योगराजोपनिषद्

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अब योगियों को योगसिद्धि के लिए 'योगराज' का निरूपण किया जाता है l यह योग, मन्त्र, लय, राज तथा हठयोग---इस चार संख्या वाला है ll 1 ll तत्व के द्रष्टा योगियों ने इसे चार प्रकार का बताया है--आसन, प्राणसंरोध, ध्यान तथा समाधि ll 2 ll सब योगों में सम्मत इन चारों को समझना चाहिए पण्डितों को चाहिए कि वह व्रह्मा, विष्णु, तथा शिव के मन्त्र का जप करें ll 3 ll वत्सराज आदि के द्वारा मन्त्र योग सिद्ध किया गया तथा व्यास आदि ने लययोग को सिद्ध किया ll 4 ll अहात्मा जब नवों चक्रों में लय करके योगसद्धि प्राप्त करते हैं l पहला चक्र भग की आकृति वाला तीन बार आवृत (घेरा वाला) हुआ करता है जिसे कि ब्रहाचक्र कहते हैं ll 5 ll अपानस्थल में मूल—कन्द है, जिसे कि कामरूप कहा गया है, उसे ही वहिनकुण्ड तथा तत्व कुण्डलिनी कहा जाता है ll 6 ll मुक्ति के लिए उस ज्योति-स्वरूप जीवरूप का ध्यान करना चाहिए l दूसरा चक्र स्वाधिष्ठान होता है जो कि बीच में बतलाया जाता है ll 7 ll पश्चिमाभिमुख एक लिंग है जो कि प्रवाल के अन्दर अंकुर के समान चमकदार है l सो उद्रीयोग पीठों में उसका ध्यान कर संसार का आकर्षण करना चाहिए (अपने में खींचना चाहिए) ll 8 ll तीसरा नाभि चक्र है जिसमें कि संसार स्थिर है l पंचावृत (पांच घेरे वाली) बिजुली के समान तेजस्विनी मध्य शक्ति का चिंतन करना चाहिए ll 8 ll ज्ञानी पुरूष उसके ध्यान कर लेने पर सभी सिद्धियाँ प्राप्त कर लेता है l चौथा चक्र ह्रदय में समझना चाहिए जिसका मुंह नीचे की ओर है ll 10 ll प्रकाश स्वरूप हंस (ब्रह्मा) का उसके बीच में बड़े यत्न से ध्यान करना चाहिए l उसको ध्यान करने वाले मनुष्य के वश में सारा संसार हो जाता है इसमें सन्देह नहीं ll 11 ll पाँचवाँ कष्ट-चक्र है जिसके वाँये इडा, दाहिने पिंगला तथा मध्य में सुषुम्ना स्थित है ll 12 ll उसमें परम पवित्र ज्योति का ध्यान करने पर सभी सिद्धियाँ प्राप्त हो जाती हैं l छठा चक्र तालुका चक्र है जो कि घण्टिका स्थान कहा जाता है ll 13 ll जो दसवें द्वार का मार्ग है उसे राज दन्त कहा गया है l वहाँ शुन्य में मनोलय करके मनुष्य निश्चय ही मुक्त हो जाता है ll 14 ll सतवां चक्र भूचक्र है जिसे बिन्दुस्थान कहा गया है l भौहों के बीच गोलाकार ज्योति का ध्यान करके योगी मुक्त हो जाता है ll15 ll आठवाँ चक्र ब्रह्मारन्ध्र है जो कि परम्मोक्ष का सूचक है l उस धूम्र वर्ण का सूतिका समूह का ध्यान कर योगी मोक्ष को प्राप्त करता है ll 16 ll उसे जालन्धर समझना चाहिये जो कि नीला है एवं मोक्ष का देने वाला है l नौवां चक्र व्योम है जो सोलह दल वाला है ll 17 ll उसके मध्य में संविद करना चाहिए, उसमें परा शक्ति स्थित है l उस पीठगिरि में पूर्ण शक्ति का ध्यान कर योगी बन्धन मुक्त हो जाया करता हैं ll 18 ll इन नौ चक्रों में क्रमशःएक-एक का ध्यान करने वाले मुनि के हाथ में प्रतिदिन मुक्ति से युक्त सभी सिद्धियाँ आ जाया करती है ll 19 ll ज्ञान-चक्षु से जो भी मध्य में ही दण्ड को देखते हैं जो कि कदम्ब के गुच्छा के समान गोल है, वे सब ब्रह्मालोक पहुँच जाते हैं ll 20 ll ऊर्ध्वशक्ति के निपात से तथा अधःशक्ति को सिकोड़ने से एवं बीच की शक्ति को जगा देने से परम सुख प्राप्त हुआ करता है, यह निश्चित बात है ll 21 ll ll योग राजोपनिषद्समाप्त ll