धर्मप्रचार (ईसाई)

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बाइबिल में लिखा है कि ईसा ने अपने स्वर्गारोहण के पूर्व अपने शिष्यों को आदेश दिया था कि वे संसार भर में उनके धर्म का प्रचार करें। अत: प्रारंभ से ही धर्मप्रचार ईसाई धर्म की एक प्रधान विशेषता रही है।

ईसाई मिशनरी का समर्थन[संपादित करें]

अफ्रीका, चीन, ग्वाटेमाला, भारत, इंडोनेशिया, कोरिया और अन्य स्थानों में ईसाई मिशनरियों का प्रमुख योगदान स्वच्छता और साबुन की शुरूआत और वितरण के माध्यम से लोगों की बेहतर स्वास्थ्य देखभाल थी, और सफाई और स्वच्छता एक ईसाई के रूप में पहचाने जाने का एक महत्वपूर्ण चिह्न बन गया"।

ईसाई धर्म का प्रसार[संपादित करें]

येरुसलेम में ईसाई धर्म का जन्म हुआ थ। वहाँ से वह उत्तर की ओर अंतिओक तक फैल गया। अंतिओक तथा बाद में रोम के केंद्र से रोमन साम्राज्य तथा समस्त यूरोप में ईसाई धर्म के प्रसार हो गया।

येरुसलेम से ईसाई धर्म प्रथम शताब्दी ई. में ही पूर्व की ओर फारस और संभवत: भारत तक फैल गया। दक्षिण भारत के ईसाई मानते हैं कि संत तोमस केरल आए थे। चौथी शताब्दी ई. में एथियोपिया ईसाई बन गया। नेस्तोरियन ईसाइयों ने अरब, फारस, मध्य एशिया, भारत तथा चीन में अपने मत का प्रचार किया थ किंतु इसलाम के प्रसार से उन देशों में ईसाई धर्म नाम मात्र बच गया है।

पश्चिम के चर्च की ओर से 13वीं शतब्दी तक यूरोप के बाहर धर्म फैलाने का कोई प्रयास नहीं हुआ। फ्रांसिस्की तथा दोमिनिकी धर्मसंधियों द्वारा निकट पूर्व तथा चीन में धर्मप्रचार का कार्य प्रारंभ हुआ किंतु उनको स्थायी सफलता नहीं मिल सकी।

अन्वेषणों का युग[संपादित करें]

पुर्तगाल और स्पेन ने 15वीं शताब्दी में अफ्रीका, अमरीका तथा एशिय में व्यापारकेंद्र तथ उपनिवेश स्थापित करना प्रारंभ किया। ये तीनों देश काथलिक थे; उनका संरक्षण पाकर धर्मप्रचार का कार्य 15वीं तथा 17वीं शताब्दी में सफलतापूर्वक बढ़ने लगा। पुर्तगाल ने पहले अफ्रीका के पश्चिमी तथा पूर्वी तटवर्ती प्रदेशों में व्यापारकेंद्र स्थापित किए और इस प्रकार इसलाम का प्रसार रोक दिया। 16वीं शताब्दी के अंत में पुर्तगाल भारत के तटवर्ती प्रदेशों में उपनिवेश बसाने लगा, बाद में उसने मसालोंवाले पूर्वी द्वीपसमूह को भी अपने अधिकार में कर लिया। उन सभी क्षेत्रों में शीघ्र ही ईसाई धर्मप्रचार का कार्य प्रारंभ हुआ। भारत में विशेष रूप में गोवा के आसपास और बाद में संत फ्रांसिस ज़ेवियर के नेतृत्व में दक्षिण के पूर्वी तटवर्ती प्रांतों में काथलिक धर्म का प्रचार हुआ; आज भी वहाँ रोमन काथलिक काफी संख्या में विद्यमान हैं। संत फ्रांसिस जेवियर ने सन् 1549 ई. में जापान में मिशन का कार्य प्रारंभ किया, वहाँ पर्याप्त सफलता भी मिली थीं किंतु शीघ्र ही ईसाइयों पर अत्याचार होने लगा और सन् 1635 ई. तक बाहर के ईसाइयों से कोई भी संपर्क नहीं रहा। सन् 1581 ई. में जेसुइट धर्मसंधियों ने सम्राट की अनुमति से चीन में ईसाई धर्म का प्रचार आरंभ कर दिया। वहाँ भी बाद में ईसाइयों को अत्याचार सहना पड़ा, किंतु आज भी चीनी ईसाइयों की संख्या नगण्य नहीं है।

