प्राङ्न्याय

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Angelo Gambiglioni, De re iudicata, 1579

पूर्वन्याय या प्रांन्याय (प्राक् + न्याय ; लैटिन: Res judicata) न्याय का एक सिद्धान्त है जिसके अनुसार यदि किसी विषय पर अन्तिम निर्णय दिया जा चुका है (और जिसमें आगे अपील नहीं किया जा सकता) तो यह मामला फिर से उसी न्यायालय या किसी दूसरे न्यायालय में नहीं उठाया जा सकता। अर्थात् प्रांन्याय के सिद्धान्त का उपयोग करते हुए न्यायालय ऐसे मामलों को पुनः उठाने से रोक देगा।

धारा 11 के अनुसार यदि कोई व्यक्तई एक ही वाद के कारण के लिए दोबारा परेशान नही किया जा सकता, और राज्य सरकार का कर्तव्य है की वह देखे की मुकदमेबआजी को लम्बा न खीचा जाये, अपितु उसे समाप्त किया जाना चाहिए।

प्राचीन भारतीय न्यायप्रणाली और प्राङ्न्याय[संपादित करें]

बृहस्पति स्मृति में प्राङ्न्याय के विषय में विशद चर्चा है। [1]

उदाहरण
  • प्राङ्न्याये कारणोक्तौ च प्रत्यर्थी निर्दिशेत्क्रियाम् ।
मिथ्योक्तौ पूर्ववादी तु प्रतिपत्तौ न संभवेत् ।। १,३.१३ ।।
  • आचारेणावसन्नोऽपि पुनर्लेखयते यदि ।
स विनेयो जितः पूर्वं प्राङ्न्यायस्तु स उच्यते ।। १,३.२१ ।।
  • प्राङ्न्यायकरणे तथ्यं श्लाघ्यं सद्भिरुदाहृतम् ।
विपरीतं अधर्म्यं स्यात्प्रत्यर्थी हानिं आप्नुयात् ।। १,३.२४ ।।

इन्हें भी देखें[संपादित करें]

बाहरी कड़ियाँ[संपादित करें]

सन्दर्भ[संपादित करें]