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मेरुरज्जु

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मानव का तंत्रिकातंत्र; केन्द्रीय तंत्रिका तंत्र (पीले रंग में) तथा परिधीय तंत्रिका तंत्र (नीले रंग में)
कशेरूक नाल में नीचले मेरूरज्जु की स्थिति

मेरुरज्जु (लैटिन: medulla spinalis, अंग्रेजी: spinal cord), मध्य तंत्रिकातंत्र का वह भाग है, जो मस्तिष्क के नीचे से एक रज्जु (रस्सी) के रूप में पश्चकपालास्थि के पिछले और नीचे के भाग में स्थित महारंध्र (foramen magnum) द्वारा कपाल से बाहर आता है और कशेरूकाओं के मिलने से जो लंबा कशेरुक दंड जाता है उसकी बीच की नली में चला जाता है। यह रज्जु नीचे ओर प्रथम कटि कशेरूका तक विस्तृत है। यदि संपूर्ण मस्तिष्क को उठाकर देखें, तो यह 18 इंच लंबी श्वेत रंग की रज्जु उसके नीचे की ओर लटकती हुई दिखाई देगी। कशेरूक नलिका के ऊपरी 2/3 भाग में यह रज्जु स्थित है और उसके दोनों ओर से उन तंत्रिकाओं के मूल निकलते हैं, जिनके मिलने से तंत्रिका बनती है। यह तंत्रिका कशेरूकांतरिक रंध्रों (intervertebral foramen) से निकलकर शरीर के उसी खंड में फैल जाती हैं, जहाँ वे कशेरूक नलिका से निकली हैं। वक्ष प्रांत की बारहों मेरूतंत्रिका इसी प्रकार वक्ष और उदर में वितरित है। ग्रीवा और कटि तथा त्रिक खंडों से निकली हुई तंत्रिकाओं के विभाग मिलकर जालिकाएँ बना देते हैं जिनसे सूत्र दूर तक अंगों में फैलते हैं। इन दोनों प्रांतों में जहाँ वाहनी और कटित्रिक जालिकाएँ बनती हैं, वहाँ मेरूरज्जु अधिक चौड़ी और मोटी हो जाती है।

मस्तिष्क की भाँति मेरूरज्जु भी तीनों तानिकाओं से आवेष्टित है। सब से बाहर दृढ़ तानिका है, जो सारी कशेरूक नलिका को कशेरूकाओं के भीतर की ओर से आच्छादित करती है। किंतु कपाल की भाँति परिअस्थिक (periosteum) नहीं बनाती और न उसके कोई फलक निकलकर मेरूरज्जु में जाते हैं। उसके स्तरों के पृथक होने से रक्त के लौटने के लिये शिरानाल भी नहीं बनते जैसे कपाल में बनते हैं। वास्तव में मरूरज्जु पर की दृढ़तानिका मस्तिष्क पर की दृढ़ तानिका का केवल अंत: स्तर है।

दृढ़ तानिका के भीतर पारदर्शी, स्वच्छ, कोमल, जालक तानिका है। दोनों के बीच का स्थान अधोदृढ़ तानिका अवकाश (subdural space) कहा जाता है, जो दूसरे, या तीसरे त्रिक खंड तक विस्तृत है। सबसे भीतर मृदु तानिका है, जो मेरूरज्जु के भीतर अपने प्रवर्धों और सूत्रों को भेजती है। इस सूक्ष्म रक्त कोशिकाएँ होती हैं। इस तानिका के सूत्र तानिका से पृथक् नहीं किए जा सकते। मृदु तानिका और जालक तानिका के बीच के अवकाश को अधो जालक तानिका अवकाश कहा जाता है। इसमें प्रमस्तिष्क मेरूद्रव भरा रहता है।

नीचे की ओर द्वितीय कटि कशेरूका पर पहुँचकर रज्जु की मोटाई घट जाती है और वह एक कोणाकार शिखर में समाप्त हो जाती है। यह मेरूरज्जु पुच्छ (canda equina) कहलाता है। इस भाग से कई तंत्रिकाएँ नीचे को चली जाती हैं और एक चमकता हुआ कला निर्मित बंध (bond) नीचे की ओर जाकर अनुत्रिक (coccyx) के भीतर की ओर चला जाता है। Ye bahut sahi li kha hai

