गोपाल भट्ट गोस्वामी

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गोपाल भट्ट गोस्वामी (1503–1578) चैतन्य महाप्रभु के सबसे प्रमुख शिष्यों में से एक थे। वे वृन्दावन के प्रसिद्ध छः गोस्वामियों में से एक थे।

जीवन परिचय[संपादित करें]

गोपाल भट्ट गोस्वामी का जन्म संवत् १५५३ विक्रमी में कावेरी नदी के तट पर श्रीरंग के पास बेलगुंडी ग्राम में हुआ था। सं. १५६८ में जब श्रीगौरांग दक्षिण यात्रा करते हुए श्रीरंग आए, वेंकट भट्ट के यहाँ चातुर्मास व्यतीत किया था। गोपाल भट्ट की सेवा से प्रसन्न हो इन्हें दीक्षा दी तथा जाते समय विवाह न करने पर अध्ययन एवं माता-पिता की सेवा करने का उपदेश दिया। माता पिता की मृत्यु पर सं. १५८८ में वृंदावन आए। श्रीगौरांग के अप्रकट होने पर वृद्ध गोस्वामियों के विशेष आग्रह पर यह आसन पर बैठे। उत्तरी तथा पश्चिमी भारत के बहुत से लोग इनके शिष्य हुए। इसके अनंतर यह यात्रा को निकले। देववन में गोपीनाथ को शिष्य बनाया तथा गंडकी नदी से एक शालिग्राम शिला ले आए, जिसकी निरंतर पूजा करते। सं. १५९९ में इनकी अभिलाषा के कारण शिला से राधारमण की मूर्ति का प्राकट्य हुआ। महारासस्थली का स्थान निश्चित कर कुटी बनाई और उसी में सेवा पूजा करने लगे। सं. १६४२ में भट्ट जी का तिरोधान हुआ। कृष्णतत्व तथा अवतारवाद पर कई स्फुट संदर्भ लिखकर जीव गोस्वामी को सुशृंखलित करने को दिया और उन्होंने षट् संदर्भ पूरा किया। इनका हरिभक्तिविलास बृहत् ग्रंथ है, जो वैष्णव स्मृति रूप में विख्यात है।

श्री गोपाल भट्ट वृंदावन में श्री वनचन्द्र महाप्रभु द्वारा साथ में लाये लोगो मैं से एक थे। ये बहुत कम आयु में ही आए थे। वृंदावन में श्री सालेग्राम जी की सेवा की व बाद मैं श्री हरीराम व्यास के वचन सुन कर श्री सालेग्राम जी की उपासना की तब उनमै से श्री राधा रमण जी प्रकट हुऐ। श्री प्रबोधानंद सरस्वती जी से श्री गोपाल भट्ट जी ने दीक्षा ली थी। श्री प्रबोधानंद सरस्वती जी गोस्वमी श्री हित हरिवन्श महाप्रभु जी के शिश्य थे।

श्री हित वृन्दावन धाम प्राकट्य कर्ता, प्रेम उपासना प्रवर्तक, वंशी अवतार गोस्वामी श्री हित हरिवंश महाप्रभु के शिष्य और श्री गोपाल भट्ट जी के गुरु श्री प्रबोधानंद सरस्वती जी कृत श्री हितहरिवंश अष्टक

त्वमसि हि हरिवंश श्याम चन्द्रस्य वंश।
परम रसद नादैर्मोहिताप शेष विश्वः ॥
अनुपम गुण रत्नै निर्मिर्तोsसिध्दजेन्द्र।
सदानन्दामोदी स हित हरिवंशो विजयते॥१॥

भावार्थ -- श्यामचंद्र के वंश में श्री हित हरिवंश नाम वाले आप ही हो। परम रस रुपी शब्दों से आपने सम्पूर्ण विश्व मोह लिया है अनुपम गुण रत्नों से निर्माण किये गए हैं। द्विजेन्द्र ! मेरे ह्रदय में आपकी कथा चित्र जैसी संलग्न रहे॥१॥

द्विज कुमुद कदम्बे चन्द्र वन्मोद कस्त्वं।
मुहु रतिरस लुब्धालीन्द्र वृन्दे प्रमत्ते ॥
अतुलित रस धारा वृष्टि कर्ता सिनादै।
विलसतु मम वाधा मूर्ध्नि जिस्नोरिवास्त्रं ॥२॥

