गुप्त लेखन
गुप्त लेखन संवाद लिखने की ऐसी पद्धति जिसे व्यक्तिविशेष के सिवाय दूसरा न समझ सके। गुप्त लेखन दृश्य तथा अदृश्य दो प्रकार का होता है। गुप्त लेखन में संवाद बीजांक (Cipher) या कूट (Code) द्वारा प्रेषित किया जाता है। कूट पद्धति में प्रेषक तथा आदाता कूट पुस्तक का प्रयोग करते हैं। पुस्तक के द्वारा अक्षरों के समूह या किसी शब्द से गुप्त संवाद जान लिया जाता है। संदेश को यथासंभव छोटा बनाने के लिये तार या केबुल तार में प्राय: कूट का प्रयोग किया जाता है। व्यापारिक संस्थाएँ, जिनकी शाखाएँ विदेशों में फैली होती हैं, प्राय: निजी कूट पुस्तक का उपयोग करती हैं।
कूट पुस्तक का सेना में बड़ा महत्व है। यदि सैनिक अधिकारी कूट का प्रयोग न कर दमक ज्योति, ध्वजसंकेत या शाब्दिक संदेश भेजे तो वह असुरक्षित तथा बिलंबगामी हो जायगा। कूट को रहस्य बनाए रखने के लिये आवश्यक है कि कूट पुस्तक कुछ ही अत्यंत विशवासपात्र व्यक्तियों के पास हो। किंतु कूट को बीजांकित करने से रहस्य प्रकट नहीं होता।
संदेश को बीजांकित करने का अभिप्राय है संदेश को दूसरे अक्षरों या संकेत में लिखना, या अक्षरों के क्रम में परिवर्तन करना। बीजांकित संदेश पढ़ने के लिए कुंजी आवश्यक है। बीजांकन की सरलतम पद्धति प्रतिस्थापन सारणी है। वर्णमाला का प्रत्येक अक्षर किसी दूसरे अक्षर से व्यक्त किया जाता है। प्रेषक यदि चाहे तो आदाता को पहले से सूचित कर सारणी में हेर फेर कर सकता है। बीजांकप्रतिस्थापन की एक और सरल पद्धति प्लेफेयर (Playfair) है, जिनमें प्रेषक तथा आदाता को संकेत शब्द का ज्ञान होना ही संवाद समझने के लिए पर्याप्त होता है।
इतिहास
[संपादित करें]संदेशों को गुप्त रूप से भेजने की आवश्यकता का अनुभव मनुष्य सहस्रों वर्ष पूर्व से करता आया है। प्राचीन मिस्र के पुरोहित हेरोग्लिफ तथा चित्रलेखन करते थे और मंदिरों के कर्मचारी ही पौरोहित रचनाओं का मर्म समझ पाते थे। जूलियस सीजर बीजांकों का प्रयोग किया करता था। उसी के समकालीन टयूलिस टीरो नामक व्यक्ति ने सिसरो की आज्ञा से बीजांक का आविष्कार किया। टीरो की पद्धति शब्दों को प्रतीकों द्वारा व्यक्त करने की है। इसके शताब्दियों बाद जब यूरोप में राज्य हड़पने के लिए राजदूतों और मंत्रियों के सुनियोजित षड्यंत्रों का क्रम चला तब गुप्त लेखन बहुत महत्व का विषय हो गया। दूतों को पकड़कर महत्वपूर्ण गुप्त प्रलेख उड़ा दिए जाते थे। ऐसी अवस्था में साधारण बीजांकों से काम चलना संभव न था। सन् १४९९ में महंत ट्राइथेमियस की पॉलिग्रैफ़िया नामक गुप्त भाषा संबंधी पुस्तक प्रकाशित हुई। इसके बाद जेरोमी कार्डन नामक व्यक्ति ने जालायित बीजांक (Trellis cipher) का आविष्कार किया। प्रेषक तथा आदाता छिद्रयुक्त पार्चमेंट पत्र का प्रयोग करते थे। पार्चमेंट पत्र को कागज पर रखते ही गुप्त संवाद प्रकट हो जाता था।
गृहयुद्ध के दिनों में चार्ल्स प्रथम ने नवीन बीजांकों की रचना की। गृहयुद्ध की समाप्ति के बाद यूरोप में गुप्त लेखन तथा गुप्त लेख पठन का उत्साह मंद पड़ गया, क्योंकि संवाद एक राजधानी से दूसरी राजधानी में निरापद पहुँच जाते थे। किंतु प्रथम विश्वयुद्ध के काल में बीजांकों में आश्चर्यजनक परिवर्तन तथा सुधार हुए। सेना बेतार के संकेतों का प्रयोग किया करती थी और चूंकि बेतार के संकेत पकड़े जा सकते थे, अत: प्रत्येक युद्धरत राष्ट्र ने कई अंतर्ग्रहण स्टेशनों की स्थापना की जिनमें कुशल कर्मचारी तथा गुप्तभाषाविद नियुक्त थे।
युद्ध के प्रारंभिक काल में ही जर्मनी का मेगडेबर्ग नामक क्रूजर बाल्टिक सागर में धसने लगा। क्रूजर के कर्मीदल (Crew) को नावों की शरण लेनी पड़ी। इसी समय रूसी जहाजों ने आग उगलना प्रारंभ कर दिया जिसके कारण सारे जर्मन मारे गए। इनमें से एक जर्मन की लाश तैरती हुई पकड़ी गई। उसके पास कूट पुस्तक थी। उसे इंग्लैंड भेजा गया। उस पुस्तक के अध्ययन के परिणामस्वरूप ऐतिहासिक महत्व के अनेक आसूचना संस्थान स्थापित हुए। जटलैंड तथा डागर तट की विजय का कारण जर्मन बेड़ो तथा पनडुब्बियों के हालचाल की पूर्व जानकारी थी।
आधुनिक काल में वाणिज्य तथा विद्युत संचार के परिणामस्वरूप गुप्त भाषा अनिवार्य हो गई हैं तथा यह कूटनीति, वाणिज्य और सेना से अनुबद्ध है।