ग्रामोफ़ोन
ग्रामोफोन (gramophone) ध्वनि उत्पन्न करनेवाला एक यंत्र है, जो एक सूई के दोलनों को वायु में संचारित कर ध्वनि उत्पन्न करता है। सूई एक घूमते हुए रिकार्ड में बने घुमावदार खाँचे के संपर्क में होती है। ग्रामोफोनयूनानी भाषा में "ग्रामो" का अर्थ है अक्षर और "फोन" का अर्थ है ध्वनि। व्यापक अर्थ में किसी भी ऐसे यंत्र को ग्रामोफोन कहते हैं जिससे ध्वनि का अभिलेखन और बाद में पुनरुत्पादन होता है।
आविष्कार एवं विकास
[संपादित करें]सर्वप्रथम लियन स्काट (Leon Scott) ने सन् 1857 में एक ऐसे यंत्र, फोनाटोग्राफ, का आविष्कार किया जिसके द्वारा ध्वनि का अभिलेखन किया जा सकता था। फोनाटोग्राफ में एक झिल्ली थी, जिससे एक बहुत नाजुक उत्तालोक (lever) संलग्न था। झिल्ली एक परवलीय कीप (parabolic funnel) के पतले सिरे पर तनी होती थी। उत्तोलक की नोक एक ऐसे बेलन पर लाई जाती थी जिसपर एक कागज लिपटा होता था और कागज पर कालिख पुती होती थी। बेलन एक बहुत सूक्ष्म पेंच से लगा होता था, जो बेलन के घूमने पर क्षैतिज दिशा में चलता था। जब झिल्ली पर ध्वनि पड़ती थी और बेलन घुमाया जाता था तब चिन्हक कागज के काले पृष्ठ पर एक सर्पिल रेखा बन जाती थी। इस प्रकार ध्वनि का अभिलेखन कर लिया जाता था।
अभिलिखित ध्वनि का प्रथम वास्तविक पुनरुत्पादन टी.ए. एडिसन द्वारा सन् 1876 में संभव हो सका। ऐडिसन ने अपने यंत्र को फोनोग्राफ नाम दिया। इसमें एक पीतल का बेलन था, जिसपर सर्पिल रेखा बनाई जाती थी। बेलन से एक क्षैतिज पेंच लगा होता था। लगभग 2 इंच व्यासवाले पीतल के एक छोटे से बेलन के मुँह पर पार्चमेंट की एक झिल्ली तानी जाती थी। झिल्ली के केंद्र से एक इस्पात की सूई संलग्न होती थी जिसकी नोक छेनीदार होती थी। सूई की नोक के पास इस्पात की एक कठोर कमानी लगाई जाती थी। कमानी का दूसरा सिरा पीतल के बेलन से जुड़ा होता था। अभिलेखी बड़े बेलन पर इस प्रकार रखा जाता था कि बेलन के घूमने पर सूई की पतली धार सर्पिल खाँच (ग्रूव) के बीच में चले। बेलन पर टिन की पन्नी की एक परत होती थ। जब छोटे बेलन में ध्वनि का प्रवेश कराकर झिल्ली को कंपायमान किया जाता था तब दोलनों के दबाबों की विभिन्नता के कारण खाँच के तल में पन्नी पर चिन्हक द्वारा विभिन्न गहराइयों की खुदाई हो जाती थी। यह खुदाई ध्वनि तरंगों के अनुरूप होती थी।
ध्वनि के पुनरुत्पादन के लिये खाँच पर एक दूसरा चिन्हक रखा जाता था। चिन्हक खुदाई का अनुसरण करता हुआ क्रम से ऊपर या नीचे जाता था और इस तरह वह झिल्ली को, जिस प्रकार वह अभिलेखन के समय कंपित की गई थी उसी प्रकार, कंपित होने के लिये बाध्य करता था। झिल्ली के कंपन वायु को कंपित करते थे और इस प्रकार पूर्वध्वनि का पुनरुत्पादन होता था।
आगे चलकर इसमें बहुत से सुधार किए गए। एडिसन के मोम के बेलनवाले फोनोग्राफ ओर ग्रैहम बेल तथा सी.एस. टेंटर के ग्रामोफोन में रिकार्ड पर ऊपर नीचे खुदाई करके नहीं, वरन् कटाई करके, ध्वनि अभिलेखन किया गया। ध्वनि पुनरुत्पादन विद्युत्-जमाव-प्रक्रिया द्वारा किया गया। फोनोग्राफ की तरह बेलनाकार रिकार्डों का उपयोग करनेवाली मशीनें बहुत दिनों तक जनप्रिय नहीं, परंतु इनमें बहुत सी त्रुटियाँ थीं। इन त्रुटियों में से कुछ को दूरकर एमाइल बर्लिनर (Emile Berliner) ने सन् 1887 में एक यंत्र बनाया, जिसे ग्रामोफोन नाम दिया।