मेरूरज्जु की स्थूल रचना

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रज्जु की रचना जानने के लिये उसका अनुप्रस्थ काट (transverse section) काट लेना आवश्यक है। काट में दाहिने और बाँयें भाग समान रहते हैं। दोनों ओर के भागों के बीच में सामने ही ओर एक गहरा विदर, या परिखा (fissere) है जो रज्जु के अग्र पश्व व्यास के लगभग तिहाई भाग तक भीतर को चली जाता है। यह अग्रपरिखा है। पीछे की ओर भी ऐसी पश्वमध्य (postero median) परिखा है। वह अग्र मध्य (antero median) परिखा से गहरी किंतु संकुचित है। अग्र परिखा में मृदुतानिका भरी रहती है। पश्व परिखा में मृदुतानिका नहीं होती। पश्वपरिखा से तनिक बाहर की ओर पश्व पार्श्व परिखा (postero lateral fissure) है जिससे तंत्रिकाओं के पश्व मूल निकलते हैं। अग्र मूल सामने की ओर से निकलते है, किंतु उनका उद्गम किसी परिखा, या विदर से नहीं होता।

मेरूरज्जु में आकर धूसर और श्वेत पदार्थों की स्थिति उलटी हो जाती हे। श्वेत पदार्थ बाहर रहता है ओर धूसर पदार्थ उसके भीतर एच अक्षर के आकार में स्थित है।

धूसर पदार्थ की स्थिति ध्यान देने योग्य है। इसके बीच में एक मध्यनलिका (central canal) है जिसमें प्रमस्तिष्क मेरूद्रव चतुर्थ निलय से आता रहता है। वास्तव में इसी नलिका के विस्तृत हो जाने से चतुर्थ निलय बना है। नलिका के दोनों ओर रज्जु में समान भाग हैं, जो अग्र पश्व परिखाओं द्वारा दाहिने और बायें अर्धाशौं में विभक्त है। इस कारण एक ओर के वर्णन से दूसरी ओर भी वैसा ही समझना चाहिए।

श्वेत पदार्थ के भीतर धूसर पदार्थ का आगे की ओर को निकला हुआ भाग (H EòÉ +OÉ +vÉÉȶÉ) अग्र श्रृंग (anterio cornua) और पीछे की ओर का प्रवर्धित भाग पश्च श्रृंग (posterior cornua) कहलाता है। इन दोनों के बीच में पार्श्व की ओर को उभरा हुआ भाग पार्श्व श्रृंग (laterak horns) है, जो वक्ष प्रांत में विशेषतया विकसित है। भिन्न भिन्न प्रांतों में धूसर भाग के आकार में भिन्नता है। वक्ष और त्रिक प्रांतों में धूसर भाग विस्तृत है। इन विस्तृत भागों से उन बड़ी तंत्रिकाओं का उदय होता है, जो ऊर्ध्व ओर अधो शाखाओं के अंगों में फैली हुई हैं।

धूसर पदार्थ के बाहर श्वेत पदार्थ उन अभिवाही और अपवाही सूत्रों का बना हुआ है जिनके द्वारा संवेदनाएँ त्वचा तथा अंगों से उच्च केंद्रों में और अंत में प्रमस्तिष्क की प्रांतस्था में पहुंचती हैं तथा जिन सूत्रों द्वारा प्रांतस्था और अन्य केंद्रों से प्रेरणाएँ या संवेग अंगों और पेशियों में जाते हैं।

सूक्ष्म रचना

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धूसर पदार्थ में तंत्रिका कोशाणु, में दस पिधान युक्त अथवा अयुक्त तंत्रिकातंतु तथा न्यूरोग्लिया होते हैं। कोशाणु विशेष समूहों में सामने, पार्श्व में और पीछे की ओर स्थित हों। ये कोशणु समूह स्तंभों (column) के आकार में रज्जु के धूसर भाग में ऊपर से नीचे को चले जाते हैं और भिन्न भिन्न स्तंभों के नाम से जाने जाते हैं। इस प्रखर अग्र, मध्य तथा पश्च कई स्तंभ बन गए हैं। ये मुख्य स्तंभ फिर कई छोटे-छोटे स्तंभों में विभक्त हो जाते हैं।