भावार्थ -- विप्र कुमुद कुल की चन्द्रमा जैसा आनंद देने वाले मतवारे भ्रमर कुल को रति रस से लुभाने वाले अतुलनीय रस धारा की वर्षा करने वाले अर्जुन के अस्त्र के समान मेरी बाधाओं को दूर करो॥ २॥

अधिक रस वतीनां राधिकां या सखीनां।
चरण कमल वीथी कानने राजहन्स ॥
तदति ललित लीला गान विद्वत्प्रशन्स्यो।
स जयति हरिवंशोध्वंश को सो कलौनां॥ ३॥

भावार्थ -- श्री राधिका जी की अत्यंत रसवती सखियों की चरण कमल की गली में निकुंज वन के राज हंस, उनकी ललित लीला के गान में विद्वानों के द्वारा प्रशंशा से युक्त हैं जो ऐसे श्री हित हरिवंश जी की जय हो॥ ३॥

अतुलित गुण राशी प्रेम माधुर्य भाषी।
प्रणत कमल वंशोल्लास दायी सुहंस॥
अखिल भुवनशुद्धानन्दसिन्धु प्रकाश।
स जयति हरिवंश कृष्ण जीवाधिकांश॥ ४॥

भावार्थ -- अतुल गुण की राशि, प्रेम माधुरी के कहने वाले, शरणागत को आनंद देने वाले, अखिल भुवन में शुद्ध आनंदसिन्धु का प्रकाश करने वाले ऐसे श्री हरिवंश चन्द्र की जय हो॥ ४॥

गुण गण गणनेर्यर्वश्यते वश्य कृष्ण।
स्तरित किलय तोये वार्तया सतकम्बम॥
निरवधि हरिवंशो तत्र सा च प्रभाति।
नहि नहि बुध तस्मात्कृष्ण राधास्वभक्ति॥ ५॥

भावार्थ -- जिनने गुणों के समूहों से अर्थात जिन्होंने अपने गुणों से श्री कृष्ण वश किये हैं, निश्चय ही अपनी अमृत वाणी से उद्धार करने वाले हैं, जो श्री हरिवंश जी निरवधि प्रकाश करने वाले हैं और श्री राधा-कृष्ण में भक्ति कराने वाले मेरा उद्धार करो॥ ५॥

ह्रदयनभसिशुद्धे यस्य कृष्णप्रियाया।
चरण नख चन्द्र भात्यलं चन्चलायाः॥
तदति कुतुक कुंजे भावलब्धालिमुर्ति।
स जयति हरिवंशो व्यासवंश प्रदीप॥ ६॥

भावार्थ -- श्री कृष्ण प्रिया के ध्यान से ह्रदय रुपी आकाश शुद्ध करने वाले, चरण नख चन्द्र प्रकाश करने वाले, प्रिया-प्रियतम की अत्यंत आनंद कुंज में भावयुक्त हित सजनी (हित अली), श्री व्यास वंश के दीपक श्री हरिवंश चन्द्र की जय हो॥ ६॥

चरण कमल रेनुर्यस्य संसार सेतुः।
पविरिवसुविलासी दर्प शैलेन्द्र मौली॥
कलुष नगर दाही यस्य संसर्ग लेशः।
स जयति हरिवंश कृष्णकान्तावतंश॥ ७॥

भावार्थ -- जिनके चरण कमल की रेणु (रज) संसार रुपी समुद्र को पार करने का पुल है, विलासिता के गर्व से गर्वीले पुरुषों को तुच्छ करने वाले, श्री राधिका जी को ह्रदय में धारण करने वाले श्री हित हरिवंश महाप्रभु की जय हो॥ ७॥

रमण जयन नृत्वोदृभ्राम कोत्ताल पुरात्।
तदति ललित कुंजो दाज्ञयारादुपत्ये ॥
ललित भजन देहे मानुषे श्वेश्वरौ तौ।
स जयति हरिवंशो लब्धवान् यः समक्षः ॥८॥

भावार्थ -- रमण के नृत्य उद्भ्राम के शब्द से परिपूर्ण श्रोत्र (कान) हैं जिनके, प्रिया प्रियतम की ललित कुंज को अपनी आज्ञा से पहुँचाने वाले, मनोहर भजन से मनुष्यों को प्रिया प्रियतम की समक्षता को प्राप्त हुऐ और कराने वाले श्री हित हरिवंश महाप्रभु जी की जय जयकार हो॥ ८॥

सन्दर्भ[संपादित करें]

  • [http://www.radhavallabhmandir.com