उसके पेटेंट विवरण के प्रथम रेखाचित्र में एक बेलनाकार रिकार्ड था, जो काजल से पुते एक कागज के रूप में था। यह कागज एक ढोल पर लिपटा था। काटनेवाली सूई क्षैतिज दिशा में चलती थी और काजल को हटाकर एक सर्पिल रेखा बनाती थी। पुनरुत्पादन के लिये उसने रिकार्ड की नकल यांत्रिक ढंग से, खुदाई या कटाई कर प्रतिरोधी पदार्थ पर की। उसने ताँबा, निकल या अन्य किसी धातु का स्थायी रिकार्ड बनाया, जिसपर सर्पिल गहरी रेखा थी। अभिलिखित ध्वनि को उत्पन्न करने के लिये रिकार्ड एक ड्रम पर लपेटा जाता था और सूई की नोक खाँच में रखी जाती थी तथा ड्रम को घुमाया जाता था।
बर्लिनर के दूसरे और संशोधित ग्रामोफोन में रिकार्ड के लिये एक चौरस पट्टिका का उपयोग किया गया। काँच की एक पट्टिका पर स्याही, या रंग की एक परत जमा देते थे। उसपर सूई किनारे से केंद्र की ओर, या केंद्र से किनारे की ओर, सर्पिल रेखा बनाती थी। एक मेज पर रिकार्ड पट्टिका को रखकर मेज को किसी उपयुक्त प्रकार से घुमाया जाता था। पट्टिका पर एक ऐसे पदार्थ की परत जमाई जाती थी जो सूई की गति का बहुत कम प्रतिरोध करता था और अम्लों से प्रभावित नहीं होता था। बेंज़ीन में घुले हुए मधुमक्खी के मोम को उसने उपयुक्त पाया। जब सूई से रिकार्ड पर खाँच बन जाती थी ओर उसके तल पर ठोस खुला रह जाता था, तब अम्ल डालकर खुदाई की जाती थी और स्थायी रिकार्ड बना लिया जाता था। कड़े रबर या अन्य पदार्थों की पट्टिकाओं को दबाकर रिकार्ड की प्रतिलिपियाँ प्राप्त की जाती थीं। पट्टिकानुमा रिकार्डों का निर्माण सन् 1897 में जाकर कहीं व्यापारिक दृष्टि से सफल हो सका।
अभिलेखन (recording) की प्रारंभिक विधि
[संपादित करें]गायकों को भोंपू (horn) के मुख के ठीक सामने रखा जाता था ताकि ध्वनि की ऊर्जा तनुपट (diaphragm) पर केंद्रित हो सके। गायक या वादक सिमटकर बैठते थे। एक परदे के आगे भोंपू बाहर की ओर निकला होता था। परदे के दूसरी ओर अभिलेखन मशीन होती थी, जिसमें मोम जैसे पदार्थ की चौरस पट्टिका होती थी। इसी पट्टिका पर सूई सर्पिल रेखा अंकित करती थी। विद्युत् जमाव की प्रक्रिया द्वारा इस पट्टिका से ठोस धातु का एक प्रतिछाप (negative) बनाया जाता था। एक ऐसे पदार्थ पर जो साधारणत: कड़ा होता है, परंतु गरम करने पर मुलायम हो, जाता है, इस प्रतिछाप को दबाकर उसकी प्रतिलिपियाँ बनाई जाती थीं।
इसी समय के आस पास बहुत से आविष्कारकों ने पुनरुत्पादन करनेवाली मशीनों के सुधार की ओर ध्यान दिया। लंदन के विज्ञानसंग्रहालय में प्रदर्शित बहुत से ग्रामोफोनों द्वारा उनके विकास की विभिन्न अवस्थाओं की झलक मिलती है। आरंभ में बर्लिनर की मशीन है, जिसमें धातु तनुपटवाली अनुनाद पेटिका (Sound box) है। यह हाथ से चलाई जाती थी। सन् 1896 में यांत्रिक नियंत्रण का प्रवेश हुआ और शताब्दी के अंत तक घड़ी के समान यंत्र बनाया गया, जो केवल पुनरुत्पादन के लिय प्रयुक्त होता था। इसमें सेलूलायड का तनुपट था, परंतु दो साल पश्चात् अभ्रक का उपयोग होने लगा। सन् 1905 तक ऐसी अनुनादपेटिका का विकास हो चुका था जो बिना किसी महत्वपूर्ण परिवर्तन के 20 वर्ष तक प्रचलित रही। इसमें अभ्रक का तनुपट था, जो चारों तरफ किनारे पर रबर के खोखले छल्ले रूपी गैस्केट (gasket) से अच्छी तरह कसा रहता था। जो उत्तोलक तनुपट के केंद्र को सुई की नोक से लोड़ता था, उसका आलंब असिकोर का होता था और उसकी गति का नियंत्रण कोमल कमानियों द्वारा होता था। अच्छे पुनरुत्पादन के लिये बड़े हार्न आवश्यक थे, परंतु जब इनका भार बहुत अधिक होने लगा तब उन्हें अनुनादपेटिका से अलग कर दिया गया और मशीन की पेटी पर बने एक ब्रैकेट से जोड़ा जाने लगा। अनुनादपेटिका को भोंपू से जोड़ने के लिय एक छोटी नलिका का उपयोग किया गया, जिसे ध्वनिभुजा (tone arm) कहते थे। भोंपू का दिखाई देना जनता पसंद नहीं करती थी, इसलिये उसे उलटा करके पेटी में रखा गया।
