भरतवाक्य

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नाटकों के अन्त में भरत मुनि के सम्मान में गेय आशीर्वाद पद्य भरतवाक्य कहलाता है। (भरतानां वाक्यमिति भरतवाक्यम् । ) संस्कृत के नाटकों में यह प्रचलित है। नाटक के अन्त में नाटककार, नाट्यशास्त्र के प्रणेता भरत की स्मृति के रूप में आशीर्वादात्मक श्लोक वर्णित करता है। यह कभी कभी नाटकीय पात्रों की ओर से जनता के कल्याण के लिए आशीर्वाद के रूप में भी प्रयुक्त होता है। राघवभट्ट इसे 'नटवाक्य' की संज्ञा देते हैं।

भारतेन्दु हरिश्चन्द्र ने अपने 'सत्य हरिश्चन्द्र' नाटक के अन्त में यह भरतवाक्य दिया है-

खलगनन सों सज्जन दुखी मत होइ, हरि पद रति रहै।
उपधर्म छूटै सत्व निज भारत गहै, कर-दुःख बहै॥
बुध तजहिं मत्सर नारि-नर सम होंहिं, सब जग सुख लहै।
तजि ग्राम कविता सुकवि जन की अमृत बानी सब कहैं॥