताम्र पाषाण संस्कृतियों से पुरानी है लेकिन यह है उन संस्कृतियों से कहीं अधिक विकसित है। इस इस परिपक्व हड़प्पा संस्कृति का केंद्र स्थल पंजाब और सिंध में मुख्यतः सिंधु घाटी में पड़ता है। यहीं से इसका विस्तार दक्षिण और पूरब की ओर हुआ। फैलाव इसका फैलाव उत्तर में जम्मू से लेकर दक्षिण में नर्मदा नदी के मुहाने तक और पश्चिम में बलूचिस्तान के मकरान समुद्र तट से लेकर उत्तर पूर्वी में मेरठ था। यह समूचे क्षेत्र त्रिभुज के आकार का है। ईसा पूर्व तीसरी और दूसरी से शताब्दी मैं संसार भर में किसी भी संस्कृति का क्षेत्र हड़प्पा संस्कृति के क्षेत्र से बड़ा नहीं था। अब तक इस उपदेश में हड़प्पा संस्कृति का लगभग 1500 स्थलों का पता लग चुका है। इनमें कुछ हड़प्पा संस्कृति की आरंभिक अवस्था कुछ उत्तर अवस्था के है, किंतु परिपक्व अवस्था वाले स्थल की संख्या सीमित है, उनमें केवल 7 को ही नगर की संज्ञा दी जा सकती है। हड़प्पा और मोहनजोदड़ो इनमें 2 सर्वाधिक महत्व के नगर थे पंजाब में हड़प्पा और सिंधु में मोहनजोदड़ों (अर्थात प्रेतों का टीला)। दोनों एक दूसरे से 483 किलोमीटर दूर थे और सिंधु नदी द्वारा जुड़े हुए थे। चंहुदड़ों: तीसरा नगर सिंध में मोहनजोदड़ों से 130 किलोमीटर के करीब दक्षिण में चहुदड़ों स्थल पर था।

लोथल: चौथा नगर गुजरात में खभात की खाड़ी के ऊपर लोथल स्थल पर था।

कालीबंगा: पाचवा नगर उत्तरी राजस्थान में कालीबंगा (अर्थात "काले रंग की चूड़िया") था।

बनावली:

छठी नगर बनावली. हरियाणा के हिसार जिले में था।

सुतकागेंडोर और सुरकोटदाः

के समुद्रतटीय नगरो में भी इस संस्कृति कीपरिपक्व  अवस्था दिखाई देती है। इन दोनों की विशेषता है एक एक नगर-दुर्ग का

होना। इसके अतिरिक्त, गजरात के कच्छ क्षेत्र में अवस्थित। धोलावीरा में भी मिला है, और इस स्थल पर हड़प्पा संस्कृति की तीनों अवस्थाए मिलती है। ये तीनों अवस्थाएं राखीगढ़ी में भी मिलती है जो घग्गर नदी पर हरियाणा में स्थित है। नगर-योजना और संरचनाएँ पत्रिका हड़प्पा सभ्यता का विस्तार

हडप्पा संस्कृति की विशेषता थी इसकी नगर-योजनाप्रणाली। नगरां में भवनों के बारे में विशिष्ट बात यह थी किये जाल (ग्रिड) की तरह व्यवस्थित थे। तद्नुसार भहके एकदुसरे को समकोण वनाते हुए काटती थी और नगर अनेकखडो में विभत थे।

मोहनजादड़ो का शायद सबसे महत्वपूर्ण सार्वजनिक स्थल है विशाल स्नानागार: जिसका जलाशय दुर्ग के टीले में है। यह ईटों के स्थापत्य का सुंदर उदाहरण है।

मोहनजोदडों की जल-निकास प्रणाली अद्भुत थी लगभग सभी नगरों के हर छोटे या बड़ मकान के प्राण में स्नानागार होते थे। धर का पानी बहकर सडका तक आता था जहा इनके नीचे मोरिया बनी हुई थी।

कास्य युग की दूसरी किसी भी सयता ने स्वास्थ्य और सफाई को इतना महत्व नहीं दिया जितना कि हड़प्या संस्कृति के लोगों ने दिया।

मोहनजोदडो की सबसे बड़ी इमारत है अनाज रखने का कोठार हड़णप्पा के दुर्ग में छह कोठार मिले हैं जो ईटी के बने चबूतरों पर दो पातों में खड़े हैं।