धूसर पदार्थ के बाहर श्वेत पदार्थ के भी इसी प्रकार कई स्तंभ हैं। यहाँ कोशिकाएँ नहीं हैं। केवल पिधानयुक्त सूत्र और न्यूरोग्लिया नामक संयोजक ऊतक हैं। सूत्रों के पुंज पथ (tract) कहलाते हैं, किंतु इन पथों को स्वस्थ दशा में सूक्ष्मदर्शी की सहायता से भी पहिचानना कठिन होता है। संवेदी तंत्रिकाओं के सूत्र पश्च मूल द्वारा मे डिग्री रज्जु में प्रवेश करते हैं, अवएव उनका संबंध पश्च श्रृंगों में स्थित कोशिकाओं में होता हैं और वहाँ से वे प्रमस्तिष्क की प्रांतस्था तक कई न्यूरोनों द्वारा तथा कई केंद्रकों से निकलकर पहुंचते हैं। कितने ही सूत्र पश्चिम श्रृंग की कोशिकाओं में अंत न होकर सीधे ऊपर चले जाते हैं। इसी प्रकार प्रेरक तंत्रिकाओं के सूत्र रज्जु के अग्रभाग में स्थित होते हैं और अग्र श्रृंगों के संबंध में रहते हैं।

मेरूरज्जु के कर्म (functions)

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ये दो हैं:

  • (1) मेरूरज्जु द्वारा संवेगों का संवहन होता है। प्रांतस्था की कोशिकाओं में जो संवेग उत्पन्न होते हैं उनका अंगों, या पेशियों तक मेरूरज्जु के सूत्रों द्वारा ही संवहन होता है। त्वचा या अंगों से जो संवेग आते हैं, वे भी मेरूरज्जु के सूत्रों में होकर मस्तिष्क के केंद्रों तथा प्रांतस्था के संवेदी क्षेत्र में पहुंचते हैं।
  • (2) मेरूरज्जु के धूसर भाग में कोशिकापुंज भी स्थित हैं जिनका काम संवेगों को उत्पन्न करना तथा ग्रहण करना है। पश्च ओर के स्तंभों की कोशिकाएँ त्वचा और अंगों से आए हुए संवेगों को ग्रहण करती हैं। अग्र श्रृंग की कोशिकाएँ जिन संवेगों को उत्पन्न करती हैं वे पेशियों में पहुंच कर उनके संकोच का कारण होते हैं जिससे शरीर की गति होती है। अन्य अंगों के संचालन के लिये जो संवेग जाते हैं उनका उद्भव यहीं से होता है। संवेग के पश्चिम श्रृंग में पुहंचने पर जब वह संयोजक सूत्र द्वारा पूर्व श्रृंग में भेज दिया जाता है तो वहाँ की कोशिकाएँ नए संवेग को उत्पन्न करती हैं जो तंत्रिकाक्ष कोशिकाओं द्वारा, जिस पर आगे चलकर पिधान (medullated) चढ़ने से वे तंत्रिका सूत्र बन जाते हैं। इस प्रकार की क्रियाएँ प्रतिवर्ती क्रिया (reflex action) कहलाती हैं। मेरूरज्जु प्रतिवर्ती क्रियाओं का स्थान है।

प्रतिवर्ती क्रियाएँ (Involuntory actions)

