रानी सखुबाई

मुक्त ज्ञानकोश विकिपीडिया से

झाँसी महारानी सखुबाई साहिबा नेवालकर

रानी‌ सखुबाई यह मराठा शासित झाँसी राज्य की महारानी थी।

रानी सखुबाई का महल[संपादित करें]

रानी सखुबाई यह एक महाराष्ट्र की एक मराठी ब्राम्हण स्त्री थी। शिवराव भाऊ नेवालकर ने अपने बेटे कृष्णराव का विवाह सखुबाई से करवाया था। सखुबाई अत्यंत महत्वाकांक्षी तथा स्वाभिमानी थी। रानी सखुबाई का महल भी विशाल‌ था। आज झांसी का मुरली मनोहर मंदिर यही पहले रानी सखुबाई का महल हुआ करता था।

इंग्लैंड की रानी‌ से प्रभावित[संपादित करें]

रानी सखुबाई ने इंग्लैड की रानी विक्टोरिया के बारे में बहुत सुना था। महिला होकर पुरे देश पर राज करती है इसी बात से‌ प्रभावित होकर वह झाँसी पर अकेले शासन करना चाहती थी। शिवराव भाऊ बुढे हो रहे थे। इसलिये उन्होंने झांसी की बागडोर अपने जेष्ठ पुत्र को सौंप थी। कृष्णराव झांसी के सुभेदार बन‌ गये थे। और सखुबाई झांसी की रानी के रूप में उभर रही थी। सुभेदार कृष्णराव राजपाठ से रानी सखुबाई को दूर रखते थे। तथा शिवराव भाऊ भी सखुबाई के षडयंत्र से परिचीत थे। इस कारण वह भी सखुबाई को बंधन में रखते थे। जिस वहज से सखुबाई स्वयं को अपमानित महसूस करती थी। षडयंत्र रचकर रानी सखुबाई ने कृष्णराव ही हत्या करवाई और दुर्घटना का आभास करवाया।

सखुबाई को राजपाठ से दूर किया[संपादित करें]

1811 ई. में कृष्णराव की मृत्यु हो गई। शिवराव भाऊ इससे बहुत मर्माहत हो गए। ज्येष्ठ पुत्र के प्रति उनका जो पक्षपात था उसके फलस्वरूप पौत्र तथा सखुबाई के पुत्र रामचंद्रराव को उन्होंने उत्तराधिकारी नियुक्त किया। 1814 ई. में बड़ी धूमधाम के साथ रामचंद्रराव का 'जनेऊ' अथवा यज्ञोपवीत हो जाने पर शिवराव भाऊ ने वसीयत कर दी। और झांसी की बागडोर रामचंद्रराव तथा उनकी पत्नी रानी लक्ष्मीबाई को सौंप थी। रामचंद्र की विधवा माता राजमाता सखुबाई के विषय में शंका करने का उनके लिए एक कारण घटित हो गया था। इसीलिए राज्यशासन के मामले में सखुबाई के किसी अधिकार को शिवराव भाऊ ने नहीं माना। गोपालराव बालकृष्ण अंबेरदारकर को उन्होंने नाबालिग रामचंद्रराव का अभिभावक नियुक्त किया।

शिवराव भाऊ ने अपनी दुसरी पत्नी पद्माबाई से उत्पन्न रघुनाथराव और गंगाधरराव को बारह हजार रुपया वार्षिक वृत्ति तथा अन्य संपत्ति दे दी। और सखुबाई से धर्म-कर्म में अधिक मन लगाने को कहा। राज्य के सारे अधिकारों से पदच्युत होकर सखुबाई अपमान और हिंसा से जलने लगी। यहाँ तक की बालक रामचंद्रराव भी उन्हें अपना शत्रु लगने लगा। इस विद्वेष और प्रतिहिंसा के फलस्वरूप आगे चलकर झाँसी में गंभीर अराजकता की सृष्टि हो गई थी। शिवराव भाऊ रानी सखुबाई की गतिविधि देखकर आशंकित हो गए। अशांति एवं दुश्चिता के फलस्वरूप उनका स्वास्थ्य टूट गया। 1816 ई. में सुभेदार शिवराव भाऊ नेवालकर की मृत्यु हो गई।