मध्य तथा दक्षिण अमरीका में धर्मप्रचार का कार्य सर्वाधिक सफल रहा। पुर्तगाल ने सन् 1500 ई. में ब्राजील पर अधिकार कर लिया; शीघ्र ही वहाँ उसका एक अत्यंत विस्तृत उपनिवेश स्थापित किया गया जिसमें विशेष रूप से जेसुइटों ने धर्मप्रचार का कार्य संभाल लिया। आजकल उस देश के 93 प्रतिशत निवासी काथलिक हैं। 16वीं शताब्दी के मध्य तथा दक्षिण अमरीका के शेष देशों में और सुदूर पूर्व के फिलिपाइन द्वीपसमूह में स्पेन के साम्राज्य की स्थापना हुई और साथ साथ उन सब देशों में सरकार के संरक्षण में धर्मप्रचार कार्य भी प्रारंभ हुआ। आज तक वे देश प्रधानतया रोमन काथिलक ही हैं। सन् 1960 में फिलीपाइन द्वीपसमूह के 80 प्रतिशत निवासी रोमन काथलिक थे।

पुर्तगाल और स्पेन के संरक्षण में जो धर्मप्रचार हुआ था, उसकी सफलता तो असंदिग्ध थी किंतु रोम के धर्माधिकारी नहीं चाहते थे कि धर्मप्रचार उन राज्यों का ही उत्तरदायित्व समझा जाए, इसलिए सन् 1622 में रोम में प्रोयागांद फिदे नामक एक केंद्रीय संस्था की स्थापना हुई जिसका उद्देश्य था धर्मप्रचार का कार्य करना राजनीतिक संरक्षण के बंधनों से मुक्त करना तथा मिशन क्षेत्रों के ईसाई संप्रदाय को स्वावलंबी बनाना। इस उद्देश्य की पूर्ति के लिए सन् 1627 ई. में स्वदेशी पुरोहितों की शिक्षा दीक्षा के लिए रोम में एक कालेज की स्थापना हुई थी, जहाँ आज भी विश्व भर के विद्यार्थी पढ़ने आते हैं। सन् 1658 में पेरिस में विदेशी मिशनों की सोसायटी स्थापित हुई जिसके मिशनरी किसी देश की ओर से नहीं बल्कि रोम की प्रोपागांद फिदे द्वारा विभिन्न क्षेत्रों में धर्मप्रचार करने जाते हैं। आजकल रोमन काथलिक चर्च के समस्त मिश्नरी उसी प्रोपागांदा फिदे के निर्देशन में काम करते हैं।

पश्चिम के आधिपत्य का युग[संपादित करें]

पुर्तगाल और स्पेन के अतिरिक्त यूरोप के अन्य देश इंग्लैंड, फ्रांस, हालैंड, डेनमार्क, स्वीडन आदि भी उपनिवेश स्थापित करने लगे थे जिससे 18वीं तथा 19वीं शताब्दी में समस्त संसार में पाश्चात्य देशों का आधिपत्य स्वीकार किय गया था। हालैंड और इग्लैंड ने एशिया के बहुत से पुर्तगाली उपनिवेश अपने अधिकार में कर लिए जिससे रोमन काथलिक मिशनों के कार्य में बाधा पड़ गई। इसके अतिरिक्त स्पेन और पुर्तगाल के शासक धर्मप्रचार के प्रति उदासीन बन गए और फ्रांस की क्रांति तथा नैपोलियन के युद्धों ने यूरोप में अशांति फैल दी; इन सब कारणों से 18वीं शताब्दी तथ 19वीं शताब्दी का प्रारंभ रोमन काथलिक मिशनों का अवनतिकाल कहा जा सकता है।

