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ताम्रलिप्त

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ताम्रलिप्त या ताम्रलिप्ति (बंगाली: তাম্রলিপ্ত) बंगाल की खाड़ी में स्थित एक प्राचीन नगर था। विद्वानों का मत है कि वर्तमान तामलुक ही प्राचीन ताम्रलिप्ति था। ऐसा माना जाता है कि मौर्य साम्राज्य के दक्षिण एशिया तथा दक्षिण-पूर्व एशिया के लिए यह नगर व्यापारिक निकास बिन्दु था।[1]

पश्चिमी बंगाल के मिदनापुर जिले का आधुनिक तामलुक अथवा तमलुक जो कलकत्ता से ३३ मील दक्षिण पश्चिम में रूपनारायण नदी के पश्चिमी किनारे पर स्थित है। यद्यपि समुद्र से इसकी वर्तमान दूरी ६० मील है, प्राचीन और मध्यकालीन युग में १७वीं शताब्दी तक समुद्र उसको छूता था और वह भारतवर्ष के दक्षिण-पूर्वी तट का एक प्रसिद्ध बंदरगाह था। ताम्रलिप्ति, नगर की ही नहीं, एक विशाल जनपद की भी संज्ञा थी। उन दिनों गंगा नदी भी उसके नगर के पास से होकर ही बहती थी और उसके द्वारा समुद्र से मिले होने के कारण नगर का बहुत बड़ा व्यापारिक महत्व था। भारतवर्ष के संबंध में लिखनेवाला सुप्रसिद्ध भूगोलशास्त्री प्लिनी उसे 'तामलिटिज' की संज्ञा देता है। प्राचीन ताम्रलिप्ति नगर के खंडहर नदी की उपजाऊ घाटी में अब भी देखे जा सकते हैं।

ताम्रलिप्ति जनपद और उसके बंदरगाह का महत्व भारतीयों को पूर्वी भारत और समुद्र पार दक्षिण-पूर्व के देशों की जानकारी हो जाने के बाद बढ़ा होगा। सर्वप्रथम महाभारत (भीष्मपर्व, ९-७६) में उसकी चर्चा मिलती है, जिसमें यह कहा गया है कि भीमसेन ने वहाँ के राजा को हराकर कर वसूल किया था। मौर्यों का युग आते आते उसका महत्व निश्चय ही स्पष्ट रूप से प्रकट होने लगा था। प्लिनी एक ऐसी सड़क का वर्णन करता है जो उत्तरी पश्चिमी सीमाप्रांत में पुष्करावती (पेशावर के पास) से प्रांरभ होकर तक्षशिला, हस्तिनापुर, आधुनिक अनूपशहर और डिबाई होते हुए कन्नोज, प्रयाग, वाराणसी और पाटलिपुत्र तक जाती थी। बीच में वह सिंधु, झेलम, व्यास, सतलज, यमुना और गंगा को पार करती थी। पाटिलिपुत्र के आगे भी वह पूर्व में गंगासागर तक जाती थी और ताम्रलिप्ति स्थल ही उसका अंतिम बिंदु रहा होगा। [[अर्थशास्त्र {ग्रंथ)|अर्थशास्त्र]] में तथा यूनानी लेखकों के विवरणों में मौर्यो के नौविभाग का जो विवरण है, उससे स्थलीय व्यापार के साथ जलीय व्यापार का सहज अनुमान लगाया जा सकता है। इस दृष्टि से ताम्रलिप्ति की प्राकृतिक स्थिति का इस कारण बड़ा अधिक महत्व होगा कि बहु दक्षिणी-पूर्वी भारत को ही नहीं समुद्रपार के देशों को भी मध्य एशिया के नगरों से जोड़ता था। बाद में ज्यों ज्यों दक्षिणी-पूर्वी एशिया के देशों की जानकारी होती गई तथा उनसे भारत के व्यापारिक, सांस्कृतिक और राजनीतिक संबंध बढ़ते गए, ताम्रलिप्ति की प्रमुखता भी बढ़ती गई। चौथी शती से १२वीं शती तक वहाँ अनेक देशों के जहाज लगे रहते थे। वहाँ से नील, शहतूत और पशम का निर्यात बाहर के देशों को किया जाता था।

अशोक के समय से ताम्रलिप्ति का बौद्ध धर्म संबंधी महत्व भी बढ़ गया। सिंहल के बौद्ध ग्रंथों-महावंश और दीपवंश में उसे तामलप्ति अथवा ताम्रलिप्ति कहा गया है और उनसे दीपवंश में उसे ताम्रलित्ति अथवा ताम्रलिप्ति कहा गया है और उनसे यह सूचना मिलती है (महा०, ११-३८; दीप०, ३-३३) कि वहीं से अशोक ने जहाज द्वारा बोधिवृक्ष की शाखा सिंहल भेजी थी। उस अवसर पर स्वय अशोक गंगा को पार करते हुए पाटलिपुत्र से वहाँ पहुँचे थे। पाँचवी शती के प्रारंभ में फाह्यान भी वहीं से होकर समुद्रमार्ग द्वारा सिंहल गया था (गाइल्स, पृष्ठ ६५)। हर्षवर्धन के समय जब युवान्च्वाड् भारतवर्ष आया था उसने ताम्रलिप्ति देखा। वहाँ उसने कुछ बौद्ध विहार और अशोक का बनवाया हुआ एक स्तंभ भी देखा था (वाटर्स, युवान् च्वाड्, ट्रवेल्स, द्वितीय, पृ० १८९-९०)। इंत्सग ने चीन से भारत आते समय अपना जहाज वहीं छोड़ा था। बाद के भारत आने वाले चीनी यात्रियों ने भी वैसा ही किया (ताकाकुसु, इत्सिग् रेकार्ड ऑव दि बुद्धिस्ट रेलिजन् पृष्ठ १८५-२११)।

मलय प्रायद्वीप और हिंद चीन के द्वीपसमूहों में भारतीय राजकुमारों ने जब अपने उपनिवेश स्थापित किए होंगे, उन दिनों भी ताम्रलिप्ति भारत से आवागमन का द्वार रहा होगा। किंतु भारतीय इतिहास के मध्यकाल में उसका व्यापारिक महत्व अवश्य कुछ कम हो गया ओर यूरोप से जब व्यापारिक जातियाँ भारत में आई पश्चिमी समुद्रतट ही उपयोग में लाया जाने लगा।

सन्दर्भ

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  1. "Purba (East) Medinipur". Calcutta High Court. Archived from the original on 17 अक्तूबर 2011. Retrieved 19 नवम्बर 2011. {{cite web}}: Check date values in: |archive-date= (help)

इन्हें भी देखें

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तामलुक

बाहरी कड़ियाँ

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