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शरीर में प्रति क्षण सहस्रों प्रतिवर्ती क्रियाएँ होती रहती हैं। हृदय का स्पंदन, श्वास का आना जाना, पाचक तंत्र की पाचन क्रियाएँ, मल, या मुत्र त्याग, ये सब प्रतिवर्ती क्रियाएँ हैं जो मेरूरज्जु द्वारा होती रहती हैं; हाँ इन क्रियाओं का निमयन, घटना, बढ़ना मस्तिष्क में स्थित उच्च केंद्रों द्वारा होता है। हमारी अनेक इच्छाओं से उत्पन्न हुई क्रियाएँ भी, यद्यपि उनका उद्भव प्रमस्तिष्क के प्रांतस्था से हाता है किंतु आगे चलकर उनका संपादन मेरूरज्जु से प्रतिवर्ती क्रिया की भाँति होने लगता है। अपने मित्र से मिलने की इच्छा मस्तिष्क में उत्पन्न होती है। प्रांतस्था की प्रेरक क्षेत्र की कोशिकाएँ संबंधित पेशियों को संवेग, या प्रेरणाएँ भेजकर उनसे सब तैयारी करवा देती हैं और हम मित्र के घर की ओर चल देते हैं। हम बहुत प्रकार की बातें सोचते जाते हैं, कभी अखबार, या चित्र भी देखने लगते हैं, तो भी पाँव मित्र के घर के रास्ते पर ही चले जाते हैं। यहाँ प्रतिवर्ती क्रिया हो गई। जिस क्रिया का प्रारंभ मस्तिष्क से हुआ बा, वह मेरूरज्जु द्वारा होने लगी। इन प्रतिवर्ती क्रियाओं का नियमन मस्तिष्क द्वारा होता है। इन पर भी प्रांतस्था का सर्वोपरि अधिकार रहता है।

प्रतिवर्ती चाप (Reflex arc)

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इससे उस समस्त मार्ग का प्रयोजन है जिसके द्वारा संवेग अपने उत्पत्ति स्थान से केंद्रीय तंत्रिका तंत्र (मस्तिष्क और मेरूरजजु) द्वारा अपने अंतिम स्थान पर पहुंचते हैं, जहाँ क्रिया होती है। इस मार्ग, या परावर्ती चाप के पाँच भाग होते हैं:

(1) संवेदी तंत्रिका सूत्रों के ग्राहक अंतांग (recepters or receptive nerve endings) जो त्वचा में, या अंगों के भीतर स्थित होते हैं। ज्ञानेंद्रियों, त्वचा, पेशियों, संधियों, आंत्रनाल की दीवार, फुफ्फुस, हृदय, इन सभी में ऐसे तंत्रअंतांग स्थित है जो वस्तुस्थिति में परिवर्तन के कारण उत्तेजित हो जाते हैं। यहीं से संवेग की उत्पत्ति होती है।

(2) अभिवाही तंत्रिका जिसके सूत्रों की कोशिकाएँ पश्चमूल की गंडिका (ganglion) में स्थित है।

(3) केंद्रीय तंत्रिकातंत्र (मस्तिष्क और मरूरज्जु)।

(4) अपवाही तंत्रिका और

(5) जिस अंग में तंत्रिका सूत्र के अंतांग स्थित हों, जैसे पेशी, लाला ग्रंथियाँ, हृदय, आंत्र, आदि। प्रथम अंतांगों से संवेग अभिवाही तंत्रिका द्वारा केंद्रीय तंत्र में पहुंचकर वहाँ से अभिवाही तंत्रिका में होकर दूसरे (प्ररेक) अंतांगों में पहुंचते है।

कुछ भागों मे ये पाँचों भाग होते हैं। कुछ में कम भी हैं। ये भाग वास्तव में न्यूरॉन (neuron) है। तंत्रिका कोशिका, उससे निकलने वाला लंबा तंत्रिकाक्ष (axon) जो आगे चलकर तंत्रिका का अक्ष सिलिंडर बन जाता है और कोशिका के डेंड्रोन (dendron) मिलकर न्यूरॉन कहलाते है। डेंड्रोन में होकर संवेग कोशिका में जाता है। ये छोटे-छोटे होते हैं और कोशिका के शरीर से वृक्ष की शाखाओं की भाँति निकले रहते हैं। कोशिका के दूसरे कोने से तंत्रिकाक्ष निकलता है, जो पिधानयुक्त होने पर तंत्रिका में होकर दूर तक चला जाता है।

प्रतिवर्ती चाप में कम से कम दो न्यूरॉन होते हैं। जानु प्रतिवर्त (knee reflex) में दो न्यूरॉन है। किंतु इतनी छोटी चाप शरीर में एक दो ही हैं। अधिक अंगों में तीन, चार और पाँच न्यूरोन तक होते हैं। इनके द्वारा संवेग ग्राहक अंतांगों से लेकर अंतिम निर्दिष्ट स्थान या अंग तक पहुंचता है।

बाहरी कड़ियाँ

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