अभिलेखन की आधुनिक विधि
[संपादित करें]वक्ता या गायक ध्वनिपोष (microphone) के सामने बोलता या गाता है। ध्वनिपोष में उत्पन्न परिवर्ती विद्युद्धारा को रेडियो वाल्वों द्वारा संबंधित कर एक कुंडली में ले जाते हैं। विद्युद्धारा के घटने बढ़ने से नरम लोहे का आर्मेचर पार्श्व दिशा में दोलित होता है और उससे जुड़ी हुई नीलम (sapphire) की सूई मोमपट्टिका पर सर्पिल खाँच बना देती है।
विद्युद्विधि से ध्वनि उत्पादन करने के लिये अनुनादपेटिका की जगह विद्युद्ध्वनिग्रह (pick up) का उपयोग करते हैं। सूई की पार्श्वीय गति एक कुंडली में परिवर्ती धारा उत्पन्न करती है, जिसे संबंधित कर लाउडस्पीकर में ले जाते हैं। बहुत से ध्वनिग्रह मणिभ का उपयोग करते हैं और बहुतों में घूमनेवाला घात्र (armature) होता है या कुंडली। कुछ ध्वनिग्रह विद्युद्धारित्र का भी उपयोगकरते हैं।
1926 ई. तक तवें (records) का व्यास 10-12 इंच होता था और वे एक मिनट में 78 या 80 बार घूमते थे। उनके घूमने की अवधि चार मिनट तक होती थी, परंतु अब ऐसे सुधार किए गए हैं कि एक ही तवे से आधा घंटा तक गाना सुना जा सकता है। ये तवे एक मिनट में 33 बार घूमते हैं। ऐसा भी प्रबंध किया गया है कि तवे अपने आप बदलते रहते हैं।
सन् 1935 से पहले प्राय: इस्पात की सूइयों का उपयोग किया जाता था, एक ही तवे पर चलने के बाद उन्हें बदलना आवश्यक हो जाता था, परंतु आजकल नीलम की सूइयों का उपयोग किया जाता है।
पुनर्जनन अभिलेखक (Feed-back recorder)
[संपादित करें]विद्युत् और यांत्रिक समुदायों की सदृशता के आधार पर हैरिसन ने सन् 1925 में एक पार्श्वीय अभिलेखक बनाया था। दूसरा महत्वपूर्ण चरण था ऊर्ध्वाधर अभिलेखन के लिये पुनर्जनन अभिलेखक का निर्माण। सन् 1947 तक पुनर्जनन अभिलेखक का उपयोग पार्श्वीय अभिलेखन के लिये भी किया जाने लगा। इससे यह लाभ हुआ कि सूई पर पट्टिका की अभिक्रिया से जो विकृति उत्पन्न होती थी वह कम हो गई।
बाहरी कड़ियाँ
[संपादित करें]- The 1888 Crystal Palace Recordings
- The Birth of the Recording Industry
- The Cylinder Archive
- Cylinder Preservation & Digitization Project – Over 6,000 cylinder recordings held by the Department of Special Collections, University of California, Santa Barbara, free for download or streamed online.
- History of Recorded Sound: Phonographs and Records
- Enjoy the Music – Excerpts from the book Hi-Fi All-New 1958 Edition
- Listen to early recordings on the Edison Phonograph
- Mario Frazzetto's Phonograph and Gramophone Gallery.
- The Phonograph vs. the Gramophone
- Record scanning - Ofer Springer
- San Francisco State University Museum of Anthropology
- Say What? – Essay on phonograph technology and intellectual property law
- Vinyl Engine – Information, images, articles and reviews from around the world