मराठा और अंग्रेजों के युध्द के बाद 1817 ई. में पेशवा द्वितीय बाजीराव ने संधि करके ईस्ट इंडिया कंपनी को बुंदेलखंड का सारा अधिकार दे दिया। 1817 ई. में ग्यारहवर्षीय नाबालिग रामचंद्रराव के साथ संधिनामा हुआ जिसके अनुसार ईस्ट इंडिया कंपनी ने झाँसी के सिंहासन पर रामचंद्रराव के अधिकार को स्वीकार कर लिया, उनकी सुबेदारी मंजूर कर ली। इसी समय रामचंद्रराव के संरक्षक गोपाल राव की मृत्यु 1822 ई. में हो गई। उनका स्थान ग्रहण किया नारो भीखाजी ने।

सखुबाई के पुत्र बने पहले महाराजा झांसी[संपादित करें]

सुभेदार रामचंद्रराव 1827 ई. में वयस्क हो गए। ठगों का दमन करने में उन्होंने बुंदेलखंड में ब्रिटिश सरकार की सहायता की थी। 1824 ई. में बर्मा के युद्ध के समय उन्होंने ब्रिटिश सरकार को 70 हजार रुपया देकर मदद की थी। इसके अलावा विभिन्न समयों में उन्होंने ब्रिटिश सरकार को दो कमान, चार सौ घुड़सवार और एक हजार पैदल सेना देकर सहायता की थी। कर्नल श्लीमन के साथ उनकी व्यक्तिगत मित्रता थी। कर्नल श्लीमन रामचन्द्र के प्रति श्रद्धावान था। इसी कारण रामचंद्रराव को उसने झांसी का "महाराजाधिराज" यह खिताब दिया। तथा उसके वंश को झांसी का शासक बनाने का करार मंजूर किया।

सखुबाई का षडयंत्र[संपादित करें]

महाराज रामचंद्रराव‌ की पत्नी थी महारानी लक्ष्मीबाई। जो की नि:संतान थी। पती कृष्णराव के प्रती सखुबाई ने जिस तरह षडयंत्र रचा वैसे ही अपने पुत्र के विरुद्ध षडयंत्र रचा। अपने पुत्र रामचंद्रराव को वह धीरे धीरे जहर दिया करती थी। सखुबाई ने लक्ष्मी तालाब में ही अपने पुत्र रामचंद्रराव की हत्या करवाई थी। लेकीन हत्या के पूर्वाह्न में सखुबाई ने अपनी‌ कन्या गंगाबाई के पुत्र को गोद लेने की‌ व्यवस्था की। रानी सखुबाई की पुत्री गंगाबाई यह सागर सुभेदार मोरेश्वर विनायकराव चांदोरकर की पत्नी थी। गंगाबाई को चंद्रकृष्ण नाम का पुत्र था‍। मरणोन्मुख संज्ञाहीन पुत्र की गोद में दौहित्र चंद्रकृष्णराव को बैठाकर उन्होंने घोषणा की कि रामचंद्रराव ने भांजे को गोद लिया है। पुत्र रामचंद्रराव की हत्या के पश्चात दत्तक पुत्र के नाम पर वह स्वयं झांसी राज्य की महारानी बनी और राजपाठ संभालने लगी।

1835 में झांसी के प्रथम महाराज रामचंद्रराव नेवालकर की हत्या के बाद उसकी निपुत्रिक पत्नी रानी लक्ष्मीबाई झांसी छोडकर चली गयी थी। वे काशी में विधवा के रूप में अपना जीवन व्यतीत करती थी। कुछ समय बाद उनकी वही मृत्यु हुई।

