बिरहोर
बिरहोर, भारत की एक प्रमुख जनजाति हैं। मुख्यत: छत्तीसगढ़ के रायगढ़ जिले में निवास करने वाली बिरहोर जनजाति विशेष जनजातियों में शामिल है। बिरहोर जनजाति के संबंध में ये मान्यता है कि ये जिस पेड़ को छू देते हैं उस पर कभी बंदर नहीं चढ़ता। एके सिन्हा ने अपनी किताब छत्तीसगढ़ की 'आदिम जनजातियां' में बिरहोर जनजाति के विषय में विस्तार से लिखा है।
बिरहोर जनजाति के संबंध में ये मान्यता है कि ये जिस पेड़ को छू देते हैं उस पर कभी बंदर नहीं चढ़ता। उपरोक्त वाली बात साही नहीं है सरा-सर गलत है।
निवास क्षेत्र[संपादित करें]
`झारखंड के कई जिले जैसे चतरा, रामगढ, हजारीबाग, धनबाद, कोलहान प्रमंडल के सरायकेला-खरसाँव आदि इसमें आते हैं।
बस्तियां[संपादित करें]
Khan pan
वस्त्र[संपादित करें]
समाज[संपादित करें]
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बीरोहर जनजाति में परिवार सामाजिक संगठन की मूल इकाई है। साधारणतयः एक परिवार मे पति-पत्नी व उनके बच्चे रहते है। बच्चों की आयु 10 वर्षों से अधिक होते ही उन्हें युवा गृह अथवा गोतिआरा मे भेज दिया जाता है। बिरहोर परिवारों की प्रकृति पितृसत्तात्मक होती है। यदि परिवार के पास अपनी कोई सम्पति होती है तो वह पिता से पुत्र को प्राप्त होता है। एक से अधिक पुत्र होने की अवस्था मे बड़े पुत्र को सम्पत्ति का अधिक हिस्सा मिलता है। इस जनजाति मे बहुपत्नी विवाह का प्रचलन होने के कारण बडी पत्नी के पुत्र को छोटी पत्नी के पुत्र से अधिक हिस्सा दिया जाता है। परिवारों का रूप पितृस्थानीय होने के कारण विवाह के बाद पत्नी अपने पति के घर जाकर रहती है।
देश की आज़ादी के 70 वर्षों बाद भी ऐसे कई समुदाय हैं जो आज भी हाशिये पर बने हुए हैं। ” बिरहोर जनजाति” एक ऐसा ही समुदाय है जो मुख्य रूप से झारखण्ड राज्य के कोडरमा, चतरा, हज़ारीबाग एवं रांची ज़िले में फैला हुआ है। झारखण्ड राज्य में कुल 32 आदिवासी समुदायों को चिन्हित किया गया है जिनमें से 8 जनजाति समुदायों को आदिम जनजाति की श्रेणी में वर्गीकृत किया गया है। इन्हीं 8 आदिम जनजातियों में से एक हैं बिरहोर जनजाति जो छोटानागपुर के पठार के प्राचीन आदिम जनजातियों में से एक हैं। यह जनजाति घुमंतु प्रवृत्ति के होने के कारण, सरकारी योजना व अशिक्षा के कारण लुप्तप्राय:है। आदिम जनजाति के बच्चे कई बार सड़क-चौराहों पर सारंगी के साथ भीख मांगते नजर आ जाते हैं। जीविका का नियमित स्त्रोत नहीं होने के कारण पूरा परिवार यत्र-तत्र भटकता रहता है।
