प्रश्नोत्तर रत्नमालिका

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प्रश्नोत्तररत्नमालिका एक संस्कृत ग्रन्थ है जिसमें १८१ प्रश्नोत्तर सहित ६७ श्लोक हैं। इसके रचयिता का सही-सही ज्ञान नहीं है। यह रचना वैदिक धर्म के सनातन मूल्यों को प्रश्नोत्तर के रूप में प्रस्तुत करती है जो देश, काल एवं परिस्थिति से परे है। जीवन के कठिन मार्ग पर चलते हुए ये सभी सिद्धान्त हमें सही पथ दिखाते हुए हमारा जीवन उन्नत करते हैं।

इसक प्रथम प्रश्न और उत्तर निम्नलिखित है-

भगवन् किमुपादेयं गुरुवचनं हेयमपि च किमकार्यम् ।
को गुरुरधिगततत्त्वः सत्त्वहिताभ्युद्यतः सततम् ॥
भावार्थ : भगवन् ! उपादेय (अर्थात् ग्रहण करने योग्य) क्या है? गुरुजनों के वचन । और हेय (त्यागने योग्य) क्या है?। अकार्य (नहीं करने योग्य कार्य)। गुरु कौन है? जिसने तत्त्व को समझ लिया है, जान लिया है तथा जो निरन्तर जगत के जीवों का हित करने में लगा हुआ हो।

रचनाकार[संपादित करें]

प्रश्नोत्तररत्नमालिका के कर्ता के विषय में विवेचन करते हुए पण्डित गौरीशंकर हीराचन्द ओझा ने लिखा है-

प्रश्नोत्तर रत्नमाला नामक ३२ श्लोकों की पुस्तक देखने में बहुत छोटी है, परन्तु उसका उपदेश अमूल्य और सर्वमान्य होने के कारण प्राचीन काल से ही वह रत्नों की माला के समान कंठ में धारण करने योग्य मानी जाती है । भिन्न धर्मावलम्बी भी उसके उपदेश को आदर के साथ स्वीकार करते हैं। इतना ही नहीं, जैन तो उसे अपने एक आचार्य का रचा हुआ मानते हैं। उस परमोपयोगी पुस्तक के कर्ता के विषय में बहुत कुछ मतभेद है। कोई तो उसे यतीन्द्र शुकदेव जी का रचा हुआ बतलाते हैं, कोई शंकराचार्य को उसका कर्ता मानते हैं। श्वेताम्बरी जैन उसे अपने आचार्य विमल की कृति प्रकट करते हैं, और दिगम्बरी जैनों के भंडार से मिली हुई प्रतियों के अन्त में लिखा है कि "विवेक से राज्य छोड़ने वाले राजा अमोघवर्ष ने विद्वानों की उत्तम अलंकार रूप यह रत्नमाला रची है।

इस प्रकार भिन्न भिन्न चार पुरुष उसके कर्ता माने जाते हैं, जिनमें से कोई एक उसका कर्ता होना चाहिये। उक्त पुस्तक में वेदवाक्य के सेवन, विष्णु और शिव की भक्ति तथा सेवा का उपदेश होने और जैनों के उपासनीय देवताओं के नाम न होने से स्पष्ट है कि वह जैनी नहीं, किन्तु किसी वेदधर्मानुयायी का रचा हुआ है। और सम्भव है कि विमल को उसका कर्ता प्रकट करने वाला अंतिम श्लोक जो श्वेताम्बरियों के भंडार की प्रति में लिखा मिलता है, किसी जैन विद्वान् ने पीछे से उसमें धर दिया हो। इसी प्रकार शुकदेव जी और शंकराचार्य को उसका कर्ता मानने के लिए कई एक प्रतियों के अंत में उनका नाम होने के अतिरिक्त कोई प्रमाण नहीं है। ईसवी सन् की ग्यारहवीं शताब्दी के पूर्वार्द्ध में उसका तिब्बती भाषा में अनुवाद हुआ जिसमें लिखा है कि "वह पुस्तक बड़े राजा अमोघवर्ष ने रचा था।" और दिगम्बर जैनों के भंडार से मिली हुई पुस्तक में भी वैसा ही लिखा मिलता है। अतएव अमोघवर्ष नामक कोई राजा उसका कर्ता होना चाहिये।

'अमोघवर्षं' नाम नहीं, किन्तु उपनाम अर्थात् विरुद है, जो दक्षिण में राज्य करने वाले राष्ट्रकूट ( राठोड़) वंश के चार राजाओं ने और मालवे के परमार राजा मुंज ने धारण किया था । इन अमोघवर्ष उपनाम वाले पाँच राजाओं में से अमोघवर्ष प्रथम और परमार राजा मुंज ये दो ही राठौड़ राजा विद्वान् और कवि थे। अन्य तीन राजाओं को सरस्वती देवी की प्रसादी मिलने का कोई प्रमाण नहीं मिलता और न उनमें से एक भी 6 वर्ष से अधिक राज्य करने पाया था। उपर्युक्त दोनों विद्वान् राजाओं में से परमार मुंज ( अमोघवर्ष ) भी उसका कर्ता नहीं ठहर सकता, क्योंकि उक्त पुस्तक के अंत में स्पष्ट लिखा है कि "विवेक से राज्य छोड़ने वाले राजा अमोघवर्ष ने उसे रचा" । यह कथन मुंज के वास्ते यथार्थ नहीं हो सकता, क्योंकि वह विवेक ( वृद्धावस्था ) के कारण राज्य छोड़ - बानप्रस्थ होने नहीं गया, किन्तु कल्याण के चौलुक्य ( सोलंकी ) राजा तैलप पर चढ़ाई करने के समय बन्दी होकर मारा गया था। उपर्युक्त कथन राठौड़ राजा अमोघवर्ष प्रथम के वास्ते सार्थक हो सकता है । क्यों कि वह विद्वान् था, कविराज उसकी उपाधि थी, 'कविराज मार्ग' नामक अलंकार का ग्रंथ भी उसने कनड़ी भाषा में रचा था, जो उक्त विषय में प्रमाण रूप माना जाता है। 60 वर्ष के लगभग राज्य करने के पश्चात् अपने पुत्र कृष्णराज ( अकालवर्ष ) दूसरे को राज्य देकर वह वानप्रस्थ हुआ था। और दिगम्बर जैनों का, जिनके भंडार की पुस्तक में उसका नाम मिलता है, आश्रयदाता वही था। अतएव प्रश्नोत्तररत्नमाला का कर्ता राठौड़ राजा अमोघवर्ष प्रथम हो होना चाहिये।
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बाहरी कड़ियाँ[संपादित करें]

सन्दर्भ[संपादित करें]

  1. प्रश्नोत्तररत्नमालिका (पृष्ठ २, प्रश्नोत्तररत्नमालिका का कर्ता?)