कपास : सबसे पहले कपास पेदा करने का असिध सभ्यता के लागो को है। चूकि कपास का उलपादन सबसे पहले सिंधु क्षेत्र में ही हुआ. इसलिए यूनात के लाग इसे सिडन कहने लगे जो सिथ शब्द से निकृला है।

राजनीतिक आर्थिक व सांस्कृतिक संगठन

राजनीतिक सगठन शायद हडण्पाई शासकों के यान विजय की ओर उतना नहीं था जितना वाणिज्य संभवत: वणिक् वर्ग के हाथ में था सिंधु सभ्यता में अस्त्र-शस्र आर ओर हडपा का शासन का अभाव है। पशुपालन : कृषि पर निर्भर हाते हुए भी हडप्याई लोग बहुत सारे पशु पालते थ। उन्हें कुबड़ वाला सांड विशेष प्रिय था। कुना और विल्ली दोनों के पैरों के निशान मिले हैं गधे और ऊंट भी रखते थे और शायद इन पर बोझा डोत थे। हडप्पाई लोगों को हाथी का ज्ञान था। वे गैडे से भी परिचित थे।

घोड़े के अस्तित्व का सकत मोहजोदड़ो की एक ऊपरी सतह से यथा लोधल मं मिली एक सदिग्ध मूतिका (टेराकोटा) से मिला है। इतना तो स्पष्ट है कि हड़प्याईसभ्यता अश्वकेद्रित नहीं थी। हड़प्पा संस्कृति के आरभिक और परिपक्व अवस्था में न तो घोडे की हड्डडियां और न ही उसके प्रारूप मिल हैं। शिल्प और तकनीकी ज्ञान पत्रिका मोहनजोडो से बुुने हुए कपडे का एक टुकड़ा निकला है। कताई के लिए तकलिये का इस्तमाल होता था। बुनकर ऊनी और सूती कपड़ा बुनते थे। हडप्पाई लोग नाउ बनाने का काम भी करते थे। स्वर्णकार चादी सोता और रत्नो के आभूषण बनाते थे। व्यापार हडपाई लोगा का व्यापारिक संबंध राजस्थान के एक क्षेत्र से या अफगानिस्तान और ईरान से भी। उत्तरीं आरुगानिस्तान में अपनी वाणिज्य बस्ती स्कथापित की थी। जिसके सहार उनका व्यापार मध्य एशिया के साथ चलता था। बहुत सी हड़प्पाई मुहरे मेसोपोटामिया की खुटाई से निकली है। धार्मिक प्रथाएमिस्र और मेसोपोटामिया के नितांत विपरीत किसी भी हडप्पाई स्थान पर मदिर नहीं पाया गया है किसी भी प्रकार का काई भी धामिक भवन नही मिला है। हडप्या में पको मिट्टी की स्त्री-मूर्तिकाएं भारी संख्या में मिली हैं। एक मुर्तिका में स्त्री के गर्भ से निकला पीधा दिखाया गया है। यह सभवत: पृथ्वी देवी की प्रतिमा है।

सिधु घाटी के पुरूष देवता :पुरुष देवता एक मुहर पर चित्रित किया गया है उसके सिर पर तीन सींग हैं। मूहर पर चित्रित देवता को पशुपति महादेव वतलाया जाता है।

हड़प्पा में पत्धर पर बने लिंग और योनि के अनेक प्रतीक मिले हैं।

ऋग्वद में लिग-पूजक अनार्य जातियों की चचा है। लिग-पूजा हडप्पा काल में शुरू हुई और आगे चलकर हिंटू समाज में पूजा की विशिष्ट विधि मानो जाने लगी। वृक्षों और पशुओ की पूजा सिध क्षेत्र के लोग वृक्ष पूजा भी करते थे एक मुहर सील) पर पीपल की डाला के बीच विराजमान देवता चित्रित है। इस वृक्ष की पूजा आज तक जारी है।

हड़प्पा काल में पश पूजा का भी प्रचलन था कई पशु महरा पर अकित है। इनमे सबसे महत् का है ऐक सौंग बाला जानवर (यूनिकॉर्न) जो गेडा हो सकता है। उसके बाद महत्व का है कृबड़ वाला सांड़। सिधु प्रदेश के निवासी वृक्ष पशु और मानव के स्वरूप में देवताओं की पूजा करते थे परंतु वे अपने इन देवताओं के लिए मंदिर नहीं बनाते थे, जैसा कि प्राचीन मिस्र और मेसोपोटामिया में बनाया जाता था। हड़प्याई लिपि प्राचीन मेसोपोटामिया की तरह हड़प्पा के लोगों ने भी लेखन-कला का आविष्कार किया था। हडप्पा लिपि वर्णात्यक नहीं, बल्कि मुख्यतः चित्रलेखात्मक है।