1835 में कर्नल श्लीमन झाँसी आ गया। सखूबाई के सारे अवरोधों के बाद भी राजा रघुनाथराव तृतीय मनोनीत हो गए। कर्नल श्लीमन ने रानी सखुबाई को पदच्युत किया। और झांसी के राजा के रूप में सखुबाई के देवर तथा कृष्णराव के भाई रघुनाथराव को चुना। रघुनाथराव झांसी के महाराज बने। रघुनाथराव की पत्नी रानी जानकीबाई थी। वह भी रानी विक्केटोरिया से प्रभावित थी। और स्वयं झांसी पर राज करना चाहती थी। वह भी कभी कभी सखुबाई के षडयंत्र में शामील‌ हुआ करती थी। सत्ता की लालच के हेतू उसने महाराज रघुनाथराव को अपने से सदैव दूर राहा। इस कारण उसकी कोई संतान नहीं थी। महाराज रघुनाथराव मदिरापान तथा नृत्य में डूब गये। और तंबी चांद दरवाजा के पास रहनेवाली मुस्लिम वेश्या आफताब बानो बेगम अर्थात लछ्छोबाई से प्रेम कर बैठे। लछ्छोबाई को दो लड़के और एक लड़की हुई थी। अली बहादूर नामक पुत्र को वह झांसी का वारीस मानती थी।

महाराज रघुनाथराव तृतीय कुष्ठ रोगग्रस्त थे। 1838 ई. में उनकी मृत्यु हो गई थी। रघुनाथराव की मृत्यु के बाद पुनः झाँसी के सिंहासन को लेकर दावेदारों की समस्या उठी। चार लोग‌ दावेदार बने। रघुनाथराव की वैध पत्नी लछ्छोबाई के पुत्र अली बहादुर, सखुबाई के दौहीत्र चंद्रकृष्णराव विनायक चांदोरकर और शिवराव भाऊ के सबसे छोटे पुत्र गंगाधरराव। कंपनी द्वारा निर्वाचित कमीशन ने इन दावों के संबंध में विचार किया और गंगाधरराव को चुना। इसी कारण रानी सखुबाई, रानी जानकीबाई, रानी लछ्छोबाई तथा चंद्रकृष्णराव और अली बहादूर गंगाधरराव और उनकी पत्नी रानी रमाबाई और रानी लक्ष्मीबाई के शत्रू बने थे।

अंग्रेजों द्वारा सखुबाई बंदी[संपादित करें]

बार-बार इच्छा भंग होने से रानी सखूबाई क्रुद्ध हो उठी। झाँसी के किलेदार गोसाईं को घूस देकर वश में करके उसने अपने दौहित्र रामचंद्रराव की सहायता से किले पर अधिकार कर लिया। झाँसी का खजाना उस समय खाली था। यह जानते हुए भी रानी सखूबाई गोसाइयों को बकाया वेतन माँगने के लिए उकसाने लगी। ऐसी अराजक अवस्था देखकर गंगाधरराव ने बुंदेलखंड के तत्कालीन राजनैतिक प्रतिनिधि सर साईमन फ्रेजर को जानकारी दी। फ्रेजर स्वयं सर टॉमस अव्री के अधीन सेना लेकर आया। सेना के साथ अव्री सागर से आया। झाँसी के किले के आसपास घेरा डालकर फ्रेजर ने सखूबाई को अड़तालीस घंटे के अंदर आत्मसमर्पण करने का नोटिस दिया।‌ चार दिन के बाद और कोई उपाय न देखकर रानी सखुबाई ने आत्मसमर्पण कर दिया। रानी सखूबाई को झाँसी शहर के आसपास रखना फ्रेजर को उचित नहीं लगा। झाँसी के बाहर दतिया राज्य में मदोरा दुर्ग में उसके रहने का स्थान निश्चित किया गया। और वही पर बिमारी के चलते रानी सखुबाई का निधन हुआ।

और इस तरह झाँसी की महत्वाकांक्षी रानी सखुबाई का अंत हुआ।