मनीषा पंचकम

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मनीषा पञ्चकम आदि शंकराचार्य लिखित पांच श्लोकों का संग्रह है।[1] ऐसी मान्यता है कि ये पांच श्लोक श्री शंकराचार्य के अद्वैत वेदांत के स्तम्भ हैं[2] जिसे उन्होंने वाराणसी में लिखा था। इस स्त्रोत्र की प्रत्येक स्तुति के अन्त में कहा गया है- ”इस सृष्टि को जिस किसी ने भी अद्वैत-दृष्टि से देखना सीख लिया है, वह चाहे कोई ब्राह्मण हो चण्डाल हो; वही मेरा सच्चा गुरु है।" इन श्लोको कि संख्या पांच है और प्रत्येक के अंत में ‘मनीषा’ शब्द आता है इसीलिए इन्हें “मनीषा पंचकं” कहा गया है।

मूल[संपादित करें]

ऐसा कहा जाता है कि अपनी काशी तीर्थ-यात्रा के दौरान, गंगा स्नान के उपरांत, श्री काशी-विश्वनाथ मंदिर जाते समय, रास्ते में श्री शंकर को एक चांडाल अपने चार श्वानों (कुत्तों) के साथ दिखाई देता है। एक अस्पृश्य को देख कर स्वभावतः ब्राह्मण युवक को झिझक हुई, और उन्होंने उस चांडाल को दूर हटने को कहा।


इस पर उस चांडाल ने ऐसा बोला:


अन्नामयादान्नमयम्थ्वा चैतन्यमेव चैतान्यात ।

द्विजवर दूरीकर्तु वाञछसि किं ब्रूहि गच्छ गच्छेति ॥


(हे द्विज श्रेष्ठ ! ” दूर हटो, दूर हटो” इन शब्दों के द्वारा आप किसे दूर करना चाहते हैं? क्या आप (मेरे) इस अन्नमय शरीर को अपने शरीर से जो कि वह भी अन्नमय है अथवा शरीर के अंतर्गत स्थित उस चैतन्य (चेतना) को जो हमारे सभी क्रिया कलापों का दृष्टा और साक्षी है? कृपया बताएं!)

ऐसा माना जाता है कि चांडाल के इस प्रश्न को सुनकर श्री शंकराचार्य को आभास हुआ कि वह कोई साधारण चांडाल नहीं था बल्कि चांडाल-वेश में स्वयं भगवान् विश्वनाथ थे। आचार्य उन्हें दंडवत प्रणाम किया और उनकी स्तुति की जो “मनीषा पंचकं” के नाम से प्रसिद्द हैं।


किं गंगाम्बुनि बिम्बितेअम्बरमनौ चंडालवाटीपयः

पूरे वांतरमस्ति कांचनघटी मृत्कुम्भयोर्वाम्बरे ।

प्रत्यग्वस्तुनि निस्तारन्ग्सह्जान्न्दाव्बोधाम्बुधौ

विप्रोअयम्श्व्प्चोअय्मित्य्पिमहन्कोअयम्विभेद्भ्रमः ॥


(हे ब्राह्मण देवता! कृपया मुझे बताएं कि क्या ब्राह्मण अथवा चांडाल सभी के शरीरो का साक्षी और दृष्टा एक नहीं है भिन्न है? क्या साक्षी में नानात्व है ? क्या वह एक और अद्वितीय नहीं है? आप (जैसे विद्वान) इस नानात्व के भ्रम में कैसे पड़ सकते हैं? कृपया मुझे यह भी बताएं कि क्या एक सोने के बर्तन और एक मिट्टी के बर्तन में विद्यमान खाली जगह के बीच कोई अंतर है? और क्या गंगाजल और मदिरा में प्रतिबिंबित सूर्य में किसी प्रकार का भेद है? सूर्य के प्रतिबिम्ब भिन्न हो सकते हैं, पर बिम्ब रूप सूर्य तो एक ही है।)


तब भगवान् श्री आद्य शंकराचार्य ने उत्तर दिया –


जाग्रत्स्वप्न सुषुत्पिषु स्फुटतरा या संविदुज्जृम्भते

या ब्रह्मादि पिपीलिकान्त तनुषु प्रोता जगत्साक्षिणी।

सैवाहं न च दृश्य वस्त्विति दृढ प्रज्ञापि यस्यास्तिचेत

चण्डालोस्तु स तु द्विजोस्तु गुरुरित्येषा मनीषा मम ॥ १ ॥


(जो चेतना जाग्रत, स्वप्न, सुषुप्ति आदि तीनों अवस्थाओं के ज्ञान को प्रकट करती है जो चैतन्य विष्णु, शिव आदि देवताओं में स्फुरित हो रहा है वही चैतन्य चींटी आदि क्षुद्र जन्तुओ तक में स्फुरित है। जिस दृढबुद्धि पुरुष कि दृष्टि में सम्पूर्ण विश्व आत्मरूप से प्रकाशित हो रहा है वह चाहे ब्राह्मण हो अथवा चांडाल हो, वह वन्दनीय है यह मेरी दृढ निष्ठा है। जिसकी ऐसी बुद्धि और निष्ठा है कि “मैं चैतन्य हूँ यह दृश्य जगत नहीं”‘ वह चांडाल भले ही हो, पर वह मेरा गुरु है॥१॥)


