बोधन दौआ

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बोधन दौआ उर्फ ठाकुर पर्जन सिंह यादव शाहगढ रियासत के राजा बखतवली शाह के सेनापति थे। जिन्होनें 1857 की क्रांति मे अपनी अलग छाप छोड़ गए। उन्हें सागर का तत्या तोपे के नाम से भी जाना जाता है वह इतने शक्तिशाली थे की वह जहा भी युद्ध करने के लिये जाते थे वह विजय प्राप्त करते थे ।

इतिहास[संपादित करें]

बोधन दौआ मध्यप्रदेश के सागर जिले की शाहगढ़ रियासत के क्रांतिकारी नायक राजा बखतबली के मुख्य सलाहकार व सेनापति थे। उन्होंने 1857 को क्रांति में गढ़ाकोटा विजय हेतु विशाल सेना का नेतृत्व किया। जब 50वीं सेना के सिपाहियों ने शस्त्र उठाये तो उन्होंने क्रांतिकारियों का साथ दिया। वे अंग्रेजों के दमन के आगे कभी नहीं झुके और देश के लिए अनवरत लड़ते रहे।

शाहगढ़ के राजा बखतवली अंग्रेजों से अपना खोया क्षेत्र गढ़ाकोटा वापस लेना चाहते थे। इस कार्य में सहयोग के लिये बखतबली ने बोधन दौआ के नेतृत्व में विशाल सेना भेजी। अपने आठ हजार साथियों के साथ 14 जुलाई 1857 को बोधन दौआ ने गढ़ाकोटा पर हमला किया। पहले प्रयास में सफलता नहीं मिली। लेकिन पुनः राजा बखतबली की सेना ने धावा बोला और अपनी धरती पर अधिकार कर लिया। गढ़ाकोटा के किले एवं थाने में अंग्रेजों द्वारा पदस्थ सरकारी कर्मचारी भाग खड़े हुए।


अब बोधन दौआ का अगला अभियान रेहली विजित करना था। दो हजार सैनिक पाँच सौ अन्य योद्धा तथा तीन तोपें लेकर उन्होंने रेहली पर कूच किया। बोधन दौआ के सामने रेहली की रक्षा के लिए तैनात लेफ्टिनेंट लासन टिक न सका, वह सागर भाग खड़ा हुआ। रेहली की जीत पर राजा बखतबली अत्यन्त प्रसन्न हुए और उन्होंने बोधन दौआ को रेहली किले का किलेदार नियुक्त किया।

बोधन दौआ आगे बढ़ा और उसने देवरी पर भी अपना अधिकार कर लिया। लेकिन अंग्रेज चैन से नहीं बैठे उन्होंने 11 अक्टूबर को रेहली पर अधिकार कर लिया। संकट के समय में लटकन तथा गनेश नामक राष्ट्रभक्तों ने बोधन दौआ को सहयोग दिया। बोधन के साथ रहने के अपराध में उन दोनों को 6 अप्रैल 1858 को गिरफ्तार कर लिया और तीन साल के कारावास की सजा सुनाई गयी। यातनाओं के बाद भी उन्होंने जुबान नहीं खोली। इन्हीं की तरह एक अन्य साथी बदन राय ने अचलपुर में क्रांति की कमान संभाली थी। उसे भी 5 अप्रैल 1858 को फांसी दे दी गयी।

अंग्रेजों ने क्रांति को कुचलने के लिये दमन चक्र चलाया, शाहगढ़ के राजा बखतबली के गिरफ्तार हो जाने के बावजूद बोधन दौआ ने आत्मसमर्पण को नकार दिया। अंग्रेज तमाम कोशिशों के बाद भी उन्हें पकड़ नहीं सके। अंततः बोधन दौआ को पकड़ने के लिए एक हजार रुपये के इनाम की घोषणा की गई लेकिन किसी ने सुराग नहीं लगने दिया। बोधन दौआ अज्ञातवास में चले गए और क्रांति में अपनी भूमिका निभाते रहे।

लोकगीत[संपादित करें]

“ बोधन भाई फिरत हैं दौआ ।

मारत खात फिरत अंगरेजन, काटत ककरी जौआ।।

भागे फिरत अंगरेजा बेकल, दौआ हो गए हौआ।

गढ़ा से रहली तक मारे फौज़ फिरंगी कौआ “।।

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ऐसे ढेरों लोकगीत आज भी बुंदेलखंड में जोगी भाट गुनगुनाए हैं यहां के जांबाज़ शूरमा बोदन सिंह दौआ के सम्मान में।

सन्दर्भ[संपादित करें]

  1. सागर का तात्या टोपे - बोधन सिंह दौआ https://books.google.co.in/books/about/Bundelkhand_ka_itihas.html?id=DDSnDwAAQBAJ&redir_esc=y
  2. "Jhansi Ki Rani - Mahashweta Devi - Google Books" https://books.google.co.in/books/about/Jhansi_Ki_Rani.html?id=tpSbXRsehGEC&redir_esc=y
  3. "1857, Madhyapradeśa ke raṇabān̐kure - Sureśa Miśra - Google Books" https://books.google.co.in/books/about/1857_Madhyaprade%C5%9Ba_ke_ra%E1%B9%87ab%C4%81n%CC%90kure.html?id=JTVuAAAAMAAJ&redir_esc=y