माप-तोल तोल में 16 या उसके आवर्नको का व्यवहार होता था. जेम 16,32, 64,320 और 640| दिलचस्प बात यह कि 16:00 के अनुपात की यह परंपरा भारत में आधुनिक काल तक चलती रही है। मृदभांड हडप्पााई लोग कुम्हार के चाक का उपयोग करने में बड़े कुशल थे। उनके अनेक बर्तनोंं पर विभिन्न रंगो की चित्रकारी देखने को मिलती है। हडप्पाई- भांंडो पर आमतौर से वृत्त या वृक्ष को आकृतियां मिलती है । कुुछ ठीकरो पर मनुष्य की आकृतिया भी दिखाई देती है।

मुहरे (सीले) हडप्पा सस्कृति का सर्वनाम कलाकृतिया है। उसकी मुहरेें अब तक लगभग 2000 सीले प्राप्त हुई हैै। इनमें से अधिकांश सीलो पर लघु लेख साथ-साथ एकसिंगी जानवर भैंस, बाघ, बकर और हाथी की आकृतिया उकेरी हुई है।

मृमूर्तिकाएं (टेराकोटा फिगरिन ) 

सिंधु प्रदेश में भारी संख्या में आग में पकी मिट्टी (जो टेराकोटा कहलाती है) की बनी मूर्तिकाएं (फिगरिन) मिली । हड़प्पा संस्कृति का अवसान परिपक्त हडप्पा सस्कृति का अस्तित्व मोटे तौर पर 2550 ई. पू. से 1900 ई. पू. के बीच रहा। ईसा पूर्व 19वीं सदी में आकर इस संस्कृति के दो महत्वपूर्ण नगर हड़प्पा और माहनजोदड़ों लुप्त हो गए। लेकिन अन्य स्थानों में हड़प्पा संस्कृति धीरे धीरे क्षीण हुई और क्षीण होते होते भी गुजरात, राजस्थान, हरियाणा और पश्चिम उत्तर प्रदेश के अपने सीमात क्षत्रों में लंबे समय तक जीवित रही। हड़प्पा संस्कृति की नागरिकोत्तर अवस्थाहडप्पा संस्कृति शायद 1900 ई. पू. तक जीती जागती रही। बाद में इसकी नागरिक अवस्था जिसके परिचायक थे सुव्यवस्थित नगर निवेश व्यापक ईंट संरचनाएं, लिखने की कला, मानक बाट माप, दुर्गनगर और निरम्नस्तरीय शहर के बीच अंतर, कांसे के औजारों का इस्तेमाल और काले रंग की आकृतियों से चित्रित लाल मृद्भांड का निर्माण, लुप्त सी हो गई। नागरिकोत्तर हड्प्पा संस्कृति के कुछ लक्षण पाकिस्तान में, मध्य एवं पश्चिमी भारत में तथा पंजाब, राजस्थान, हरियाणा, जम्मू और कश्मीर, दिल्ली और पश्चिम उत्तर प्रदेश में भी दिखाई देते हैं। इनका काल माटे तीर पर 1900 ई. पू. से 1200 ई. पू. तक हो सकता है। हड़प्पा संस्कृति का नागरिकोत्तर अवस्था को उपसिंधु संस्कृति भी कहते हैं। पहले इस संस्कृति को हड़ण्पोत्तर बतलाया जाता था, पर अब यह उत्तर हड़प्पा संस्कृति के नाम से अधिक जाना जाता है। हड़प्पा सभ्यता को विस्तृत रूप से पढ़ने के लिए निम्नलिखित पाठों का अध्ययन करें।

Chapter 1 हड़प्पा सभ्यता क्या है , के नामांतरण के बारे।

Chapter 2 हड़प्पा सभ्यता का काल क्रम, काल निर्धारण । सिंधु सभ्यता के निर्माता, सिंधु सभ्यता का उद्भव के बारे में ।

Chepter3 हड़प्पा या सिंधु सभ्यता का विस्तार।

Chapter 4 हड़प्पा कालीन प्रमुख नगर ,नगर योजना, अन्य प्रमुख स्थल, के बारे मे।

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हड़प्पा सभ्यता[संपादित करें]

For student Patrika 002 (वार्ता) 05:32, 18 अप्रैल 2020 (UTC)[उत्तर दें]