दूसरी ओर 18वीं शतब्दी में प्रोटेस्टैंट मिशनों का कार्य दुनिया भर में शुरु हुआ। ऐंग्लिकन संप्रदाय का ध्यान पहले उत्तर अमरीका तक सीमित था किंतु उस शताब्दी में वह अपना धर्मप्रचार का कार्य फैलाने लगा। उसकी तीन मिशनरी संस्थाएँ विश्वविख्यात हैं- सोसाइटी फॉर प्रोमोटिंग क्रिश्चियन नालेज (सन् 1698 ई. में स्थापित), सोसाइटी फार दि गास्पेल (सन् 1701 ई.) और चर्च मिशनरी सोसाइटी (1799 ई.)। लूथरन डेनमार्क की ओर से भारत में प्रथम प्रोटेस्टैंट मिशन की स्थापना सन् 1705 ई. में हुई थी। 18वीं शताब्दी तथा 19वीं शताब्दी पूर्वार्ध में सभी प्रोटेस्टैंट संप्रदाय तथा देश धर्मप्रचार के कार्य में सहयोग देने लगे। बैपटिस्ट मिशन की ओर से विलियम केरी सन् 1793 में भारत पहुँचकर शीघ्र ही हिंदी बाइबिल की तैयारी में लग गए। विश्वविख्यात ब्रिटिश ऐंड फारेन बाइबिल सोसायटी की स्थापना सन् 1804 ई. में हुई थी। सन् 1807 ई. में मेरिसन के नेतृत्व में चीन में प्रोटेस्टैंट मिशन का कार्य प्रारंभ हुआ।

19वीं शताब्दी में रोमन काथलिक मिशनों का भी अपूर्व विकास हुआ। पुरुषों तथा स्त्रियों के बहुत से नए धर्मसंघों की स्थापना हुई जिनके सदस्य हजारों की संख्या में मिशन क्षेत्रों में काम करने गए। इस प्रकार 19वीं शताब्दी के अंत तक काथलिक, ऐंग्लिकन तथा प्रोटेस्टैंट धर्मप्रचारक दुनिया के प्राय: सब गैर ईसाई देशों में मिशन की विभिन्न संस्थाओं में काम करते थे।

20वीं शताब्दी[संपादित करें]

विश्व इतिहास की दृष्टि से पाश्चात्य उपनिवेशों की समाप्ति 20वीं शताब्दी की सबसे बड़ी विशेषता है। इससे ईसाई मिशनों के कार्य में कोई विशेष बाधा उपस्थित नहीं हुई क्योंकि मिशनों के इतिहास की दृष्टि से देशी ईसाई संप्रदायों की उत्तरोत्तर बढ़ती हुई स्वावलंबिता इस शताब्दी की विशेषता है। इसके प्रथम दशकों में मिशन क्षेत्रों के ईसाई संप्रदायों को इस प्रकार स्वावलंबी बनाने का प्रयत्न किया जाने लगा कि बाहर से न पुरोहित और न रुपए की जरूरत पड़े। सर्वत्र स्वदेशी पुरोहितों की संख्या बढ़ने लगी। भारत में सन् 1912 में प्रथम ऐंग्लिकन भारतीय बिशप वी. ज़ेद आतारिया की नियुक्ति हुई और सन् 1923 ई. से लेकर केरल के बाहर भी भारतीय रोमन काथलिक बिशपों की नियुक्ति होने लगी। सन् 1926 ई. में प्रथम छह चीनी रोमन काथलिक बिशपों का अभिषेक हुआ। इस प्रकार एशिया और अफ्रीका के प्राय: सभी मिशन क्षेत्रों में ईसाई संप्रदाय स्वावलंबिता की दिशा में बहुत आगे बढ़ने लगे और आजकल नए स्वाधीन राष्ट्रों में अधिकांश अथवा बहुत से पुरोहित और बिशप स्वदेशी ही हैं। सन् 1921 ई. में विभिन्न प्रोटेस्टैंट मिशनों में सहयोग बढ़ाने के उद्देश्य से अंतरराष्ट्रीय मिशनरी समिति (इंटरनेशनल मिशनरी कौंसिल) की स्थापना हुई जिसका मुख्य कार्यालय लंदन में है।

द्वितीय महायुद्ध के बाद नास्तिक साम्यवाद के प्रचार से चीन, उत्तर कोरिया तथा उत्तर वियतनाम के ईसाई संप्रदायों को उत्पीड़न सहना पड़ा और बाहर के ईसाई भाइयों के साथ उनके संबंध पर सरकार की ओर से प्रतिबंध लगा दिया गया।

धर्मप्रचार के लिये ईसाई लोग शिक्षाप्रचार, रोगियों की चिकित्सा, मातृ जाति के उन्नयन, सामाजिक सुधार तथा स्वेदशी भाषाओं के अध्ययन भी करते हैं।