ब्रह्मैवाहमिदं जगच्च सकलं चिन्मात्रविस्तारितं

सर्वं चैतदविद्यया त्रिगुणयाशेषं मया कल्पितम् ।

इत्थं यस्य दृढा मतिः सुखतरे नित्ये परे निर्मले

चण्डालोस्तु स तु द्विजोस्तु गुरुरित्येषा मनीषा मम ॥ २ ॥


(मैं ब्रह्म ही हूँ चेतन मात्र से व्याप्त यह समस्त जगत भी ब्रह्मरूप ही है। समस्त दृष्यजाल मेरे द्वारा ही त्रिगुणमय अविद्या से कल्पित है। मैं सुखी, सत्य, निर्मल, नित्य, पर ब्रह्म रूप में हूँ जिसकी ऐसी दृढ बुद्धि है वह चांडाल हो अथवा द्विज हो, वह मेरा गुरु है॥२॥)


शश्वन्नश्वरमेव विश्वमखिलं निश्चित्य वाचा गुरोः

नित्यं ब्रह्म निरन्तरं विमृशता निर्व्याज शान्तात्मना ।

भूतं भावि च दुष्कृतं प्रदहता संविन्मये पावके

प्रारब्धाय समर्पितं स्ववपुरित्येषा मनीषा मम ॥ ३ ॥


(जिसने अपने गुरु के वचनों से यह निश्चित कर लिया है कि परिवर्तनशील यह जगत अनित्य है। जो अपने मन को वश में करके शांत आत्मना है। जो निरंतर ब्रह्म चिंतन में स्थित है। जिसने परमात्म रुपी अग्नि में अपनी सभी भूत और भविष्य की वासनाओं का दहन कर लिया है और जिसने अपने प्रारब्ध का क्षय करके देह को समर्पित कर दिया है। वह चांडाल हो अथवा द्विज हो, वह मेरा गुरु है॥३॥)


या तिर्यङ्नरदेवताभिरहमित्यन्तः स्फुटा गृह्यते

यद्भासा हृदयाक्षदेहविषया भान्ति स्वतो चेतनाः ।

ताम् भास्यैः पिहितार्कमण्डलनिभां स्फूर्तिं सदा भावय

न्योगी निर्वृतमानसो हि गुरुरित्येषा मनीषा मम ॥ ४ ॥


(सर्प आदि तिर्यक, मनुष्य देवादि द्वारा “अहम्” मैं ऐसा गृहीत होता है। उसी के प्रकाश से स्वत: जड़, हृदय, देह और विषय भाषित होते हैं। मेघ से आवृत सूर्य मंडल के समान विषयों से आच्छादित उस ज्योतिरूप आत्मा की सदा भावना करने वाला आनंदनिमग्न योगी मेरा गुरु है। ऐसी मेरी मनीषा है॥४॥)


यत्सौख्याम्बुधि लेशलेशत इमे शक्रादयो निर्वृता

यच्चित्ते नितरां प्रशान्तकलने लब्ध्वा मुनिर्निर्वृतः।

यस्मिन्नित्य सुखाम्बुधौ गलितधीर्ब्रह्मैव न ब्रह्मविद्

यः कश्चित्स सुरेन्द्रवन्दितपदो नूनं मनीषा मम ॥ ५ ॥


(प्रशांत काल में एक योगी का अंत:करण जिस परमानंद कि अनुभूति करता है जिसकी एक बूँद मात्र इन्द्र आदि को तृप्त और संतुष्ट कर देती है। जिसने अपनी बुद्धि को ऐसा परमानंद सागर में विलीन कर लिया है वह मात्र ब्रह्मविद ही नहीं स्वयं ब्रह्म है। वह अति दुर्लभ है जिसके चरणों की वन्दना देवराज भी करते हैं वह मेरा गुरु है। ऐसी मेरी मनीषा है॥५॥)


बाहरी कड़ियाँ[संपादित करें]

सन्दर्भ[संपादित करें]

  1. डॉ. आर., वेंकटरमण. अपने आप को शक्ति दें: उत्कृष्टता और बेहतर भविष्य के लिए प्रयास करें. अभिगमन तिथि 9 मई 2022.
  2. एस. एन., सदाशिवनी. भारत का एक सामाजिक इतिहास. अभिगमन तिथि 9 मई 2022.