देश की आज़ादी के 70 वर्षों बाद भी ऐसे कई समुदाय हैं जो आज भी हाशिये पर बने हुए हैं। ” बिरहोर जनजाति” एक ऐसा ही समुदाय है जो मुख्य रूप से झारखण्ड राज्य के कोडरमा, चतरा, हज़ारीबाग एवं रांची ज़िले में फैला हुआ है। झारखण्ड राज्य में कुल 32 आदिवासी समुदायों को चिन्हित किया गया है जिनमें से 8 जनजाति समुदायों को आदिम जनजाति की श्रेणी में वर्गीकृत किया गया है। इन्हीं 8 आदिम जनजातियों में से एक हैं बिरहोर जनजाति जो छोटानागपुर के पठार के प्राचीन आदिम जनजातियों में से एक हैं। झारखण्ड के बिरहोरों को दो भागों में उप-विभाजित किया गया है : एक को उथलू या भूव्या (घुमक्कड़ ) व् दूसरे को जगहि या थानिया (वासिन्दे/आदिवासी ) कहा जाता है। यह जनजाति मुख्यतः प्रोटो ऑस्टेलॉइड प्रजाति के अंतर्गत आते हैं एवं इनकी बोली एस्ट्रो -एशियाटिक भाषा से सम्बंधित है।
बिरहोर जनजाति सामान्यतः छोटे- छोटे समूहों में बंटे होते हैं जो जंगलों में घूम-घूम कर अपने जीवनयापन के लिए संसाधनों को जुटाते हैं। जिनमें पुरुष सदस्य जंगलों में शिकार कर भोजन का उपाय करते हैं तो वहीं महिलाएं जंगलों से कंद -मूल, महुआ आदि जुटाती हैं। प्राचीन काल में घने जंगल होने के कारण इन्हें अपने जीवनयापन में कोई परेशानी नहीं होती थी परन्तु अब वनोन्मूलन के कारण इन्हें अपना भोजन जुटाने में काफी कठिनाईओं का सामना करना पड़ता है।
बिरहोर जनजाति के आवास स्थल को “टंडा” कहा जाता है जहां कुछ परिवार जिनका गोत्र भिन्न होता है समूहों में निवास करते हैं। हर समूह का अपना प्रधान होता है जो “नाथा” कहलाता है। नाथा का पद वंशानुगत होता है, नाथा ही मुखिया के रूप में होता है और समूहों की सुरक्षा के दायित्व का भी निर्वहन करता है। कुछ सालों से राज्य सरकार इनको मुख्यधारा में लाने का असफल प्रयास कर रही है। राज्य सरकार ने इन्हें मुख्यधारा में शामिल करने के लिए शहरों के नज़दीक इन्हें बसाने का प्रयास किया है, जिसके लिए आवास का प्रबंधन, बच्चों के लिए आवासीय विद्यालय आदि शहरों के नज़दीक बनाये गए हैं।
शिक्षा का निम्तम स्तर व कई प्रकार के धार्मिक अन्धविश्वास के कारण टंडा में निवास करने वाले बिरहोर कुपोषण, चर्मरोग, घेघा तथा ऐसी ही कई अन्य बिमारियों से ग्रसित हैं। जंगलों में काफी अंदर निवास स्थल होना इसका एक बड़ा कारण हो सकता है। इसके अलावा उनके कुछ धार्मिक विश्वास या क्रियाकलाप भी इसका एक कारण होता है।
जैसे जब कोई महिला गर्भवती होती है तो बच्चे के जन्म से पूर्व व पश्चात जच्चा -बच्चा को बुरी आत्माओं से सुरक्षा के लिए सभी उपाय प्रचलित हैं। प्रसव के वक्त महिला को आवास से अलग घास-फूस व झाड़ियों से बने कमरे मे रखा जाता है और जन्म के सात दिन तक पूरा टंडा उनसे निषेध मानता है और जन्म के सात दिन पश्चात ही उनका आरंभिक शुद्धिकरण किया जाता है। जन्म के इक्कीस दिन बाद उनकी अंतिम शुद्धि की जाती है तब तक उन्हें अपवित्र ही समझा जाता है और पूरा टंडा उनसे परहेज़ रखता है।
आजीविका का एकमात्र स्रोत इनका परंपरागत पेशा रस्सी बनाना है जिनका न तो इन्हें उचित दाम मिलता है और ना ही साल के ज़्यादातर समय काम। जैसा कि बिरहोरों की स्थिति देख कर समझ आता है कि वो जंगलों को छोड़ना नहीं चाहते और जंगलों से प्राप्त होने वाले कच्चे माल तथा उससे बनाये गए उत्पादों के द्वारा ही अपनी जीविका चलाना चाहते हैं।