मुस्लिम मराठी साहित्य
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1990 के दशक में सोलापूर (महाराष्ट्र) शहर में मुस्लिम मराठी साहित्य परिषद की नींव रखी गई. जिसका मकसद हिंदू और मुसलमानो के बीच सांप्रदायिक सौहार्द को बढाना था. १९६० के दशक में दलित साहित्य का प्रवाह साहित्य में नई उम्मीदे लेकर आया. पिछडे समुदाय के दबे कुचले लोगों ने अपने प्रश्नो को लेकर लिखते आ रहे थे. इसी प्रवाह को आगे बढाते हुए मराठी मुसलमानो ने क्षेत्रीय भाषा में लिखना शुरू किया. पर उनका लिखा मुख्य प्रवाह के साहित्य पत्रिका ने छापने से नकार दिया. हर बार उनका लिखा वे पत्रिका लौटा देतो. जिससे व्यथित होकर कुछ लोंगो ने अपनी खुदकी एक साहित्य परिषद की जरुरत महसूस की. जिसे आगे जाकर मुस्लिम मराठी साहित्य परिषद का नाम दिया गया. 1990 के दशक में उन्होने मुस्लिम मराठी साहित्य परिषद की नींव रखी. जिसका मकसद हिंदू और मुसलमानो के बीच सांप्रदायिक सौहार्द को बढाना था.
1980 के बाद महाराष्ट्र में श्री. बेन्नूर, फ. म. शहाजिंदे, जावेद पाशा, बाबा मोहम्मद अतार, अजीज नदाफ आदी लेखक-कवीयो नें मराठी में मुसलमानो के समस्या तथा प्रश्नो को मराठी साहित्य में लाया. इन सब का कहेना एक ही था कि, मुख्य प्रवाह के मराठी साहित्य में मुसलमानो की कोई दखल क्यों नही ली जा रही हैं? मराठी सहित्य में मुसलमानो का सिर्फ नकारात्मक चित्रण क्यों किया जा रहा हैं? मुस्लिम विरोध से भरी ‘कलोनियल हिस्टरी’ का वर्चस्व इस साहित्य में पाया जा रहा था, जिसको नये से पेश करने के लिए फकरूद्दीन बेन्नूर और उनके सहयोगीयोंने मुस्लिम मराठी साहित्य परिषद की बुनियाद रखी.
पार्श्वभूमी
[संपादित करें]80 के दशक में आर. सी. मुजुमदार, के. एम. मुन्शी से लेकर गो. स. सरदेसाई आदी इतिहासकार और अन्य मराठी विचारको पर प्रभाव था. प्रभाव कहने के बजाए ‘कलोनियल हिस्टरी’ को ही यह लोग अपने संशोधन के जरीये पेश कर रहे थे. तिसरी बात सबसे महत्वपूर्ण यह हो रही थी कि, पिछडे और हाशीये पर धकेले गये जाति-जनजाति के आंदोलन जोरो पर थे, उनका साहित्य बडे पैमाने पर निकल कर आ रही था. सोलापुर में इस हालात पर विमर्श हो रहा था. 1981-82 के बाद से दंगो की राजनिती शुरु हो चुकीं थी. 1969 में दंगो की लहर आकर चली गई थी. दंगे भडकाये जा रहे थें. मुसलमानो के गुनहेगार साबीत कर कटघरे में खडा किया जा रहा था. इन भडकीले बयानबाजी के चंगुल में फंसकर मुसलमानो से हिंसक घटनाए घटीत हो रही थी. इस बात को कही न कही रेखांकित कर मुस्लिम समुदाय को अस्तित्व भी स्पष्ट करना जरुरी था.
शाहबानो मामले के बाद मुसलमानो के धर्मगुरू का बर्ताव और उनकी बाते गलत रुख अपना रही थी. इन सब के वजह से मुसलमान सबसे ज्यादा मुसीबत में फंस चुँका था. संघ परिवार नें बाबरी मस्जिद की राजनिती अपने हाथ में ले ली थी. विदेशी बाबर के नाम से यहाँ के वंश और सांस्कृतिक दृष्टिकोन से भारतीय मिट्टी के मुसलमान को प्रताडित किया जा रहा था. उनका शत्रुकरण शुरु हो चुँका था. जिसको तोडने के लिए मुस्लिम मराठी साहित्य का आंदोलन शुरू किया गया.
12वीं सदी के बाद से करीब 42 मुस्लिम संतों ने मराठी में साहित्यिक रचनाएं कीं. आजादी के बाद के दौर में मार्क्सवादी और आम्बेडकरवादी आंदोलनों से हमीद दलवाई जैसे मराठी लेखक पैदा हुए, जिन्होंने ट्रिपल तलाक जैसी सामाजिक बुराइयों के खिलाफ आंदोलन छेड़ा. 1970-80 के दशक में आम्बेडकरवादी आंदोलन से प्रभावित होकर मुस्लिम लेखकों ने सवाल पूछने शुरू किए. नतीजा ये हुआ कि 1990 में सोलापूर में पहला अखिल भारतीय मुस्लिम मराठी साहित्य सम्मेलन आयोजित किया गया.[2] अबतक एक हजार से ज्यादा मुस्लिम लेखक मराठी में रचनाएं लिख रहे हैं. आज मुस्लिम मराठी लेखत मुस्लिम समुदाय के मुद्दे जैसे अशिक्षा, बेरोजगारी, बहुविवाह और बच्चों के अधिकार की बातें करते हैं. इनका साहित्य हमें तरक्कीपसंद समाज की तरफ ले चल रहा है. ये धार्मिक साहित्य नहीं है. मुस्लिम लेखिकाएं जैसे जुल्फी शेख, फरजाना डांगे, हसीना मुल्ला, फातिमा मुजावर और नसीमा देशमुख भी मराठी में लिख रही हैं. इन सब के साहित्य की थीम स्त्रीवाद है.